मैं, तापसी माथुर उर्फ पापा की तपु,
कितनी चिढ़ थी मुझे तब इस नाम से,
और पापा थे की ऑफिस से आते ही शुरू हो जाते,
“तपु कहाँ है?
तपु ने आज स्कूल में क्या किया?”
और ना जाने क्या क्या।
और मैं बस इंतजार करती, पापा कब मुझे मेरे सही नाम से पुकारेंगे, और तब मैं और पापा ढेर सारी बाते करेंगे।
और आज लगता है,
पापा बस एक बार अपनी तपु को फिर से, ‘तपु बुलाओ ना, बस एक बार……‘
तभी घड़ी के अलार्म से मेरी नींद टूटी, पांच बज चुके, मैं अलसाई सी अलार्म बंद करके बिस्तर पर कुछ देर ऐसे ही लेट गई।
और जब आँख खुली तोह देखा घड़ी में 6 बज रहे हैं।
निलेश अभी भी सोये हुए हैं ।
उनके चेहरे पर वही चिर परिचित, भोली हल्की सी मुस्कान है, मुझे कभी कभी वोह पति कम बच्चे ज्यादा लगते हैं।
तभी ख्याल आया, इससे पहले तापसी इस खुराफाती दिमाग में कुछ आये, पतिदेव को देखना बंद कर।
और मन ही मन मैं हंसने लगी।
चाय बना कर मैं निलेश को जगाने के लिए गई, तोह जनाब तोह अपने बिस्तर से पहले ही नदारद थे।
इससे पहले की मैं उनको आवाज लगाती, मैं बिस्तर पर थी और निलेश मेरे ऊपर,
मैं उठने की कोशिश करने लगी, पर उठना चाहता कौन था….
निलेश मुझे अपनी बाहों में जकड़नें लगे, उनके होंठ मेरे होठों को छूने लगे और उनके हाथ धीरे धीरे बढ़ते गए और मैं बस उनमे सिमटने लगी ।
चाय पिते पिते 9 बज गए और तब तक नीरू भी आ गई,
वोह किचन में काम करने लगी, निलेश नाश्ता करके काम पर निकल गए।
तब तक नीरू का भी काम हो ही चूका था, तोह नीरू भी निकल गई।
रह गई बस मैं ।
आज मुझे कोई जल्दी नई है।
हाँ, आज मैं बहुत दिन बाद पूरा दिन घर मैं हीं हूँ।
बहुत दिनों से सोच रही थी छुट्टी लेने का,
पिछले कुछ दिन अस्पताल में बहुत ही थकान वाले रहे,
तोह बस कल रात को ही सोच लिया था आज का दिन, मैं अपने साथ बिताऊंगी।
मैं, फिर से अपने अतीत में पहुँच गई।
अनिरुद्ध भईया, मैं पापा मम्मी बस हम चार यही तोह था हमारा छोटा सा परिवार।
अनिरुद्ध भईया शुरू से ही, सबके चहेते थे।
लम्बा ऊँचा कद, चौड़ा सीना, गोरा रंग,
पढ़ाई, खेल कूद में हमेशा अव्वल।
और भईया हमेशा सबकी मदद के लिए तत्पर रहते,
बड़े क्या, छोटों को भी उतना हीं सम्मान देते।
ऐसे थे, मेरे अनिरुद्ध भईया।
भईया जैसे जैसे बड़े होने लगे, चाहने वालों में लड़कियों की तादात बढ़ने लगी।
और उन्ही में थी ” उर्मि”
लम्बी, छरहरी, सांवली एक दम मासूम सा चेहरा, उसमे अपना ही कुछ सम्मोहन सा था।
और इस सम्मोहन में, मोहल्ले के ज्यादातर लड़के फंसे दिखते।
वोह अभी कुछ दिनों पहले ही हमारे मोहल्ले में रहने आई थी, अजित अंकल और रानि आंटी की बेटी।
झूठ नहीं बोलूंगी,
शुरू में मुझे भी बाकि लड़कियों की तरह उससे ईर्ष्या होती थी, आखिर हो भी क्यों ना?
जोह लड़के पहले हमारे पिछे घूमते थे, अब सब के निशाने पर बस उर्मि थी।
पर मैं धीरे धीरे उर्मि के दिल में क्या है जानने लगी थी, और उसके लिए मेरी ईर्ष्या कब अपनत्व में बदल गई पता ही नई लगा।
हम बहुत जल्दी अच्छे दोस्त बन गए एक दूसरे का साथ हमें बहुत भाता।
हम दोनों ही मेडिकल की तैयारी कर रहे थे, तोह एक दूसरे के घर तोह आना जाना लगा ही रहता था,
या यह कहुँ की,इसी बहाने उर्मि भईया को देखने आ जाती थी।
उसकी आँखों में, भईया के लिए जोह प्यार दीखता था,
मैं भी तोह उसको मन ही मन, अपनी भाभी बनाने के सपने देखने लगी थी।
हाँ बचपन के सपने…..
भईया का पास के लॉ कॉलेज में ही दाखिला हो गया था, पापा बहुत खुश थे।
हों भी क्यों ना,
उनकी वकालत की प्रैक्टिस को आगे चलाने वाला जोह मिल गया था।
अगले साल मेरा भी मेडिकल कॉलेज में दाखिला हो गया, लेकिन उर्मि कि किस्मत ने साथ नही दिया, उसका दाखिला नहीं हो सका।
लेकिन उर्मि के चेहरे पर कहीं भी शिकन नहीं थी|
वोह हंसते हुए बोली,
“डॉक्टर साहब, अब मुझे चूहें नही काटने पड़ेंगे“
उर्मि ने बीएससी में दाखिला ले लिया, इधर मैं भी हॉस्टल आ गई थी।
हमारा मिलना कम हो गया था, दोनों ही अपनी अपनी जिंदगी में आगे बढ़ रहीं थी,
मेरा भी ज्यादातर समय पढ़ाई में ही चला जाता, उर्मि भी व्यस्त रहती।
पर फिर भी हम एक दूसरे से संपर्क में रहते।
मैं जब भी हॉस्टल से घर आती, उर्मि और मेरा वही पहले वाला समय जैसे लोट आता।
उर्मि का भईया के प्रति वह आकर्षण अभी भी वैसा ही था,
या यूँ कहुँ, समय के साथ बढ़ता जा रहा था।
लेकिन अनिरुद्ध भईया की तरफ से मुझे कभी वोह जज्बात नजर नहीं आये।
अल्बता अब मैं उर्मि को कईं बार भईया के नाम से छेड़ने लगी थी, भईया का नाम आते ही उसका चेहरा जैसे टमाटर की तरह सुर्ख लाल हो जाता।
फिर भी वोह जुबान पर दिल की, बात कभी नई लाई।
भईया की लॉ कि पढ़ाई बस पूरी होने वाली थी, पापा काफी खुश थे की जल्दी ही भईया उनके साथ काम में मदद करेंगे।
मेरा घर आना थोड़ा कम हो गया था, कॉलेज में व्यस्तता काफी बढ़ती जा रही थी,
सच कहुँ,तोह मेरे भी पँख निकल आये थे,
अब मुझे भी हॉस्टल लाइफ काफी पसंद आने लगी थी।
सब कुछ साथ चल रहा था घूमना फिरना, पढ़ाई लिखाई, मौज मस्ती।
लेकिन साथ ही, जिंदगी में संजिंदगी का अहसास भी होने लगा था, अब पढ़ाई किताबों तक ही सिमित नहीं रह गई थी।
हमें अस्पताल में अलग अलग विभाग में ड्यूटी दी जाने लगी थी।
जहाँ हर दिन कुछ नए अनुभव, कुछ नए अहसास जिंदगी का हिस्सा बन रहे थे,
समझ आने लगा था यह पेशा, सिर्फ आय का जरिया नहीं है।
‘यह एक जिम्मेदारी है, उन उम्मीदों पर खरे उतरने की,
जोह मरीज और उनके परिवार की हमसे बँधी हैं ‘
जिस सफेद कोट को पहनने के सपने ने, मुझे यहां तक पहुँचाया था, अब अहसास होने लगा था,
वह सफेद कोट, कितनी जिम्मेदारी, कितनी उम्मीदें साथ लाता है।
हर दिन कुछ नया सिखाता।
सबसे मुश्किल होते थे, वोह दिन जब कोई उम्मीद टूटती|
जब डॉक्टर को अपनी सीमा, अपने दायरे का अहसास होता है।
यहां मेरा भगवान पर विश्वास और अटल होता जा रहा था।
कितने ही बार अस्पताल में मैंने, बड़े बड़े डॉक्टर्स को भगवान से प्रार्थना करते पाया|
जहाँ उनके इतने सालो के अनुभव असफल हो जाते हैं,
उनका दिमाग उन्हें चीख, चीख कर गवाही दे रहा है, यह जिंदगी का अंत है,
फिर भी वोह भगवान के द्वारा चमत्कार का इंतजार करते हैं।
‘और वोह चमत्कार एक, दो बार होते मैंने भी देखें‘
और इन सब अनुभवों में, जोह अनुभव बहुत सुखद अहसास कराता था,
वोह था प्रसूति विभाग में, नव जीवन का आगमन।
‘कैसे इतने दर्द में भी, माँ के चेहरे पर वोह खुशी की लहर दिखाई देती थी, जब वोह अपने बच्चे को देखती,
वोह बच्चे को दुनिया में लाने का अहसास, जिसके सामने बाकि सब अहसास अर्थविहीन हैं ‘
और तभी दरवाजे की घंटी बजी, मैं जैसे गहरी नींद से जगी हूँ,
मैंने घड़ी की तरफ देखा दो बजे थे, दरवाजा खोलते ही सामने नीरू थी इससे पहले मैं कुछ बोलती वोह बोली,
“दीदी आज मुझे कहीं जाना है, इसी लिए शाम में नही आ पाऊँगी, तोह जल्दी आ गई“
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लेखिका : अंबिका सहगल