ढलती साँझ – डॉ .अनुपमा श्रीवास्तवा

आज बाबूजी कुछ ज्यादा ही सुबह उठ गये थे। बाहर वाले कमरे से लगातार खट-पट की आवाज आ रही थी। पता नहीं  इतनी सुबह -सुबह उठकर बाबूजी कमरे में क्या कर रहे हैं,देखती हूं जाकर। सुधा उठकर जाने लगी तो अजय ने टोका -“कहां जा रही हो? सो जाओ आराम से नींद हराम करने की जरूरत नहीं है समझी।”

अरे, देखने तो दीजिये कि बाबूजी क्या कर रहे हैं। कहीं कोई परेशानी तो नहीं उन्हें।

कोई परेशानी नहीं है। बेचैनी है और कुछ नहीं अजय ने  तकिये से  अपना कान  बंद करते हुए कहा-“तुम्हें याद नहीं है क्या आज कौन सी तारीख है।

ओ…  मैडम अब याद करो ना आज तीस तारीख है तीस तारीख ।”.

   अजय आगे बोलता गया, “तीन महीने पूरे हो गए आज। माँ आने वाली हैं हमारे पास और इसी खुशी में बाबूजी को नींद नहीं आ रही है,  अभी से ही इंतजार में नहा धोकर बैठ जाएंगे। पता नहीं सत्तर साल की उम्र में कौन सा उमंग बाकी है मिलने का । इतना तो हमें भी  कभी नहीं हुआ दस सालों में। एक व्यंग्य भरी हंसी अजय के होठों पर खेल गई।

लगभग तीन सालों से लगातार यही नियम चल रहा है। बँटवारे के बाद दोनों भाइयों ने -बाबूजी और माँ के सामने प्रस्ताव रखा था कि एक साथ दोनों के ख़र्चे का बोझ वे नहीं उठा सकते हैं सो

तीन महीने एक भाई के पास कोई एक आदमी ही रहेगा। पहले तो बाबूजी बहुत नाराज हुए  लेकिन माँ के समझाने बुझाने पर मन मसोस कर तैयार हो गए थे । 

दूसरा कोई चारा भी तो नहीं था  जिंदगी में जो कमाया सब बच्चों को पढ़ाने लिखाने में  खर्च हो गया। जो कुछ बचा था उसमें  बाबूजी माँ के नाम से घर बनाना चाहते थे  लेकिन माँ ने ही दोनों बेटों के लिए दो फ्लैट खरीदने के लिए बाबूजी पर दबाव बना दिया। उनका मानना था कि जो भी है वह सब उन्हीं लोगों के लिए ही तो है दोनों दो जगह रहेंगे तो आपसी प्रेम भी रहेगा। रिटायर होने के बाद हम जब चाहेंगे कभी इस बेटे के पास तो कभी उस बेटे के पास रहेंगे।


उन्हें क्या पता था कि दोनों की जिंदगी  रेल की पटरी बन जायेगी और अकेले -अकेले मंजिल तक अपना सफर तय  करेगी । अक्सर छोटा भाई  माँ  को लेकर आता था और एक दिन  बाद  बाबूजी  को लेकर चला जाता था अगले तीन महीने के लिए। उसके बाद तीन महीने तक फोन ही उनके बीच कड़ी बनकर पति- पत्नी को एक साथ जोड़ कर रखती थी।

अजय के टोकने के बावजूद सुधा उठ कर बाबूजी की कमरे की ओर चल पड़ी। जाकर देखा तो वे अपने बेड पर का चादर झाड़ रहे थे सुधा को देखते ही थोड़े  झेप गए बोले-”  ओह बहू , मेरी वजह से तुम्हारी नींद खराब हो गई मुझे माफ करना। असल  में तुम्हारी सास को गंदगी पसंद नहीं है इसलिए झाड़ पोंछ दे रहा हूं आएगी तो परेशान नहीं होगी  तीन महीने इसी में तो रहना  है न उसे।”

छोटे  के  यहां  बड़े सलीके से रखती है अपने कमरे को। अच्छा बेटा अब आ ही गई हो तो थोड़ा फोन लगाकर पूछो तो कि माँ वहां से चली की नहीं। तब तक मैं स्नान कर लेता हूं। इतना कहकर वह बाथरूम की ओर चले गए। बहू ने छोटे भाई को फोन लगाया। उधर से देवरानी ने फोन उठाया। कुशल- क्षेम  पूछने के बाद  बहू ने

पूछा कि माँ जी निकल चुकी हैं क्या?

प्रश्न सुनते ही देवरानी ठहाका लगाकर हंस पड़ी बोली-” दीदी आपको नहीं पता कि सावन चढ़ गया है। सबसे ज्यादा हरियाली माँ जी पर ही छाया है। कल उन्होंने हरी चूडिय़ां हरी बिंदी मंगवाया है मुझसे। सजने में लगी हैं सुबह से। लगता है जैसे पहली बार जा रही हैं बाबूजी से मिलने।  चार दिन से तैयारी कर रही हैं । पता नहीं इस उम्र में कौन सा उमंग बाकी है जो इतनी तैयारी है बाबूजी से मिलने के लिए।

ये (पति) तो तैयार होकर बैठे हैं देखिए कब तक निकलती हैं। चलिये कम से कम दो दिन तो मुझे इस जिम्मेदारी से छुटकारा मिलेगा। तंग आ गई हूँ  तीन महीने से ढोते -ढोते ।

सामने से नहाकर बाबूजी आ रहे थे सो बहू ने स्विच ऑफ कर दिया और बोली -“बाबूजी माँ जी थोड़ी देर में निकल जाएंगी वहां से लगभग दो बजे तक यहां पहुंच जाना चाहिए।”

आप तैयार हो लीजिए मैं आपके लिए चाय बनाती हूँ।

ऑफिस निकलते हुए अजय ने कहा -“सुनो आज ऑफिस में कुछ जरूरी काम है। माँ आएगी तो फोन कर कर के परेशान मत करना। मैं नहीं आ पाऊँगा। “

“माँ आते ही सबसे पहले आप ही को तो ढूँढती हैं।”

अरे वह सब दिखावा है, वो मेरे लिए नहीं उनको बाबूजी से मिलने  की बेचैनी रहती है ।


दोपहर के समय एक ऑटो घर के बाहर आकर रुक गया।आवाज सुनते ही बाबूजी कमरे से लगभग दौड़ कर बाहर आए। एक अलग तरह की चमक थी उनके आंखों में जैसे  किसी चकोर को चांद मिल गया हो। बहू  भी  जल्दी से  बाहर आई। उसने माँ के पांव छुए। माँ ने प्यार से  बहू को ऊपर उठाकर गले से लगा लिया। छोटे भाई ने माँ के सारे सामान को बाबूजी के कमरे में रख दिया।

शाम को अजय ऑफिस से आया। माँ के पैर छुए और अनमने ढंग से खुश होने का दिखावा  करने लगा । बाबूजी आज बहुत खुश थे। सबने मिलकर रात का खाना खाया। सब सोने की तैयारी करने लगे। अजय थकान के कारण पहले ही आकर सो गया। देर रात तक कमरे  से माँ -बाबूजी के बात करने की आवाज आ रही थी ।

अजय खिन्न होकर बोला-” पता नहीं इन लोगों के बुढ़े देह में कितनी  ताकत है।  लगता है तीन महीने नहीं तीन साल पर मिले हों।  इनकी बातें खत्म होने का नाम नहीं ले रही हैं थकते भी नहीं वाह रे रिश्ता!”

इस बार बहू चुप नहीं रह सकी बोली-” शायद आपको पता नहीं है कि देह के भीतर एक बहुत ही कोमल दिल भी है और जब दिल से दिल का रिश्ता जुड़ता है तब वहां देह का कोई अस्तित्व नहीं रह जाता। माँ- बाबूजी के  बीच  अब वही अलौकिक  रिश्ता है।

देखते -देखते  बाबूजी के जाने का समय आ गया। । छोटे भाई ने बाबूजी को  जल्दी तैयार  होने के लिए बोला और बाबूजी का सामान  कमरे से बाहर निकालने के लिए माँ को आवाज लगाने लगा l।बहू ने देखा माँ का चेहरा मुर्झाया हुआ था। वह भरे मन से  बाबूजी की अटैची को बाहर खिसका रही थीं। अजय बाहर ऑटो लेकर आ चुका था। जल्दी करो, जल्दी करो चिल्ला रहा था ।बाबूजी ने एक झलक माँ को देखा और अटैची उठाने लगे। बहू तेजी से  कमरे में आई और बाबूजी के हाथ से अटैची लेते हुए बोली, -“बाबूजी आप कहीं नहीं जा रहे आप दोनों अब हमेशा हमारे साथ रहेंगे ।मुझे आप दोनों चाहिए बस। मैं आप दोनों के बिना नहीं रह सकती।

माँ बहू को कलेजे से लगाते हुए बोली, -“बेटा तूने तो वह खुशी दी है जो “खून के रिश्ते” ने भी नहीं दिया इस ढलती सांझ में आस का दीया जला दिया है तुझे हम दोनों की उमर लगे।”

#दिल_का_रिश्ता

स्वरचित एवं मौलिक

डॉ .अनुपमा श्रीवास्तवा

मुजफ्फरपुर ,बिहार

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