उर्मि एक दम से खड़े हो जाती है, चलने के लिए।
पुजा के पंडाल की सजावट देखते ही बन रही थी,
अपने ही मोहल्ले की पहचान नहीं आ पा रही थी,
सड़क के दोनों और चुन्ना बिछा हुआ था,
झालर लगे हुए हैं पुरे पंडाल में,
काफी रोशनी के इंतजाम किए गए हैं, लाल कारपेट बिछा हुआ है पूरे मोहल्ले में, और माता रानी जहाँ विराजित हैं, उनके दरबार की सजावट के लिए तोह शब्द ही नहीं।
“यह सब तैयारी, हमारे मोहल्ले के बच्चों ने की है “
पापा ने जब बताया मुझे तोह बड़ी हैरानी हुई।
अब तक अजित अंकल, रानि आंटी भी पंडाल में पहुँच गए थे।
वोह मुझे और उर्मि को देख कर बड़े हैरान हुए आंटी मम्मी से बोली “बड़ी हो गई हैं दोनों, कितनी प्यारी लग रही हैं “
आंटी की नजरों में, मुझे उस दिन पहली बार अनिरुद्ध भईया, उर्मि को लेकर भविष्य की उम्मीद दिखी।
सब अपने अपने संगी, साथियों के साथ हो लिए,
और मैं और उर्मि अपने दोस्तों के बीच आ गए ।
सब माता रानी के रंग में रम चूके थे, एक से एक भेंटो का दौर चल रहा था।
बीच बीच में भईया और उनके दोस्त आ जाते,
और हम सब साथ में,झूमने नाचने लगते मईया के रंगों में रम कर।
उस दिन मेरा मन भी बस माता रानी से उर्मि, अनिरुद्ध भइया का जीवन भर का साथ मांग रहा था।
उन दोनों के बीच की वोह झिझक, एक दूसरे के प्रति वोह आकर्षण, एक दूसरे को देखने की चाहत,
मुझे रह रह कर माता रानी के नत मस्तक कर देती, इस उम्मीद को हकीकत का रूप देने की प्रार्थना के साथ।
तारा रानी की कथा शुरू हो चुकी थी,
अब सब, कहीं ना कहीं अपनी नींद पर अपना नियंत्रण खोते जा रहे थे।
ऐसे में, भईया ने उर्मि और मुझे उठने का इशारा किया, पर मैं इतनी नींद में थी कि मेरी हिम्मत पस्त हो चुकी थी।
उर्मि भईया के साथ चली गई,
कुछ देर में उर्मि और भईया सबके लिए चाय बिस्कुट लेकर आ गए, उस समय सबके लिए इससे बड़ी इच्छापूर्ति नहीं हो सकती थी।
उर्मि और भईया बहुत ही तालमेल के साथ सबको चाय परोसने लगे,
मेरी भी अब तक नींद उड़ चुकी थी,और मैं भी अब उनकी मदद करने लगी चाय देने मैं।
सुबह मातारानी के जगराते के सम्पूर्ण होने के साथ ही, सब प्रसाद लेकर अपने अपने घर कों विदा हों गए।
इतने दिन कैसे निकल गए पता ही नही लगा।
कभी गोलगप्पे, पापड़ी खाने निकल गए, तोह कभी रात रात भर बातें हो रही हैं, पापा और मैंने घंटो बैठ कर ना जाने कहां कहां की बाते कर ली।
और इन सब में मेरा वापिस जाने का दिन भी आ गया,
मैंने भरी आँखों से सबसे विदा ली।
पढ़ाई का चौथा साल शुरू हो चूका था, और उसके साथ ही काम बहुत बढ़ गया था।
बस फ़ोन पर ही सबका हाल चाल पता लगता।
पापा आज कल काफी खुश थे, भईया धीरे धीरे उनका वकालत का सब काम जो सँभालते जा रहे थे ।
मम्मी भी खुश थे, अब पापा का उनको ज्यादातर साथ मिल रहा था।
उधर उर्मि का भी बी. Ed में दाखिला हो गया था।
आप लोग जानना चाह रहे होंगे,
‘भईया, उर्मि के बारे में‘
मैं भी जानने को बहुत अधीर थी,
लेकिन मेरी कभी हिम्मत ही नहीं हुई की, मैं सामने से यह प्रश्न उनसे पूछूं की वोह एक दूसरे के लिए क्या भावना रखते हैं?
तोह आप लोगो की तरह मुझे भी इस का उत्तर भविष्य में ही मिलने वाला था।
‘तोह आप भी धैर्य रखें‘
इधर कॉलेज में नये प्रोफेसर ने कॉलेज ज्वाइन किया था।
हमारा उनके साथ पहला लेक्चर होने वाला था, और हम सब लोग उम्मीद लगा के बैठे थे कि कोई अधेड़ उमर, सिर से नदारद बालों वाला,इंसान बस क्लास में प्रवेश करने वाला होगा, और अपने लेक्चर से हमें पकायेगा….
हाहा
माफ कीजिएगा, लेकिन मुझे लगता है आपमें से भी बहुतो ने अपने शिक्षक, प्रोफेसर की ऐसी तारीफ कभी तोह की होगी,
तोह कृप्या इसे अन्यथा ना लें।
खैर कहानी में आगे बढ़ते हैं।
थोड़ी देर में एक सताइस, अठाईस साल के लड़के ने क्लास में प्रवेश किया,
हम में से किसी ने खड़ा होना भी जरुरी नई समझा, क्योंकि हमें लगा ही नही था, कोई इस उमर में भी प्रोफेसर हो सकता है।
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लेखिका : अंबिका सहगल