आज मां को परलोक सिधारे लगभग एक महिना हो गया।
एक एक कर के सभी रिश्तेदार और विदेश में बसे दोनों भाई भी आज मां का पिंडदान करके लौट गये थे।
विधी मां की तस्वीर देखते-देखते भावुक हो उठी। आंखों से अश्रु धारा बह निकली।
माॅं की तस्वीर पर माथा टेकते हुए अत्यंत भावुकता में बोली,’ मां! तुम मुझे छोड़कर क्यूं चली गयीं। तुम बिन कैसे जिऊँगी मैं..!! ‘
दोंनो भाईयों के विदेश जाकर बस जाने और फिर पापा के भी स्वर्ग सिधारने के बाद विधी अच्छा-खासा जाब छोड़ दिल्ली से, अकेली पड़ गयी अपनी माॅं के पास हमेशा के लिये रहने आ गयी।
उससे माँ का अकेलापन देखा नहीं गया और वो अपना जमा जमाया काम छोड़कर मां के पास हमेशा के लिए चली आई थी।
दोनों मां-बेटी ने मिलकर घर से ही मसाले,आचार,चटनियों का बिजनेस शुरू कर दिया, जो दिन दुगुना, रात-चौगुना फलने-फूलने लगा। यह माॅं के ही हाथ का जादू था जिसकी खुशबू देश में ही नहीं, विदेश में भी दूर-दूर तक फैली रही थी।
दोनों के लिए साथ-साथ काम करना भी बहुत मददगार साबित हो रहा था।विधी सारे लिखत-पढत के काम देख लेती और मां आचार चटनियों में नये- नये प्रयोग कर दिन पे दिन अपना प्रोडैक्ट ज्यादा बेहतर बना रही थी।
उनका हुनर परम्परागतता व आधुनिकता का बेजोड़ संगम बन चुका था।
दोनों अपने काम की तरक्की देख बहुत खुश रहने लगीं। विधी और मां दोनों ही अपनी सफलता का श्रेय भगवान को देती और भगवान के खूब शुक्राने करतीं। यूं खुशी-खुशी दिन बीत रहे थे।
अभी तो काम में सफलता मिलने ही लगी थी कि एक दिन अचानक मां भी कार्डियक अरैस्ट हो जाने के कारण पांच दस मिनिट में ही दुनिया छोड़कर चल बसी।
और आज इस तरह दोनों का सुंदर साथ छूट गया।
आसुॅंओं से भरी ऑंखें, दोनों हाथों से ढके-ढके ही मां की तस्वीर से कहने लगी,’,’माॅं तुम्हारे बिन मैं अकेली कैसे जिऊॅंगी। बताओ न मां..! मैं क्या करूं..? कहां जाऊं..?
मन बहुत बेचैन था। हृदय व्यथित था।
घर में नितांत अकेली पड़ चुकी विधी को अचानक याद आया कि ,मां ने एक पर्स देकर कहा था मेरे जाने के बाद इसे खोलकर देखना, पहले नहीं।’
याद आते ही विधी व्यग्रता से पर्स इधर-उधर सब तरफ ढूंढ़ने लगी जिसे उसने लापरवाही से यूं ही कहीं रख दिया था।
ओह..! मैंने मां का दिया हुआ पर्स सम्हाला क्यों नहीं। विधी सोचने लगी।
यकायक उसके मुख पर खुशी की लहर दौड़ गई।
ओह.. पर्स मिल गया।
उसने बड़ी व्यग्रता व आतुरता से खोलकर उस पर्स को देखा, एक तुडा-मुडा सा कागज दिखा वो उसे आतुरता से पढ़ने लगी।
‘ मेरी प्यारी बिटिया रानी ..! , मेरी डा. विधी..!!
पढते हुए विधी को याद आया ,अपने कालेज के दिनो में उसे हिंदी में डाक्ट्रेट करने की कितनी तीव्र इच्छा थी।लेकिन बस इसका विवाह करने का निश्चय कर बैठे पिता से कहने की हिम्मत नहीं जुटा पायी।
समय तो पंख लगाकर उड़ता रहा।
विधी ने निश्चय किया अब विधी अपने नाम के आगे डा. जरूर जोडेगी पी.एच.डी करके ही दिखायेगी ।
बचपन से देखा उसका सपना कविताएं ,लेख आदि लिखने का वह जरूर पूरा करेगी।
अब वह मन लगाकर एक न एक दिन अवश्य डा. विधी कर के रहेगी। अपनी मां का आखिरी सपना अवश्य पूरा करेगी।
आज माँ की तस्वीर मानों मंद-मंद मुस्कुरा रही थी।
डा. सुखमिला अग्रवाल’भूमिजा’
©️®️ स्वरचित एवं मौलक
मुंबई