एक अनजाना रिश्ता – बालेश्वर गुप्ता,

अरे छोटू, एक आइसक्रीम तो लाकर दे.

   तब के इलाहाबाद और आज के प्रयाग में मैं एक मध्यम श्रेणी के होटल में रुका हुआ था. एक लगभग 13 वर्ष का बालक बड़ी ही फुर्ती से वहाँ काम करता रहता था.

   अचानक वह मेरे पास आया और बोला साहब बुरा ना माने तो एक बात बोलू? मैंने कहा हाँ हाँ बताओ क्या बात है, तुम्हें क्या चाहिये? मेरा सोचना था कि यह जरूर कुछ टिप मांगेगा. पर छोटू बोला साहब कम से कम आप मुझे छोटू ना बोला करे, मेरा नाम आशीष है. बड़ी ही मासूमियत से मेरी ओर देखता हुआ बोला साहब जी क्या आप मुझे बुलाएंगे मेरे असली नाम से, पुकारेंगे ना आशीष नाम से. बहुत दिन हो गये साहब जी अपना नाम सुने, सब छोटू ही कहते हैं.

   मै अपलक उसकी ओर देख रहा था. असली नाम से पुकारने की गुहार उसने मुझसे ही क्यों की? होटल में काम करने वाला यह बालक मेरे स्नेह से तो जुड़ा था, पर वो भी क्या उस स्नेह के कारण मुझ पर हक रखने का प्रयास कर रहा था. असल में मुझे ना जाने क्यों लगता था कि यह जरूर किसी अच्छे पढ़े लिखे परिवार से संबंधित है, पर उसने कभी भी पूछने पर भी बताया नही.



     अचानक मैंने कहा आशीष एक बात बताओ, देखो मैं तुम्हारे अंकल जैसा हूँ, मुझे बताओ तुम यहाँ कैसे आये, तुम्हारा घर कहाँ है? अपना असली नाम सुनकर और मेरी सहानुभूति से वो फफक फफक कर रो पड़ा, बस इतना पता चल पाया कि उसके पिता कोलकाता के एक इंटर कॉलेज में अध्यापक हैं. इसके अतिरिक्त उसने कुछ भी नहीं बताया. वो कह रहा था घर से भागा था कि कुछ बन कर दिखाऊंगा और बन गया छोटू. पापा से कैसे आँखे मिलाऊँगा? मेरी कोई कोशिश काम नही आयी.

       मैं पूरी रात सोच रहा था कि होटल में बैरे और सफाई का काम करने वाले के बारे में मैं इतना क्यों सोच रहा हूँ. क्या रिश्ता है उससे मेरा?

    अगले दिन वो मुझे सुबह दिखाई नही दिया और मुझे वापस आना था, सो मैं वापस आ गया. अगले दिन मैंने इतना काम अवश्य कर दिया कि फोन डायरेक्टरी जो उस समय हुआ करती थी उससे पता नोट करके कोलकाता के 15-20 इंटर कॉलेज के प्रधानाचार्यों के नाम एक एक पोस्ट कार्ड अवश्य पोस्ट कर दिया कि आपके यहाँ यदि कोई अध्यापक आशीष का पिता हो तो उसे प्रयाग के अमुक होटल से ले आये.

      कुछ समय बाद इस घटना को मैं भूल गया. पर कुछ माह बाद मुझे प्रयाग फिर जाना पड़ा और उसी होटल में संयोगवश रूकना भी पड़ा तो मुझे फिर उस छोटू अरे नही आशीष की याद आ गयी. मैंने वहाँ के पुराने कर्मचारियों से उसकी जानकारी प्राप्त की तो एक कर्मचारी मुझे पहचान कर बोला साहब जी पिछली बार आपके जाने के कुछ दिनो बाद उसके पिता आये थे और उसे लेकर चले गये थे.



       मैं समझ गया था कि मेरे एक पोस्ट कार्ड ने सही जगह पकड़ ली थी और  एक अनजाने छोटू की फिर आशीष बनने की राह प्रशस्त हो गयी थी.

    एक अनजाना रिश्ता उस दिन न जाने क्यों मेरी आँखे नम कर गया? दुःख में या संतुष्टि में या फिर खुशी में, पता नही???

     स्वयं के साथ घटित सत्य घटना पर आधारित.

     बालेश्वर गुप्ता,

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