जैसे ही उन्होंने अपना परिचय देना शुरू किया, क्लास में सिटीओं की आवाज ने, उनकी आवाज को कहीं दबा ही दिया।
और इन आवाजों में, ज्यादातर आवाजें लड़कियों की थी!
तोह यह था, प्रोफेसर साहब का हमारे साथ पहले लेक्चर का दिन।
आगे के दिनों में, उनका रोबिला व्यक्तित्व, उनकी विषय पर पकड़, उनका समझाने का तरीका, हमारे सारे संशय मिटा चूका था उनको लेकर, जोह हमें थे।
अपितु उनकी क्लास ही शायद ऐसी होने लगी, जहाँ स्टूडेंट्स की उपस्थिती सबसे ज्यादा होती।
हम सब स्टूडेंट्स, उनसे उनके विषय के अलावा भी और विषयों पर विचार साँझा करने लगे।
जब भी कहीं अटक जाते, तोह लगता सर हैं ना, बताने के लिए।
और वोह भी शायद, अपने सहकर्मियों से ज्यादा हम लोगों से घुलने, मिलनें लगे थे।
अब लेक्चर उतने मुश्किल ना होते थे,
बल्कि, हम सब तोह इन्तजार में रहते सर के लेक्चर के लिए,
खास करके हम लड़कियां।
आखिर, सर थे ही इतने आकर्षक,
उसके बाद उनका हर विषय पर इतना गहरा ज्ञान, और समझाने का तरीका!
जब से वोह आये थे लड़के थोड़ा ईर्ष्या का भाव महसूस करने लगे थे।
आप समझ ही सकते हैं क्यों?
हाहा
और हम लड़कियों को तोह जानना था उनके बारे में सब कुछ, वोह विवाहित है या अविवाहित?
वोह कहां से हैं?
अगर अविवाहित हैं तोह कैसी लड़की ढूंढ़ रहे है?
उनको क्या पसंद है? और ना जाने क्या क्या….
इसीलिए, उनके लेक्चर के दौरान भी हमारी कोशिश रहती, सर से किताबों के बाहर की बातें भी करना, लेकिन वोह भी हमें उसी समझदारी से वापिस उसी किताबी दुनियां में वापिस ले आते।
कुछ दिनों की मेहनत से पता लगा वोह यहां गेस्ट लेक्चरार हैं, और वैसे वोह किसी हॉस्पिटल में अपनी प्रैक्टिस भी करते हैं, कॉलेज के पास ही उनका फ्लैट है, जहाँ वोह अपनी माँ के साथ रहते हैं।
‘अविवाहित हैं ‘
हाहा, अब होड़ की बारि हम लड़कियों की थी।
ऐसे ही कॉलेज में दिन निकल रहे थे,
अब पढ़ाई क्लास रूम से ज्यादा, अस्पताल के वार्ड में मरीजों को जाँचते हुए,
उनकी बीमारियों, को समझते हुए चल रही थी।
यहां हमें मरीज को सिर्फ शारीरिक रूप से नहीं, मानसिक रूप से भी तैयार करना होता था इलाज के लिए।
इन सब चीजों को हम हमारे प्रोफसरों से बखूबी सीख रहे थे।
हमारी अस्पताल में, कभी रात की, कभी दिन की ड्यूटी होती,
समय बीतने के साथ, साथ समझ आने लगा था डॉक्टरी के पेशे में कोई समय सीमा नही हैं।
इधर पता नहीं क्यों, लेकिन जब भी,
मैं किसी और को नये सर के साथ देखती, मुझे गुस्सा आता।
जानती थी यह गल्त है।
पर फिर भी कुछ बातें आपके हाथ में नही होता रोकना।
मैं उनके प्रति अपने बढ़ते झुकाव को नही रोक पा रही थी।
फिर खुद को समझाती,
उन पर तोह कॉलेज की हर लड़की आसक्त है, यह कुछ समय का फितूर है,जल्दी ही उत्तर जाएगा पड़ने पर ध्यान लगा तपु।
उनके सामने अपनी नाक कटवाएगी क्या?
और फिर मैं सब भूल के पढ़ाई में लग जाती।
लेकिन यह जनाब मेरे ख्यालों से कहां जाते थे?
और फिर मुझे रह रह कर उर्मि का ध्यान आता, उसका हाल भी तोह कुछ ऐसा ही होता होगा।
मैं उनके बात करने के बहाने ढूंढती,
बिना सर पैर के सवाल पूछती,
कईं बार तोह उनके साथ पूरी क्लास मुझ पर हँस रही होती थी।
वोह मेरी आँखों में स्वालिआ नजरों से देखते,
जैसे पूछ रहे हों,
“यह क्या कर रही हो, तापसी?”
पर मैं भी तोह बेबस सी होते जा रही थी, इस दिल के हाथों।
पढ़ाई का अंतिम साल चल रहा था, और मैं थी कि ध्यान ही नई दे पा रही थी।
अपने दोस्तों से भी नजरें छुपाती, कि कहीं किसी को मेरे पागलपन की खबर ना लग जाये।
इधर होली पर घर जा रही थी, लेकिन इस बार जाने का वोह जोश, खुशी कहीं थी ही नहीं,
ऐसा लग रहा था मानो, पीछे कोई अपना छूठ रहा है।
हम स्टूडेंट्स ने जाने से पहले सर की क्लास में छोटा सा होली का जश्न मनाया।
सब एक दूसरे पर गुलाल लगा रहे थे, एक दूसरे का मुँह मिठा करा रहे थे,
और मेरी बेचैनी बढ़ती ही जा रही थी, जैसे ही कोई लड़की उनको ग़ुलाल लगाने के लिए आगे बढ़ती, मेरा दिल जैसे टुकड़े टुकड़े हुआ जाता ।
तभी सर के बोल मेरे कानों में पड़े, “मिस तापसी, आप होली नही खेलेंगी?”
और उसी के साथ, उन्होंने मेरे दोनों गालों पर गुलाल लगा दिया।
उन्होंने, मेरी तरफ गुलाल बढ़ाया,
मैं सकपका के पीछे हट गई।
वोह मुझे फिर स्वालिया नजरों से देखने लगे जैसे कह रहे हों ,
‘तापसी यह क्या है‘
क्लास में सब हमें देखने लगे, मैंने जल्दी से उनसे थोड़ा गुलाल लेकर उनके चेहरे पर लगाया और फिर पीछे हो गई।
मैंने हॉस्टल पहुँच कर जल्दी जल्दी सामान पैक किया,
बस लग रहा था किसी का सामना ना करना पड़े।
कैंपस से निकल ही रही थी, कि तभी मैंने देखा सर सामने से आ रहे हैं,
इससे पहले की मैं रास्ता बदलती सर मेरे सामने थे,
वह बोले “तापसी आप परेशान नजर आ रही हैं, आप कुछ परेशानी है तोह साँझा कर सकती हैं”।
मैं अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रख कर बड़ी मुश्किल से बस बोल पाई
“नही सर ऐसा कुछ नही है, आपको होली कि बहुत सारी शुभकामनायें”
वह बोले “आपको भी होली की बहुत शुभकामनायें, आप अपने घर जा रहे हैं ना?”
मैंने हाँ में सर हिलाया।
वोह बोले,
“ठीक है आप छुट्टियों कों एन्जॉय करना, आप छुट्टियों से आओ फिर बात करते हैं “।
मैंने उनकी तरफ देखा,
हाँ में सर हिलाकर वहाँ से बस मैं जल्दी से निकल गई ।
रास्ते भर सिर भारी सा रहा,
आँखों के सामने सर का चेहरा ही घूम रहा था बस।
उनकी वोह चिरपरिचित सी मुस्कान, वोह गहरी काली आँखे, चश्मे के पीछे से भी जिनमें शरारत के भाव छिप नही पाते थे।
कद काठी तोह सब सामान्य था पर मुझे उनका सब पसंद था|
“बस वोह मेरे हैं” यह भाव प्रबल होता जा रहा था मन में।
सामने वाले के मन में क्या है, उसका मुझे तनिक भी आभास नहीं था।
लेकिन कहते हैं ना ‘प्यार में बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है’
तोह मेरी बुद्धि ने भी काम करना बंद कर दिया था।
भईया स्टेशन पर लेने आये थे, घर पहुंची तोह पापा भी आ चुके थे ।
सबसे मिल कर मन खुश हो गया, घर वालों के बीच दिल की टीस कुछ कम होने लगी थी।
पापा बोले” तपु आ गई है अब आएगा होली में मजा”।
भईया होली के लिए गुलाल, पिचकारी सब लाये हुए थे,
मम्मी नें गुजिया, मठरी, और ना जाने क्या क्या तैयार कर रखा था।
थोड़ा फ्रेश होकर मैं पहुँच गई उर्मि के घर,
आंटी जी भी मुझे देख कर बहुत खुश हुए और यहां भी पेट भर के, ना जाने क्या क्या खाया।
आंटी जी, मान ही नहीं रहे थे।
फिर मैं और उर्मि उसके कमरे में आ गए, बहुत सी बातें करने को थी,
ना चाहते हुए भी मैंने, उर्मि को नये सर के बारे में सब एक सांस में उगल दिया।
वोह बोली,
” ओहो, तोह तपु को प्यार हो गया है”
मैंने भी उर्मि से उसकी आँखों में झाँक कर पूछा,
“क्यों तुम्हे अभी तक किसी से नहीं हुआ?”
उर्मि ने बात को काटते हुए कहा
“अब छोड़ यह सब, कल का क्या प्रोग्राम है”?
पता नहीं क्यों, उर्मि अपने दिल के जज़्बात मुझसे साँझा नहीं कर पा रही थी।
मन बेचैन था, जानने के लिए की अनिरुद्ध भईया, उर्मि के बीच कुछ बात आगे बड़ी?
क्या दोनों मैं से, किसी ने कुछ पहल की?
या सब मेरी आँखों का भ्रम ही था?
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लेखिका : अंबिका सहगल