देहदान- बीना अवस्थी

पाराशर जी के घर में मृत्यु सा सन्नाटा पसरा है, कभी कभी मिसेज पाराशर और बेटी प्रार्थना की सिसकियों की आवाज गूँज जाती है। आज राखी का पर्व है परन्तु उनके घर में तो खाना भी नहीं बना।

सबकी ऑखों में पिछली राखी की स्मृतियॉ कौंध रही थीं। विपुल और प्रार्थना की मीठी नोंक झोक की यादें हृदय को और अधिक कष्ट दे रही हैं। सात महीने हो गये विपुल को गये।

बी0टेक0 के बाद चेन्नई में विपुल को नौकरी मिली तो घर में खुशी के साथ उसकी जुदाई के दुख की लहर भी दौड़ गई। परिवार से बिछुड़कर एक अनजान भाषा और परिवेश में सामंजस्य करने की परेशानी विपुल को भी थी लेकिन नौकरी मिलने से वह खुश भी था।

” क्या मम्मी, जब से नियुक्ति पत्र आया है रोनी सूरत बना रखी है, आपको तो खुश होना चाहिये कि मुझे इतनी अच्छी नौकरी मिल गई है।”

” वह तो ठीक है भइया लेकिन आप उतनी दूर चले जाओगे।”

” तो क्या हुआ, आज के संचार युग में जब हर समय बात हो सकती है, वीडियो काल एक दूसरे से आमने सामने बात की जा सकती है तब ये दूरियॉ कोई माने नहीं रखती।”

” एक बात और है भइया।” प्रार्थना ने मॉ की ओर देखकर कहा – ” मम्मी को डर है कि कहीं आप किसी मद्रासन को बहू बनाकर न ले आओ। कश्मीर में नौकरी मिलती तो मम्मी निश्चिन्त रहतीं कि बेटे के कदम बहकें भी तो काश्मीरी सेब जैसी बहू आयेगी।”

” मॉ बनोगी तब मॉ के दिल की पीड़ा समझ पाओगी। अभी तो सब मजाक ही लगता है।” कहते हुये मिसेज मंजू पाराशर की ऑखों के ऑसू गालों पर फिसल आये।

” ओ…. मम्मी…..।” विपुल ने मॉ के गले में बॉहें डाल दीं -” प्रार्थना तो आपकी उदासी को दूर करने के लिये ऐसा कह रही है और आप उसी से नाराज हो रही हैं।”

विपुल चला गया लेकिन रोज वीडियो काल से बात करता और काफी देर तक सबसे बात करता। दूर रहकर भी वह घर का बराबर ख्याल रखता। मम्मी, पापा, प्रार्थना का जन्म दिन हो या मम्मी-पापा की वैवाहिक वर्षगॉठ को विपुल के भेजे उपहार, भोजन पहुँच जाता।


प्रार्थना जरा भी कुछ खाने को कह देती, आधे घंटे के अन्दर घर के बाहर आर्डर आ जाता। वैसे भी वह कई बार फोन करके कह देता – ” मम्मी खाना मत बनाइये, मैं भिजवा रहा हूँ।”

छुट्टी में पहली बार आया तो उसने उपहारों से घर भर दिया। मिस्टर और मिसेज पाराशर घर में बहू के सपने देखने लगीं।

अभी विपुल को गये एक महीना ही हुआ था कि विपुल के रूममेट का फोन आया कि विपुल का एक्सीडेन्ट हो गया है, आप लोग तुरन्त आ जाइये।

पत्नी और बेटी को लेकर पाराशर जी तुरन्त चेन्नई पहुँच गये। बेटे की हालत देखकर उन लोगों का मस्तिष्क सुन्न हो गया। समय बीतने लगा लेकिन विपुल की स्थिति में कोई सुधार न हुआ आखिर डाक्टर ने उसे Brain Dead घोषित कर दिया। अब तो किसी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाये?

तभी विपुल का रूममेट आकर पाराशर जी को अपने साथ ले गया, उसने पाराशर जी के कन्धे पर हाथ रख दिया – ” अंकल, विपुल को हम सबने खो दिया है लेकिन एक बात कहनी थी आपसे, समझ में नहीं आ रहा कि कैसे कहूँ? पता नहीं आप क्या समझे?”

” बोलो बेटा, हमारे खोटे भाग्य को तुम कैसे बदल सकते थे, जब हम कुछ नहीं कर पाये।”

” अंकल ! मुझे गलत मत समझियेगा लेकिन आपको बताना बहुत जरूरी है, समझ लीजिये कि विपुल की अन्तिम इच्छा यही थी।”

तभी विपुल के और भी दोस्त आ गये। उन्होंने बताया कि विपुल सहित उन सबने देहदान कर दिया है। सुनकर अवाक रह गये पाराशर जी। ये जरा जरा से बच्चे जिन्हें कहा जाता है कि आजकल का गैर जिम्मेदार पीढ़ी इस उम्र में इतने आगे का सोंच लेते हैं?

” अंकल, देहदान तो स्वाभाविक या बीमारी से शिथिल अंगों का भी हो सकता है लेकिन हमारा विपुल तो ऊर्जा से भरपूर एक स्वस्थ युवक है, उसके सभी अंग सही काम कर रहे हैं ।” कहकर वह चुप हो गया। पाराशर जी के मुँह से आवाज नहीं निकली।

तभी एक दूसरे लड़के ने कहा – ” अंकल, विपुल तो वापस नहीं आ सकता लेकिन आप चाहें तो विपुल की इच्छा पूरी करके आप कई लोगों को जीवन दे सकते हैं।”


” नहीं, मैं अपने बेटे के शरीर की और दुर्दशा नहीं होने दूँगा। सनातन धर्म के अनुसार यह गलत है, ऐसा करना पाप है। ऐसा करने से उसकी आत्मा भटकती रहेगी।”

” नहीं पापा, भइया की अन्तिम इच्छा यदि न पूरी की गई तो उनकी आत्मा भटकती रहेगी। उन्होंने जिस देह का दान कर दिया है, उस पर आपका अधिकार नहीं है। मुझे गर्व है अपने भाई पर। यहॉ से चलकर मैं भी देह दान कर दूँगी।”

” प्रार्थना, तुम क्या कह रही हो बेटा।”

” सही कह रही हूँ पापा, बचपन से दान की महिमा सुनी है लेकिन अगर आपके बेटे ने स्वेच्छा से कुछ दान किया है तो आप क्यों उसके पुण्य में बाधा डाल रहे हैं?” प्रार्थना ने पाराशर जी का हाथ अपने हाथ में लेकर कहा – ” पापा जो अंग चिता की राख में जलकर भस्म हो जायेंगे, उनसे कई लोगों को जीवन मिल जायेगा, आपका बेटा कई लोगों के भीतर जिन्दा रहेगा।”

पाराशर जी ने अंग दान की अनुमति दे दी। ऑखों में ऑसू और हृदय में हाहाकार लेकर तीनों खाली हाथ लौट आये। कितना खुश था विपुल इस नौकरी से। कितनी आशायें लेकर उन्होंने विपुल को इस महानगर में भेजा था और इस महानगर ने उनके घर की खुशियों को ही लील लिया।

सात महीने हो गये इस घर को वीरान हुये, खुशियॉ रूठ गईं हैं इस घर से। अचानक दरवाजे की घंटी बजी – ” पृथु, देख बेटा कौन है?” लेकिन कोई हलचल न होती देख खुद उठकर दरवाजा खोलने चले गये। दरवाजे पर खड़ी चार कारें देखकर हतप्रभ रह गये। इतने सारे अनजान लोग क्यों आये हैं उनके घर?

” क्या हम लोग अंदर आ सकते हैं?” प्रार्थना से थोड़ी बड़ी एक विवाहित लड़की ने कहा।

” क्षमा कीजियेगा, मैंने आप लोगों को पहचाना नहीं है।”

” हम अंदर आकर सब बताते हैं।” आवाजें सुनकर प्रार्थना और मंजू पाराशर भी आकर  पाराशर जी के पीछे खड़ी हो गईं।

” आइये।” अपने ऑसू छिपाते हुये मंजू और  प्रार्थना ने सबका स्वागत किया।


” भाई साहब ” अधेड़ उम्र के व्यक्ति ने बैठने के बाद पाराशर जी को संबोधित किया – ” मेरा नाम जीवन रंधावा है। ये सब वो बच्चे हैं जिन्हें आपके बेटे के अंगों ने जीवन दान दिया है।” पाराशर जी, मंजू और प्रार्थना के कंठ से सिसकियॉ फूट पड़ीं।

जीवन रंधावा ने पाराशर को गले लगा दिया – ” आज रक्षा बंधन है। आज रक्षा का वचन दिया जाता है लेकिन आपके परिवार ने तो इन बच्चों के जीवन की रक्षा की है। आपका विपुल कहीं नहीं गया है, इन बच्चों के रूप में जीवित है और हमेशा रहेगा क्योंकि इन सबने भी अपने अंगों के दान का संकल्प लिया है।”

कुछ देर सन्नाटा रहा फिर जीवन रंधावा ने ही कहा -” आज ये सब आप तीनों को राखी बॉधने आये हैं।”

वे तीनों एक दूसरे का मुँह देखने लगे। ये कैसा रक्षा बंधन है?  ऐसे रक्षा बंधन की तो किसी ने आज तक कल्पना भी नहीं की होगी – “लेकिन…..।”

प्रार्थना के बोलने  से पहले ही एक लड़की आगे आ गई – ” बहन, आपने ही सबसे पहले अपने भाई की अंतिम इच्छा पूरी करने की दृढ़ता दिखाई थी, वरना किडनी फेल्योर हो जाने के कारण मेरे दो छोटे छोटे बच्चे बिना मॉ के हो जाते।”

” मुझे पहले से पता होता तो मैं कुछ तैयारी कर लेती। आज तो हमारे घर में……।” कहते कहते सकुचा कर चुप हो गईं मंजू पाराशर।

” अगली बार कर लीजियेगा आंटी, अब तो हम सब हर राखी पर आयेंगे।”

फिर सबने मिलकर मिस्टर और मिसेज पाराशर के साथ प्रार्थना को बैठाया। इसके बाद तिलक करके राखी बॉधी, सबके ऑसू रुक नहीं रहे थे। फिर सबने साथ बैठकर खाना खाया। खाने का आर्डर उन लोगों ने पहले से ही दे रखा था।

जब शकुन के रूप में मंजू पाराशर कुछ देने लगीं तो जीवन रंधावा ने रोंक दिया – ” अगली बार खरीदकर रखियेगा, अब ये सब आपके बेटे बेटियॉ हैं, हमेशा आपके पास आयेंगे। अपने आप को अकेला मत समझियेगा।”

” नहीं भाई साहब, राखी छूँछे हाथों नहीं बँधवाई जाती, अपशकुन होता है और फिर आज तो मैंने एक विपुल को खोकर इतने सारे विपुल पाये हैं।” मंजू पाराशर के कहने पर सबने उनसे एक एक रुपया शकुन के रूप में ले लिया।

सबके जाने के बाद मिस्टर और मिसेज पाराशर ने प्रार्थना को गले से लगा लिया – ” पृथु, अगर उस समय तुमने इतनी दृढ़ता न दिखाई होती तो आज इतने जीवनों को बचाने की खुशी हमें कैसे मिलती?”

” मैं भी आज बहुत खुश हूँ कि हमने भइया को खोकर भी इतने भाई बहन पा लिये हैं।”

” सचमुच मंजू, किसने सोंचा होगा कि आज हम ऐसा अनोखा रक्षा बंधन मनायेंगें।”

तीनों के चेहरे आत्म सन्तुष्टि से दमक रहे थे।

बीना शुक्ला अवस्थी, कानपुर

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