दो मीठे बोल! – प्रियंका सक्सेना

“मामू, बहुत दिनों बाद चक्कर लगा यहां का?” फेरी वाले अनवर की आवाज़ सुनकर लपककर घर से बाहर आई गुंजन

“हां, बिटिया। अपने गाॅ॑व गए रहे हम, इस बार ज्यादा वक्त लग गया।” फेरी वाले अनवर  ने अपनी पेशानी पर झलकते पसीने को गमछे से पोंछने हुए कहा

उसे फिक्र नहीं थी कि किस्मत की लकीरों में क्या लिखा है वह तो सिर्फ दो मीठे बोल के लिए यहां आता था। जहां दूसरे उससे सामान तो भरपूर मोल-भाव कर लेते पर कभी एक गिलास पानी का न पूछते वहीं इस घर से उसका नाता कुछ ऐसा जुड़ गया था कि मैदान में आने के बाद पहला शहर यही होता है जहां वो पड़ाव डालता है।

“मम्मी, फेरी वाले मामू आ गए हैं।” ग्यारह साल की गुंजन ने माॅ॑ को खुशनुमा आवाज़ में जरा चिल्लाकर कहा

“आती हूं गुंजन।” सहन से बाहर आती सुधा ने कहा

फेरी वाले को देखकर सुधा भी खुश हो गई, बोली ” अनवर भाई, कितने दिन हो गए तुम्हें यहां आए। लगता है अपनी बहन-भानजी को भूल ही गए हो तुम।”

“सुधा बहन, अपने गांव गया था वहां दिन लग गए। हमारी अम्मी बहुत बीमार हो गई तो उनकी सेवा-टहल‌ में पास के शहर के अस्पताल में उनको भर्ती कराना पड़ा।”

अनवर की बातों से चिंता झलक रही थी

“कोई बात नहीं, अम्मी ठीक तो हो गईं ना। घर वापस आने के बाद तकलीफ तो नहीं रही ना?” सुधा ने व्यग्रता से पूछा

इतने में गुंजन ने अनवर मामू को पानी लाकर दिया। पानी पीकर दोपहरी में अनवर की जान में जान आई।

जब तक अनवर गला तर कर रहा है, आपका अनवर से परिचय कराती चलूं।

अनवर कश्मीर का रहने वाला है। साल‌ में जब कश्मीर में भीषण बर्फबारी होती है तब वहां के निवासी जो कि लघु उद्योग या कुटीर उद्योग में लगे होते हैं वे अपना सामान बेचने देश के मैदानी इलाकों में चले आते हैं। आप सबने कश्मीरी गर्म सलवार-कुर्तों के कपड़े, फिरहन (ऊनी कुर्ते)   शाल और सूखे मेवे- अखरोट काजू, बादाम, पिस्ते और चिलगोजे बेचते कश्मीरी लोगों को देखा होगा, अमूमन अक्टूबर से मार्च तक यह लोग देश के विभिन्न भागों में माल बेचने आया करते हैं और गर्मियों में कश्मीर में पर्यटकों का जमावड़ा लगा रहता है तब पर्यटन सीजन में कश्मीर में रोजगार किया करते हैं।

अनवर भी ऐसा एक कश्मीरी विक्रेता है जो घर-घर जाकर सामान बेचा करता है। इस बार अनवर अक्टूबर में तो आया पर फिर दिखा नहीं। गुंजन का शहर राजस्थान का अलवर सिटी है। बरसों से सुधा अनवर से सूखे मेवे, शाल लेती चली आई है। गुंजन अनवर को मामू कहती है, अनवर भी सुधा को बहन मानता और गुंजन को बेटी।  अनवर का भोला अंदाज, गुंजन को हमारी बेटीजानी कहना देख सुधा अनवर को भाई की तरह ही सम्मान देती। वो तो एक-दो जितने महीने इस शहर में रहता, हक से बहन-भांजी से मिला करता।



 

खैर बात अभी की चल रही थी तो इस बार अनवर के बीच में ही चले जाने से सुधा और गुंजन दोनों कल‌ ही बात कर रहीं थीं कि क्या बात हुई कि अनवर भाई/ मामू दोबारा नहीं आए।

 

अचानक फरवरी की बसंती दोपहर में अनवर के आने से उनको राहत आई।

अनवर इस बार खासा सुस्त लग रहा है, पानी पी चुकने के बाद वह बोला, “बहन, अम्मी तो हम को छोड़कर चली गईं, डेढ़ महीना हुए उनका इंतकाल हुए।”

“अनवर भाई, अम्मी का सुनकर तो मुझे बहुत बुरा लग रहा है।” सुधा की आवाज़ में भी उदासी साफ झलक रही थी

गुंजन जो शांता आंटी के साथ अनवर मामू के लिए चाय-नाश्ता ला रही थी, वो भी रो पड़ी।

अनवर एक मस्तमौला इंसान है पर कहते हैं ना कुछ रिश्ते किसी की समझ से बाहर होते हैं।‌ ऐसा ही सुधा, गुंजन और अनवर का रिश्ता है‌। अनवर की अम्मी, उसकी बीबी साएमा और बेटी नगमा और नज़मा को सुधा और गुंजन नाम से ही नहीं जानती है बल्कि उनकी तस्वीरें भी देखी हैं।

नगमा और नज़मा के लिए गुंजन ने अलवर की राजस्थानी गुड़ियां पिछली बार ही भेजी हैं, साएमा और अम्मी के लिए सुधा और उसकी सास चुनरी-बंधेज और लहरिया के सूट और साड़ी भिजवाती रहती हैं। अनवर भी सुधा की सास को बड़े अदब से बहन की सास का आदर देते हुए कश्मीर से उनके लिए तोहफ़ा लाता है। सुधा के पति महेश का भी भरपूर लिहाज़ करता है। कुल मिलाकर बंधन रक्त का न होते हुए भावनाओं का प्रधान लगता है यहां…

 

 

घर के अंदर से आती सुधा की सास दमयंती देवी ने जब अनवर की माॅ॑ की आकस्मिक मृत्यु की खबर सुनी तो उन्हें भी धक्का लगा। अनवर की अम्मी उनसे छह-सात साल बड़ी होंगी और ऐसा अनर्थ!

उन्होंने अनवर के सिर पर अपना हाथ रखकर कहा, “अनवर बेटा बहुत अफसोस हुआ सलमा बहन के बारे में जानकर। बेटा तुम अपने को अकेला ना समझना।”

घर में बैठाकर अनवर को खाना खिलाने के बाद दमयंती देवी ने कहा, ” ऊपर कमरे वाले किराएदार चले गए हैं, उनका ट्रांसफर हो गया है। अब तुम जब भी मैदान आओगे, राजस्थान जितने दिन-महीने रहोगे, तुम हमारे ‌घर में ही रहोगे।”

“माताजी, ऐसे कैसे?” अनवर हड़बड़ा गया

“देखो बेटा, ये कमरा तो मैं अब तुम्हारे लिए ही रखूंगी, अब ये तुम्हारे ऊपर है कि इस माॅ॑ की बात मानोगे कि नहीं।”

अनवर से कुछ कहते नहीं बना, उधर दरवाजे से आते महेश ने भी अनवर का हाथ पकड़कर पहले अम्मी की मृत्यु का अफसोस जताया फिर वहीं रुकने को मना लिया।

इस बार अनवर मार्च में कश्मीर वापस तो जा रहा था पर इस वादे के साथ कि अबकी बार साएमा, नगमा और नज़मा को भी लेकर आएगा।

समय बीता, अनवर और सुधा के परिवार में प्यार, अपनापन बना रहा या यूं कहूं कि प्रगाढ़ता बढ़ती चली गई।

किसी भी बंधन या जज़्बात के लिए एतबार यानी विश्वास का होना जरूरी है। सुधा और अनवय के परिवार में वहीं भरोसा कायम हुआ। वक्त के साथ-साथ वो भावनाएं और गहरी होती गईं और  आज की तारीख में दमयंती देवी, सुधा, महेश और गुंजन, नगमा की शादी में शामिल होने कश्मीर जा रहें हैं। उधर अनवर के घर पर उन सभी के इस्तकबाल( स्वागत) की तैयारियां जोरों-शोरों से चल‌ रही हैं, आखिरकार बुआ जो आ रही हैं, फूफाजी, दादीजी और बहनों के साथ …



 

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धन्यवाद।

-प्रियंका सक्सेना

(मौलिक व‌ स्वरचित‌)

#पराए_रिश्ते_अपना_सा_लगे

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