ड्यूटी – कल्पना मिश्रा

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“छुटकी बहू ,ज़रा एक गिलास पानी दे देना।”

 

“उफ़्फ़,, अब मेरे अकेले से नही होता।  एक ही लड़के को पैदा नही किया, सबको किया है। अब दो-दो महीने सब लोग अपने साथ ले जायें और बैठाकर सेवा करें” बड़बड़ाते हुये बहू ने पानी लाकर रख दिया।

 

“पापा जी,आप अब थोड़े-थोड़े दिन सबके साथ जाकर रहिये! आख़िर ये सबकी ड्यूटी है ,,अकेले हमारी नही” वह फिर बड़बड़ाई।

 

“ड्यूटी!!”…वह उसका मुँह देखते रह गए।इस बुढ़ापे में अब यही सुनना बाकी रह गया। 

पाँच पाँच लड़कों के पिता हैं वो। तब कितना अच्छा लगता था जब पोतों,पोतियों से घर भरा रहता था। सारा दिन चिल्लपों मची रहती थी।

पर कहते हैं ना कि जहाँ चार बर्तन होते हैं ,वहाँ खड़कते भी हैं। लेकिन कुछ दिनों से इन बर्तनों से ज़्यादा ही आवाज़ें आने लगी थी फिर एक दिन ये बर्तन ऐसे खड़के कि सब अलग-अलग हो गये और वो कलेजे पर पत्थर रखकर इस अलगाव को देखते रहे, कुछ नही कर पाये।

 

चार बेटे अपने नये-नये आशियाने में चले गये पर

 छोटा बेटा पिता की सेवा करने के बहाने साथ ही रह गया। बाद में लोगों से पता चला कि उसने भी बहुत पहले से ही अपना घर ले लिया था और उसे किराए पर चढ़ाकर अच्छी ख़ासी रकम लेता है।

 

“फिर क्या सोचा पापा जी..?” बहू ने उन्हें कुरेदा।

 

“हाँ बहू ,,, सोच लिया” उन्होंने गहरी सांस ली।

“तुम सही कह रही हो! ये सिर्फ़ तुम्हारी ड्यूटी नही है और होनी भी नही चाहिए। लेकिन ये मेरा घर है तो मैं किसी के पास रहने क्यों जाऊँ? ऐसा करो ..जैसे सब चले गये हैं,वैसे हीे तुम भी जा सकती हो।”

 

#स्वाभिमान

 

कल्पना मिश्रा

कानपुर

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