गाँव की गलियों में, एक आवाज़ गूंज रही थी —
“अब तो ठंडक मिल गई न तुम्हारे कलेजे को!”
ये शब्द न कोई गाली थे, न कोई शोर…
बल्कि वर्षों की चुप्पी में दबी एक चीख़ थी –
जो एक बहू के नहीं, एक बेटी के मुँह से निकली थी।
🏡 कहानी आरंभ – एक गाँव, एक घर
बिहार के एक पुराने गांव बख्तियापुर में,
शांता देवी का घर किसी हवेली जैसा तो नहीं था, पर शानो-शौकत की कमी भी नहीं थी।
पति रामेश्वर बाबू के निधन के बाद उन्होंने अपने बेटे मनोहर की शादी रीमा से कर दी थी – एक शिक्षित, संस्कारी लड़की, जिसकी आँखों में स्वाभिमान की चमक और माथे पर संस्कार की रेखाएँ थीं।
शादी के पहले दो साल ठीक-ठाक बीते।
पर धीरे-धीरे रीमा की मेहनत पर शांता देवी की अपेक्षाएँ हावी होने लगीं।
“बहू हो, सेवा तो करनी ही होगी”,
“हमारे ज़माने में तो बहुएँ सुबह चार बजे उठ जाती थीं…”
ऐसे जुमले रोज़ के संवाद बन गए थे।
रीमा चुप रहती थी।
न माँ से शिकायत, न पति से।
उसे लगता, “समय सब सिखा देगा…”
बहू की थाली में सिर्फ़ परोस नहीं, परख भी होती है
रीमा दो बच्चों की माँ बन चुकी थी।
एक तरफ़ बच्चे, दूसरी तरफ़ सास का आदेश, तीसरी तरफ़ पति का रोज़गार की तलाश में शहर से दूरी।
गाँव की औरतें कहतीं, “रीमा जैसी बहू तो भाग्य से मिलती है।”
पर किसी को पता नहीं चलता था कि उस हँसती हुई बहू के होंठों में कितनी दरारें पड़ चुकी थीं।
शांता देवी को शिकायत थी –
“ये पढ़ी-लिखी बहुएँ जवाब देती हैं, आँखों से!”
रीमा को नहीं पता था, उसकी मौन आँखें भी अपराध बन सकती हैं।
बेटी की वापसी – अनु का आगमन
शांता देवी की छोटी बेटी अनु, जो पटना में एक विद्यालय में शिक्षिका थी, सालों बाद गर्मियों की छुट्टी में मायके आई।
घर में घुसते ही अनु को कुछ बदला-बदला सा लगा।
रीमा के चेहरे की रौनक गायब थी। उसकी चाल थकी हुई, आँखें बुझी हुईं।
उसने माँ से पूछा –
“भाभी को क्या हुआ? बहुत थकी सी लग रही हैं।”
शांता देवी हँसकर बोलीं –
“अरे, बहू को क्या होना है? इतना काम भी नहीं करती… बस, नखरे हैं इसके।”
अनु चुप रह गई।
परछाइयों में दिखी पीड़ा
दोपहर के समय अनु चुपके से रसोई में गई।
रीमा अकेली खड़ी थी, माथे पर पसीना, हाथ में बर्तन, गैस की लौ धीमी, पर जिम्मेदारियों की ज्वाला तेज़।
“भाभी, आपको बुखार है क्या?” – अनु ने पूछा।
रीमा मुस्कुराई, “बस हल्का सा।”
अनु ने उसका हाथ छुआ – तेज़ बुखार था।
रीमा की आँखें भर आईं, पर आँसू वहीं रुक गए।
अनु को लगा जैसे किसी ने उसका सीना भींच लिया हो।
उसे याद आया… जब वो खुद माँ से नाराज़ होती थी, तो रीमा ही उसके लिए खीर बनाकर लाती थी।
फट पड़ी बेटी – संवादों की आग
शाम को चाय पीते वक्त अनु ने माँ से कहा –
“भाभी की तबीयत बहुत खराब है… आपने कुछ नहीं कहा?”
शांता देवी ठंडी आवाज़ में बोलीं –
“बहुएँ क्या दूध की धुली होती हैं? काम तो करना ही होता है!”
अनु की आँखों में आक्रोश उतर आया।
वो खड़ी हुई और बोली –
“अब तो ठंडक मिल गई न तुम्हारे कलेजे को, माँ?”
“बेटी अगर होती तो क्या यही हाल करतीं?”
“या फिर बहू का आँचल कमज़ोर समझ लिया?”
घर में सन्नाटा पसर गया।
शांता देवी हकबकाई सी खड़ी रह गईं।
पिघलता हृदय – मौन की दरार से निकलता प्रकाश
अनु ने रीमा के पास जाकर उसका हाथ थामा।
“भाभी, आपने सब सह लिया… मगर अब और नहीं।”
रीमा के आँसू बहने लगे, पर होंठ अब भी मौन थे।
शांता देवी ने धीरे से कदम बढ़ाए।
पहली बार उनका हाथ रीमा के माथे तक पहुँचा।
धीरे से उन्होंने कहा —
“बहू नहीं… बेटी हो तुम भी।
माफ कर देना… माँ ने देर कर दी।”
रीमा की आँखों में आँसू थे… पर उनमें सौम्य स्वीकार भी था।
समापन – थाली अब भरी थी… प्रेम से
दूसरे दिन रसोई में रीमा अकेली नहीं थी।
अनु उसके साथ थी।
शांता देवी ने पहली बार अपने हाथों से बहू को चाय दी।
बच्चे मुस्कुरा रहे थे।
और घर के हर कोने में अब संवाद था —
मौन नहीं।
> बहू भी बेटी होती है – यह बात कहना जितना सरल है, निभाना उतना ही कठिन।
जब बेटियाँ चुप न रहें, तभी बहुओं को भी आवाज़ मिलती है।
और जब सास भी माँ बन जाए – तब ही घर, सच में “घर” कहलाता है।
@ सुरेश कुमार गौरव,सिमली सहदरा, रामधनी रोड
(मां तारा केबल नेटवर्क) मालसलामी, पटना सिटी पटना (बिहार)
#अब तो ठंडक मिल गई न!”