दूर की सोच – कमलेश राणा

पिछले दिनों त्र्यम्बकेश्वर् के दर्शनों की चिर प्रतीक्षित मनोकामना पूरी हुईऔर साथ ही लोगों की भविष्य के प्रति सोच ने भी बहुत प्रभावित किया,, 

हुआ यूँ कि दर्शन के बाद रुकने की व्यवस्था पर विचार कर ही रहे थे कि ऑटो वाले ने बहुत अच्छा सुझाव दिया,, वह हमें जम गया और वह हमें गुजराती धर्मशाला ले गया जहाँ बहुत ही रिजनेबल रेट पर रहने खाने की व्यवस्था थी,, दो दिन रुके हम वहाँ,, 

इन दो दिनों में हमने जो जाना उसने उस धर्मशाला के संस्थापकों की दूरदृष्टि के सामने हमें नतमस्तक कर दिया,, 

असल में वहाँ बहुत सारे लोगों ने अपने लिये कमरों का निर्माण किया है,, एक कमरा, किचिन, लेट बाथ के सेट में बेड एसी, पंखा, गैस सिलेंडर, कुछ बर्तन की सुविधा मिलती है,, आप खाना बनाना चाहें तो बना लें वरना मैस भी है वहाँ खा सकते हैं,, 

अब आप सोच रहे होंगे, इसमें अनोखा क्या है,, यह व्यवस्था तो कहीं भी मिल जाती है,, 

अनोखी है उनकी सोच,, ये कमरे उन लोगों के द्वारा अपने लिये बनवाये गये हैं जिनके बच्चे विदेशों में जाकर बस गये हैं या जिन्हें इस बात का अंदेशा है कि पता नहीं बच्चे सांध्य बेला में उनके साथ कैसा व्यवहार करेंगे,, 

वो लोग जब मन चाहे वहाँ आकर रहते हैं और जब नहीं रहते हैं तो एक तरह से किराये पर दिन के हिसाब से दे देते हैं,, इस तरह वे अपने हमउम्र लोगों के साथ ज्यादा अच्छा महसूस करते हैं,, एक बहुत बड़ा कम्युनिटी हॉल है जिसमें शाम को सत्संग होता है,, 

वैसे भी जो लोग मिलना चाहते हैं, वहाँ बैठकर बातें करते हैं या कोई खेल जैसे शतरंज आदि खेलते हैं, सबकी शारीरिक और मानसिक समस्याएं भी इस उम्र में एक सी ही होतीं हैं तो मिल बैठकर सुकून मिलता है उन्हें,, 

किसी की कोई बंदिश नहीं, दवाब नहीं, एहसान नहीं,, झाड़ू पोंछा, बर्तन, कपड़ों आदि के लिए बाई लगी है,, जितना बन पड़े करो वरना आराम करो,, इसके लिए एकमुश्त रकम सब मिलकर जमा करते हैं,, 

अपने घर में अपने जैसे अनेक लोगों के साथ रहने का एहसास,, उम्र के अनुभव और परिस्थिति उन्हें एक दूसरे का हमदर्द और सहयोगी बना देती है,, सूने घर में अकेले पड़े रहने से अच्छा लगता है उन्हें यहाँ रहना,, कुछ परमानेंट वहीं रहते हैं जबकि कुछ आते जाते रहते हैं,, 

आज के समय में जब बुजुर्गों की उपेक्षा की कहानियाँ पढ़ने को मिलतीं हैं या आस पास देखते हैं तो अपने लिये यह दूर की सोच बड़ा प्रभावित करती है,, 

वैसे ईश्वर न करे किसी को इसकी जरूरत पड़े क्योंकि भावनात्मक संतुष्टि तो परिवार में ही मिलती है पर स्थान परिवर्तन के लिए विचार बुरा नहीं है,, 

कमलेश राणा

ग्वालियर

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