बड़े अच्छे लगते हैं – जयसिंह भारद्वाज

तुम कहती हो कि कुछ तुम पर लिखूँ। कितना तो लिखा है तुम पर किन्तु तुम हो कि अघाती ही नहीं अपनी कहानी पढ़ पढ़ कर… ऐ सुनो! सच्ची बात बोलूँ, मन तो मेरा भी नहीं भरता है तुम पर लिख लिख कर.. कसम से!

याद करता हूँ जब हम पहली बार मिले थे फेसबुक के तुम्हारे लगभग तीन सौ सदस्यों वाले  एक नन्हे से ग्रुप में। मिलाया किसने था.. फेसबुक की टेक्निकल टीम ने। फेसबुक ने जासूसी करके यह पता लगा लिया कि मैं अधिकतर किन विषयों को खोजता हूँ और किन विषयों के पन्नों पर अधिक समय बिताता हूँ। बस फिर क्या था.. मेरे सामने एक दिन एक ग्रुप आ गया यह लिख कर..Jai, we think you will like this also.

अब क्या कहा जाए जुकरबर्ग को। दिखा दिया रास्ता तो पहुँच गए हम तुम्हारे दीवानेखास में और पढ़ने लगे तुम्हारी रचनाएँ। कुछ की प्रशंसा भी की अपने अंदाज़ में। अंदाज़.. माने पोस्ट की पंक्तियों पर आधारित अपनी कोई टू लाइनर लिखना। यह तुम्हें अच्छा लगने लगा था क्योंकि तुम्हारी प्रतिक्रिया अच्छी अच्छी आने लगी थीं।

क्या कहा? मैं क्या सोचता था तुम्हारे बारे में?

क्या सोचूँगा भला! कविताएं पढ़ कर तो यही लगता कि कोई 20-22 साल की लड़की प्रेम में बुरी तरह विफल हो कर आने हृदयोद्गार यहाँ पटल पर व्यक्त कर रही है। सच्ची में .. यही सोचा था मैंने और यही सोच कर मैं टू लाइनर भी लिखता था।

क्या प्रेम जैसा कुछ? मुझको तुमसे?

ओए, छड यार! हम उस कटेगरी के बन्दे नहीं हैं जो ऑनलाइन कन्यायों से इश्क फरमाए.. जब युवावस्था में कोई गुल नहीं खिलाया तो अट्ठावन का होने पर अपनी भद्द पिटवाऊंगा.. हांय!

तभी तुम्हारे ग्रुप में कुछ सदस्य अपनी व्यक्तिगत समस्याएँ रख कर सुझाव व समाधान मांगने लगे। सभी के साथ मैं भी अपनी बुद्धि की ऊँचाई पे जाकर समाधान तोड़कर लाता और उनके सामने ढेर लगा देता। लोगों को पसंद आने लगे। तुम्हें नहीं पता किन्तु मैसेंजर के माध्यम से अभी भी ऐसे बहुत से लड़के/लड़कियों से जुड़ा हूँ जो जबतब अपनी समस्या या उसके समाधान की प्रगति बताते रहते हैं।



अरे यार! फिर लोचा हो गया न! लिखना था तुम्हारे और मेरे बारे में और लिखने लगा प्रेम के मारों के विषय में…

हाँ तो हम कहाँ थे… याद आया तुम्हारे ग्रुप में ही था। एक रात अचानक तुम्हारा मेसेज आया कि तुम मुझसे बात करना चाहती हैं। देखिये, कहीं न कहीं यह डाउट भी था मुझको कि तुम एक लड़का हो और लड़की की आईडी से इमोशन्स बिखेर रहे हो।

हम भी कमर कस कर तैयार हो गए बात करने के लिए। फिर कुछ ही  सन्देशों के बाद अचानक से तुम्हारा सन्देश आया – काल करूँ आपको?

मैं तो चौंक गया, लगा कि ‘जय! तू तो गयो काम से’

फिर सोचा कि कौन सी वीडियो कॉल कर ने को कह रही है.. चलो हां कह देते हैं। स्वीकृति मिलते ही तुम्हारी कॉल आयी।

“हेलो, प्रणाम आदरणीय।’ जीवन में पहलीबार वर्चुअल दुनिया की किसी एक्चुअल लड़की की आवाज सुनी थी।

काँपते कण्ठ से निकला था मेरे..”जी महोदया.. राम राम। कैसी हैं आप”

… और फिर यह कॉल कई बार कटने जुड़ने के बाद लगभग 200 मिनटों तक चली उस रात..

इस लम्बी वार्ता के परिणाम स्वरूप एक कहानी ने जन्म लिया जो आगे चलकर “बालिका बधू” के नाम से प्रसिद्ध हुई।

फिर तो हम अक्सर रात ग्यारह बजे से दो बजे के मध्य बतियाने लगे थे। है न!

एक रात बारिश का एक रोचक अनुभव सुनाया था तुमने। उसी पर आधारित कहानी “भीग जाइए न प्लीज” लिख दिया था। लोगों ने उसे भी खूब सराहा था।

ऐसी ही एक रात जब जब तुमने अपने अंधेरे जीवन की कुछ और परतें खोलीं थें तब कहानी “स्वाहा” का सृजन हुआ। विस्तार देने के कारण इसके दो भाग करने पड़े थे।

स्वाहा पढ़ कर तुम्हारा मैसेज आया था – वाह साहब आसमान छू लिया

लेकिन कहानी का अंत बस कोरी कल्पना है हमारे जीवन में ये मोड़ कभी नहीं आएगा

लेकिन पढ़ कर बहुत बहुत अच्छा लगा आपकी लेखनी के कायल है हम

तुम भले ही ऐसा कहती हो लेकिन मुझे विश्वास है कि माँ सरस्वती गलत नहीं होंगी और तुम्हारे जीवन में “स्वाहा” के समापन अंक के क्लाइमेक्स की ही तरह होगा। निश्चित होगा।

यह सभी कहानियाँ पाठकों द्वारा खूब सराही गयी थीं। यह सब तुमने चुपके चुपके बिना कोई टिप्पणी या प्रतिक्रिया दिए देखा है। है न! तुम्हारी कहानी तुम्हारी ही प्रतिक्रिया से वंचित हैं अभी तक बेचारी!

तुम प्रायः अपने सम्बोधनों में मुझको आदरणीय, या जय जी का सम्बोधन देती थी। मेरी इच्छा रही कि तुम मुझे भइया सम्बोधन से सम्बोधित करो। एक दो बार मैंने पटल पर तुम्हें ‘दी’ सम्बोधन दिया भी किन्तु तुमने न केवल उसे इगनोर किया बल्कि मुझे कभी भइया नहीं लिखा न कहा। एक बार तुमने मुझे “साहब” नाम से सम्बोधित किया था तो मैंने लिखा था – साहब?? मित्र, सखा, मितवा, दोस्त, जय जी, जय भाई, या भइया जैसे सम्बोधन भी तो हैं हमारे लिए .. फिर साहब क्यों महोदया?

तुम्हारी रिप्लाई आयी – होंगे ये सम्बोधन किसी और के लिए, मैं तो आपको “साहब”, “आदरणीय” अथवा “जय जी” जैसे सम्बोधनों से पुकरूँगी। मैं हमारे इस रिश्ते को कोई नाम नहीं दूँगी। मेरे माता, पिता, भाई, बहन, पति आदि सभी हैं। मैं कोई रिश्ता क्यों खोजूँ?

जाड़ों की रातों में अक्सर तुम  शाल लपेट कर छत में जीने के दरवाजे की टेक लगाकर बात करती थीं। इस पर मैने कुछ पंक्तियाँ लिखी थीं जिन्हें बहुत से ग्रुपों में साझा किया था..

जनवरी की कड़ाके की ठिठुरन..

निस्तब्ध सहमी सी चाँदनी..

उबासी लेता हुआ चाँद..

रात्रि के साढ़े दस बजे..



मैरून शाल में लिपटी

वह..(वो ही हो भी सकती है)

एक हाथ में फोन

जो कान को चूम रहा था

दूसरे हाथ से..

छत में बने स्टोर रूम के

अधखुले दरवाजे को पकड़े हुए

कह रही थी किसी से फुसफुसाकर..

”बहुत तेज धूप है ‘जय’ अभी, गर्मी लग रही है”

क्या यह पराकाष्ठा है प्रेम की…

या दीवानेपन की हद!

एक रात तुमने बताया था कि आज भी तुम्हारे पति फिर ‘वहीं’ गए हैं। ऐसा तो महीने की 25 रातों में होता ही था। उस रात मेरे पूछने पर तुमने कहा था कि अभी तक भोजन नहीं किया है जबकि मध्य रात्रि व्यतीत हो चुकी थी। तब मेरे बहुत दबाव डालने ओर तुम पूड़ियाँ तलने चली गईं थीं । इस पर मैंने कुछ लिखा था और इसे भी गीत ग़ज़लों के ग्रुप्स में शेयर किया था..

देर रात !

वह तलती रही पूरियाँ

साथ में तलते जा रहे थे

कुछ अधूरे सपने…

कुछ अतृप्त अभिलाषाएं..

कुछ दैहिक जिज्ञासाएं..

तभी आँसुओं की दो बूँदें गिरीं..

तड़क कर छलक गया गर्म घी!

जल गई कलाई

‘जय’ छूट गयी कलछी।

उसने प्रसन्न मन से

सजाई प्लेट और चखे तले हुए

सपने, अभिलाषाएँ और जिज्ञासाएं

फिर पूरियाँ समेटी और

दे दीं अपनी प्यारी सखी

गौरी गैय्या को।

बरामदे से निहारती रही चाँद को

अनन्तकाल तक अपनी निष्तेज आँखों से।

एक बात बताऊँ, इधर आओ, हाँ… मैं अक्सर तुम्हारे दूर चले जाने के बिषय में सोचता हूँ तो मन न जाने क्यों उद्विग्न हो जाता है। तब कलम कई बार बहुत कुछ लिख जाती है चुपके से और बन जाती बहुत से ग्रुप्स का हिस्सा…

(1)

हाँ! वे दिन भी थे जब हम तुम्हें

कॉल करने की सोचते थे,

तुम फोन करके पूछ लेतीं,

‘कहो, क्या कहने वाले हो ‘जय’

तब मन के अनजाने सेतु पर

आवागमन चालू था मगर

सम्बन्धों पर हुए हिमपात से

अब सब कुछ गया है ठहर

(2)

मुझे

अपनी अंतरात्मा के

स्वर को यहाँ सबके सामने

लिखने की

नहीं है आवश्यकता ‘जय’….

किन्तु विवशता अवश्य है

आपसे से संवाद

बनाये रखने के लिए

मेरी यह…

(बस! यूँ ही..)

(3)

आकर्षण तो किसी भी से हो सकता है

और जब आप उस इंसान से दूर हो जाते हैं

या कुछ समय बात नहीं करते तो अपने आप खत्म हो जाता है

लेकिन यदि निश्छल और

अहैतुकी स्नेहिल सम्बन्ध हों

तो आप उस व्यक्ति से चाहे कितने भी दूर रहें

या फिर वर्षों बात ना की हो

लेकिन जब भी किसी से बात करते हैं

उसकी याद तो अनायास आ ही जाती है!!

हाँ.. मैं आपको भूला नहीं हूँ..



बातें नहीं हो रही तो क्या हुआ,

सन्देशों का आदान-प्रदान नहीं हो रहा तो क्या हुआ,

मेरी प्रविष्टियों को अनदेखा किया जा रहा हो तो भी क्या हुआ..

मेरे मनः पटल पर अंकित एक अविष्मरणीय छवि हो तुम..

सच्ची में,

कसम से ‘जय’

आप सदैव प्रसन्न रहें बस यही मेरी कामना है

(4)

मुझे पता है कि

तुम दूर हो मुझसे सैकड़ों मील

पर हृदय है कि कहता

तुम हो यहीं कहीं तो आसपास

तुम्हारी बातों की महक

मैं महसूस करता हूँ अपने आसपास

तुम्हारे स्वर की खनक

मैं सुनता रहता हूँ निरन्तर दूर – पास

कभी सुनता हूँ ‘जय’

तुम्हारा श्वसनकंप या तुम्हारी पदचाप

और कभी कभी तो

वह सुनहरी ध्वनि… ‘कैसे हैं आप?’

न जाने कौन सा सूत्र

जो सिद्ध नही कर सका तुम्हारी गणित का

मैं अपात्र!

जिसने तोड़ दिया तुम्हारा अखण्ड विश्वास!



अंतिम बार तुमसे दूर होने का जब विचार आया था तब….

तुम्हारा मिलना..

हमसे बात करना..

मुझको लगती रही हो मृगतृष्णा की तरह।

मैंने जितना पास आना चाहा,

तुम उतनी ही दूर जाती रहीं

बिल्कुल धरा और क्षितिज की तरह।

फोन पर उभरता तुम्हारा स्वर

हर बार मुझे झंकृत कर जाता

कभी बहन लगतीं तो कभी माँ

और कभी कभी तो इससे भी परे

प्रतीत होती हो किसी देवी की तरह।

मुझे पता है कि देवियाँ …

जनसामान्य की पहुँच से परे हैं,

फिर भी आस्था एवं विश्वास

तुम संग जुड़ी हैं प्रार्थना की तरह।

अभिलाषाएं कब किसी की हुई हैं पूरी

मेरी इच्छाएं भी हैं तृषित और अधूरी

तुम्हारा सामीप्य सम्भव नहीं है

कदाचित इस जनम में ‘जय’

अब मर भी जाऊँ तो जन्म लूँ तुम्हारे बेटे की तरह!

और क्या लिखूँ तुम्हारे और मेरे बारे में। तुम्हें अधिकार है कि तुम अपने दर्द मुझे कभी भी साझा कर सकती हो।

एक बात क्लियर कर देना आवश्यक है कि हम रातों में लम्बी लम्बी बातें कैसे कर लेते हैं। तुमने ही बताया था कि तुम अलग कक्ष में एकाकी ही सोती हो बच्चों व रिश्तेदारों के आने के अलावा और मैने अमृता को बता रखा है कि मैंने एक वर्चुअल बहन बनाई है उसी से बात करता हूँ। हम दोनों के आपसी विश्वास ने इसपर कभी चर्चा करने का अवसर ही नहीं दिया।

★समाप्त★

मूल रचनाकार:©जयसिंह भारद्वाज, फतेहपुर (उ.प्र.)

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