भरोसा – नीलम सौरभ

काम से थके-माँदे लौट कर घर में प्रवेश करते विनोद ने देखा, दूसरे मोहल्ले में रहने वाली उसके दूर रिश्ते की चाची उसके घर से निकल कर बाहर जा रही थीं। दोनों ने ही एक-दूसरे को देखा मगर चाची ने कोई बात नहीं की और झटपट अपने रास्ते हो लीं। घर के भीतर विनोद ने पत्नी सरस्वती को हमेशा की तरह शान्ति से घर के कामों में तल्लीन पाया।

“देवकी चाची आयी थीं अभी? कुछ काम था क्या??…क्या बोल रही थीं???”

आशंकित विनोद ने कई सवाल एक साथ दाग दिये थे।

“कुछ भी ख़ास नहीं जी!…आदत से मजबूर बस ऊल-जलूल ही…अब क्या मैं इतनी कमअकल हूँ जो कुछ भी बोल कर बहका लेंगी वो और आँख मूँद कर भरोसा कर लूँगी मैं उनकी बात का!”

बेटे और ससुर जी के धुले कपड़े मोड़ कर रखती हुई सरस्वती बोली।

“ऊल-जलूल?…मसलन क्या??” विनोद के माथे पर बल पड़ गये।

“कह रही थीं, तुम तो अपने बापू से बढ़कर सेवा करती हो भैया जी की…लेकिन क्या तुमको पता है इन्होंने एक बार तुम्हारे लिए कह दिया था, ‘मरती है तो मर जाये, दूसरी बहू ले आयेंगे’ और ऑपरेशन के लिए रुपये देने से साफ मना कर दिया था।…बाबूजी ऐसा कभी नहीं बोल सकते, है न जी!”

सरस्वती के पूरे विश्वास से बोले गये शब्दों ने अचानक ही विनोद को दूर अतीत की खाई में फेंक दिया। दिल में टीस की एक हिलोर-सी उठी। तब पहली बार पाँव भारी हुए थे सरस्वती के, लेकिन उनकी खुशियों को किसी की नज़र लग गयी थी। अविकसित भ्रूण गर्भ में ही मर गया था और उसके बाद मृत भ्रूण के कारण सरस्वती के गर्भाशय में संक्रमण फैल गया था। उनकी आँखों के उम्मीद का दीपक तो बुझ ही चुका था, ऊपर से सरस्वती भी मौत के कगार पर पहुँच गयी थी। अस्पताल वालों ने सरस्वती की जान खतरे में होने की बात कह कर शीघ्र ऑपरेशन की ज़रूरत बतायी और 25 हजार रुपये तत्काल जमा करने को कह दिया था।


बदहवास सा विनोद तुरन्त अपने पिता के पास पहुँच कर एक तरह से गिड़गिड़ा उठा था।

“बाबूजी! 20 हजार रुपये दे दीजिए, मेरे पास केवल 5 हजार ही हैं…आपकी बहू की जान साँसत में है।”

पिता के पास पर्याप्त धन है, किन्तु वे परले दर्जे के कंजूस हैं, यह जानते हुए भी विनोद को उम्मीद थी कि सरस्वती उन्हें अपना धर्मपिता मानकर जी-जान से सेवा करती है उनकी तो वे मना नहीं कर सकेंगे। लेकिन उन्होंने साफ-साफ मना कर दिया था कि उनके पास इस वक़्त फूटी कौड़ी तक नहीं हैं। और भी बहुत कुछ कहा था जिसे सुनने-समझने का विनोद के पास वक़्त नहीं था। बौराया सा वह वहाँ से निकल गया था फिर उसने जैसे-तैसे करके, अपने दोस्तों के आगे हाथ-पैर जोड़कर ऑपरेशन के लिए रुपये जुटाये थे।

“अजी, कहाँ खो गए हैं?…कुछ बोलिए भी!” सरस्वती उसकी बाँह पकड़ कर बोल रही थी।

मन ही मन कहा विनोद ने, “तुम्हारा यह भोला विश्वास तोड़कर तुम्हें कभी दुःखी नहीं होने दूँगा सरस्वती! तुम्हारे मन की शांति और ख़ुशी ही तो हमारे जीवन की पूँजी है। वे अंधियारे दिन तो बीत गये, अब गड़े मुर्दे उखाड़ कर क्या मिलना है…तुम्हारा भरोसा हमेशा कायम रहे।”

प्रत्यक्षतः उसे गले लगाकर कहा, “ह..हाँ सरस्वती, बाबूजी ऐसा बोल तो क्या सोच भी नहीं सकते…मुझसे ज्यादा तो अब तुम जानती हो उन्हें!”

____________________________________________

(स्वरचित, मौलिक)

नीलम सौरभ

रायपुर, छत्तीसगढ़

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!