देख भाई योगेश,तेरा क्या सोचना है,मुझे नही मालूम,पर मैं अपना विचार तुझे बता देता हूँ।
क्या बात है बड़े भाई?कोई विशेष बात है?
हाँ,मैं जो कहने जा रहा हूँ, उस बात का यही ठीक समय है।योगेश पिताजी की दोनो किडनी खराब हो चुकी हैं।इलाज में भी काफी खर्च हो चुका है,अब डॉक्टर किडनी ट्रांसप्लांट करने को बोल रहे हैं।आजकल किडनी के लिये लाखो रुपये खर्च करने पड़ते हैं।पिताजी की उम्र 75 से ऊपर की हो गयी है, कितना जी पायेंगे, हमारा तो पूरा जीवन पड़ा है। नरेश एक सांस में ही पूरी बात कह गया।
योगेश बोला- भैय्या मैं समझा नही,तो क्या बाबूजी का इलाज ना कराया जाये?
नही-नही मैं ऐसा नही कह रहा,मेरा तो यह कहना है कि इलाज कराते रहेंगे पर किडनी ट्रांसप्लांट न कराये, वह बहुत खर्चीला बैठेगा।
पर यदि हम में से कोई अपनी किडनी दे दे तो खर्च बस ऑपरेशन तक सीमित रह जायेगा।
देख भाई, ऐसी भावुकता में मैं तो आने वाला नही,मैं तो किडनी नही दूंगा,बच्चो का भी देखना है।
बात तो सही है।पर हमें डॉक्टर से तो स्पष्ट करना होगा।
हाँ, क्यो नही,मैं खुद कह दूंगा।
सेठ मुरलीधर जी के दो ही बेटे थे नरेश और योगेश।उनका जो कुछ भी था वह इन दोनों का ही था।उनकी बड़ी इच्छा थी कि एक बेटा उनका व्यापार और इंडस्ट्री संभाले और एक बेटा प्रशासनिक अधिकारी बन जाये।असल मे उनके मन मे एक ग्रंथि थी कि इतने बड़े सेठ होने के बावजूद उन्हें एसडीएम या डीएम के आगे झुकना पड़ता है, इस कारण उनकी महती आकांक्षा थी कि योगेश आईएएस बन जाये।पैसे की कमी तो थी
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नही,सो उन्होंने योगेश को खूब कोचिंग कराई।पर तीन तीन बार कॉम्पिटिशन की परीक्षा देने पर भी योगेश सफल नही हुआ।मुरलीधर जी निराश होते जा रहे थे तो योगेश कुढ़ता जा रहा था,कि उसके पिता क्यूँ उसे नौकरी कराना चाहते हैं?वह तो आराम से पिता के औद्योगिक साम्राज्य पर ऐश करना चाहता था।आखिर झक मार कर मुरलीधर जी ने योगेश को भी व्यापारिक अनुभव लेने के लिये अपने प्रतिष्ठान पर बुलाना शुरू कर दिया।अब दोनों भाई व्यापारिक गुण सीखने के लिये पिता के ऑफिस आने लगे।
दोनो भाई व्यापारिक मामले में भी कभी गंभीर रहे नही,उन्हें लगता इतने कर्मचारी रखे हुए हैं तो काम तो उन्हें करना है,उनका काम तो सुख भोगना है।वैसे भी मुरलीधर जी ने इतना कमा लिया था कि इस जन्म में वे दोनो कुछ भी न करे तो भी उन्हें कम पड़ने वाला नही था।
उचित समय पर दोनो की शादीयां भी कर दी गयीं।नरेश तो एक वर्ष बाद ही पिता भी बन गया।पर अपने व्यापार के प्रति उनमें कोई गंभीरता नही थी।कर्मचारियों के प्रति भी उनका व्यवहार कभी अच्छा नही रहा, जबकि मुरलीधर जी अपने स्टाफ और मजदूरों का पूरा ध्यान रखते।
एक दिन बदहवास हालात में अनुज ऑफिस आया,तब तक सेठ जी नही आये थे,तो उसने नरेश के सामने दुखड़ा रोया कि उसके पिता का एक्सीडेंट हो गया है,वे हॉस्पिटल में एडमिट हैं और इलाज के लिये उसके पास पैसे नही है।उसने पिता के इलाज की गुहार नरेश और योगेश से लगाई।दोनो ने साफ कह दिया दस पांच हजार रुपये एडवांस मिल सकते हैं, बाकी वह जाने।अनुज के गिड़गिड़ाने का भी उन पर कोई असर नही पड़ा।हताश हो वह दूसरी व्यवस्था खोजने वहाँ से चल पड़ा।
ऑफिस के दरवाजे पर ही सेठ मुरलीधर जी टकरा गये।अनुज को बदहवासी की हालत में देख उन्होंने अनुज को रोक कर उसकी परेशानी सुनी और उसको उसकी पूरी सहायता का आश्वासन भी दिया।सेठ मुरलीधर ने अनुज के पिता का इलाज तो कराया ही और दो तीन बार वे अनुज के पिता से मिलने हॉस्पिटल भी गये।
अनुज के पिता स्वस्थ होकर घर वापस आ गये थे।अनुज जानता था कि उसके पिता यदि जीवित हैं तो केवल सेठ जी की सहायता के कारण।अब वह कंपनी में और मेहनत एवं लगन से कार्य करने लगा।सेठ मुरलीधर भी उसे अपना विश्वस्त मानने लगे थे।
इधर कुछ दिनों से सेठ जी की तबियत खराब रहने लगी थी,अब वे ऑफिस भी कम ही आ पा रहे थे।अनुज फाइल आदि पर कोठी से ही हस्ताक्षर करा लाता था।डॉक्टरों ने जांच कर बता दिया कि सेठ जी की दोनो किडनी खराब हो चुकी हैं, एक किडनी ट्रांसप्लांट करनी होगी।
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किडनी ट्रांसप्लांट की सुनकर दोनो बेटे परस्पर बात कर रहे थे कि पिता को कौनसा अधिक जीना है तो क्यों भारी भरकम खर्च किया जाये।इतने में ही डॉक्टर दिखाई दे गये तो नरेश उनसे बात करने उनके पास चला गया।वह डॉक्टर साहब को बताना चाहता था कि वे किडनी ट्रांसप्लांट कराने के इच्छुक नही है,
पर नरेश के बोलने से पहले ही डॉक्टर,नरेश से बोले बधाई मि.नरेश किडनी की व्यवस्था हो गयी है,अब हम दो दिन बाद ही सेठ जी को किडनी ट्रांसप्लांट कर देंगे।भौचक्के से नरेश अचकचा कर बोला डॉक्टर साहब किडनी के लिये हम पैसा खर्च नही कर सकते।डॉक्टर बोले नरेश जी किडनी डोनेट हो रही है, आपको कोई मूल्य नही देना है।नरेश फिर चौंका उसने फिर डॉक्टर से पूछा कि कौन हमारे पिता को किडनी डोनेट कर रहा है।डॉक्टर साहब बोले सॉरी मिस्टर नरेश डोनर ने अपना नाम बताने से मना किया है।
नरेश और योगेश समझ नही पा रहे थे कि क्या उन्हें प्रसन्न होना चाहिये ?एक अपराध भाव उनके हृदय पर था।स्वार्थ के कारण अपने पिता को मरने के लिये छोड़ने की योजना बनाने की सोच ही उनकी अपराध भावना का कारण थी।पर कुछ समय बाद ही उन्होंने अपने अपराध बोध को गर्दन झटक कर अपने से दूर कर लिया।
किडनी ट्रांसप्लांट हो चुकी थी,कुछ दिनों में सेठ मुरलीधर जी कोठी में वापस आकर स्वास्थ्य लाभ करने लगे थे।उधर नरेश और योगेश परेशान थे कि अनुज ऑफिस नही आ रहा था।बीमारी के कारण उसने छुट्टियों का प्रार्थना पत्र भेज दिया था।अनुज पर काम के लिये आश्रित हो जाने के कारण नरेश और योगेश को परेशानी हो रही थी।
एक दिन नरेश सिर में दर्द महसूस होने पर जल्द ही घर पहुंच गया तो वहां सेठ जी के कमरे से उसे उनकी किसी से बातचीत की आवाज सुनाई दे रही थी।उसके पिता कह रहे थे बेटे अनुज तूने मुझ बूढ़े के लिये इतना बड़ा कदम क्यो उठाया,तेरी तो पूरी जिंदगी तेरे सामने थी।अरे बाबूजी जिस व्यक्तिव ने अपने अदने से कर्मचारी के पिता की जान बचाई हो,वह मेरे लिये भगवान है।बाबूजी आप मेरे लिये भगवान ही सिद्ध हुए हैं, आपके लिये बाबूजी किडनी क्या,जान भी न्योछावर।
ओह, तो बाबूजी को किडनी अनुज ने दी है, उस अनुज ने जिसे उन्होंने उसके घायल पिता के इलाज में सहायता देने को ही मना कर दिया था।उन्हें लग रहा था अपने स्वार्थ में अंधे हो वे अनुज से बहुत छोटे हो गये हैं।
बालेश्वर गुप्ता, नोयडा
मौलिक एवम अप्रकाशित
# स्वार्थी संसार