बड़ी बहू, बड़े भाग – नीरजा कृष्णा

आज बहुत दिनों के बाद उनको खूब खिलखिलाकर हँसते देख कर दिल बाग बाग हो गया। वो अपनी आत्मीया मित्र  से फ़ोन पर बहुत मगन होकर बात कर रही थीं।  हमारी ये  दीदी पीहर में भी सबसे बड़ी हैं और अपनी ससुराल में भी।

 

उम्र में तो बड़ी थी हीं, हर चीज़ में भी वो बड़ी रही। पद रुतबे में, हैसियत में तो वो बड़ी थी ही, बहुत बड़े दिल की भी मालकिन थी, इसी गुण के कारण उनकी डुगडुगी बजी रहती थी। पर अचानक समय पलटा और एक 

दुर्घटना में उनके पति उन्हें छोड़ गए, पर बड़ी हिम्मत से उन्होनें सब कुछ सम्हाला पर अंदर से कमजोर होती गई।

 

आज अपनी सखी से बात करते हुए बोली,” अरे शशि! सब कहते थे कि मैं बहुत अच्छी स्वभाव की हूँ,और इसीलिए सबकी प्रिय पात्र हूँ पर ईश्वर को तो मैं नहीं पसंद थी, वर्ना अमर जी के स्थान पर मुझे बुलाया जाता। खैर! मेरे जीवन में सब बड़ी बड़ी बातें होती आईं हैं, छोटी मोटी बातों का तो कभी कोई स्थान ही नहीं था।”

 

शशि का माथा ठनका, कुछ आशंकित होकर पूछा,”यार मीनू! आज क्या बात है? तू इतने डायलॉग क्यों मार रही है?”


 

“आज बोलने दे ना! अम्माँ बराबर कहती थी कि’ बड़ी बहू, बड़े भाग’ शायद सच ही तो कहती थी। सुख भी बड़े देखे और दुख भी बड़े ही देखे। तुझे याद होगा, सबको बुखार खाँसी होता रहता था पर मुझे कभी नहीं। इन छोटी मोटी बीमारियों का मुझसे क्या लेना देना? “

 

“देख मीनू! ज्यादा पहेलियाँ ना बुझा! साफ़ बात बोल !”

 

” साफ़ क्या बोलूँ? बड़ी बीमारी ने मुझे इज़्जत दी है, मुझे ब्लड कैंसर ने प्यार दिया है।”

 

कह कर वो दिल खोल कर हँस दी।

 

स्वरचित मौलिक

नीरजा कृष्णा

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