“बदलता स्वभाव – सीमा वर्मा”

पूरे पाँच भाई-बहनों एवं बाबा-दादी से भरा-पुरा संयुक्त परिवार था हमारा।

पिताजी मुख्य सचिवालय में कलास टू एम्प्लाइ थे।

मैंने जब से होश संभाला। हमेशा ही अपने पिता को यह कहते सुना ,

“जिसकी जैसी किस्मत उसके अनुरूप ही उसका स्वभाव भी ढ़ल जाता है”।

जब कि मेरा मानना था,

“स्वभाव व्यक्ति में निर्मित एक स्वाभाविक प्रक्रिया है जिसका विकास पीढ़ी दर पीढ़ी होता है”।

वास्तव में आज उम्र के इस पड़ाव पर पंहुच जब कभी मुड़ कर देखने का प्रयास करता हूँ।

तो पिताजी की बात ही अक्षरश सही साबित होती है।



खैर!

तो किशोरावस्था के दिनों वाले पिता के सुढृढ व्यक्तित्व और फिर बाद में उनके कर्तव्यबोध के कैदी बन कर रह जाने वाले झुके कंधो की छवि आंखों के सामने स्पष्ट नजर आती है।

जिसे देख उस वक्त अनायास मुझमें आक्रोश पैदा होती थी।

तब मैं २० वर्ष का और मेरे पिता ४२ वर्ष के थे।

घर में उनसे मुलाकात सिर्फ ऑफिस निकलने और वापस आने के समय तक ही सीमित हो कर रह गई थी।

मैं स्वच्छंद पक्षी की तरह गगन में विचरता, फिल्में देखता ,गीत गुनगुनाता रहता।

जब कि वे हम भाई-बहनों की आवश्यकता पूर्ण कर हमें खुश रखने के लिए अपनी आय बढ़ाने की चाहत में रुक्ष स्वाभाव के होते जा रहे थे।

नित्य ही ऑफिस से लौटते वक्त उनकी साईकिल की हैंडल में सब्जियों से भरी थैली टंगी होती।

और साईकिल जिसकी घंटियों की आवाज सुन कर ही मैं तीव्र स्वर से बज रहे ट्रान्जिस्टर को लिए छत पर चला जाता था।

मैं चाहे कितनी ही मेहनत से पढूँ अच्छे नम्बर लाने पर भी उनसे शाबाशी मिलने की जगह उनके ठंड स्वर मे बोले गए वाक्य ,

“हूं… ऊं ऊं ऊं … अभी और मेहनत करनी है “

आज भी कानों में गूंजते हैं जब मैं अपने बेटे का परीक्षा फल देखता हूँ।

आज समझ में आती है यह बात कि , मुझसे उन्होंने जितना प्यार किया था ,

दर्शाया उससे बहुत ही कम।

तब उनके उस वक्त के अनायास ही चिड़चिड़े हो आए उदास चेहरे वाले दम घोंटू स्वाभाव की परत दर परत खुलने लगी है मुझ पर ।

जब कभी दर्पण के सामने खड़ा होता हूँ तो याद आता है ,

” मुझे उनका हमें सख्त आवाज में भला – बुरा समझाते समय बार-बार कनपटी के सफेद बालों पर निरन्तर हाँथ फेरते रहना …”

अब मैं जैसे-जैसे उनकी उम्र को प्राप्त कर रहा हूँ  मुझ पर उनका स्वाभाव खुलता जा रहा है यों जैसे सीप के कड़े खोल में चमकदार मोती।

लेकिन अब परिस्थितियां कितनी बदल गई हैं और हम कितने आगे बढ़ गए हैं।

इसका छोटा सा उदाहरण मैं देता हूँ।



आज मेरे बेटे राहुल का जो मेरी तीसरी संतान है, का रिजल्ट निकलने वाला था। मैं ऑफिस से आ कर बैठा हुआ बेसब्री से उसका ही इंतजार कर रहा हूँ।

कौलेज से लौटते ही उसने मेरे पैर छू लिए और प्रणाम किया ,

“तो मतलब साहब का रिजल्ट आ गया पास तो हो गए?”।

“हाँ ,पास तो होना ही था पापा तीर भी मार लिया।

फर्स्ट क्लास फर्स्ट पोजिशन पाई है , पापा”

यह कहते हुए वह उछल गया।

“क्या कहा यानी तुम जीत गए?

यह कहते हुए मैं भी गर्वित महसूस करते हुए मजबूती से उसके कंधे पकड़ कर खुशी से निहारने लगा।

जैसे किसान अपनी फसल को पकते हुए देखता है”।

अनायास ही मुझे मेरे कंधे पर पिता के थपथपाहट सी महसूस हुयी।

उनकी वही स्नेहिल छवि आंखों में तैर गई जब वे बेहद आश्वस्त हो कर मुझसे कहते थे,

“कि बेटा जिसकी जैसी किस्मत उसके अनुरूप ही उसका स्वभाव ढ़ल जाता है”।

मैं मन ही मन श्रद्धा नवत् हो उन्हें प्रणाम करते हुए ,उनकी कभी ना खत्म होने वाली अपार मजबूरियों से वाकिफ होता जा रहा हूँ।

मेरा स्वाभाव भी ठीक उन जैसा तो नहीं पर कुछ-कुछ उन जैसा ही गदबदा होता जा रहा है,

जब वे हम भाई बहनों में से किसी के भी परीक्षा फल आने पर महावीर मंदिर में लड्डुओं के भोग अवश्य लगाते थे।

जब कि आज मैं भी बेटे की पीठ ठोक कर कह बैठा,

“आज तूने तीर ही नहीं मारा बल्कि मेरा दिल भी जीत लिया है बेटे,आज तुम्हारा दिन है चलो आज वेजिटेबल पुलाव खाते हैं “।

स्वरचित / सीमा वर्मा

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