अपूर्व बंधन – संध्या पंडित

 

          सुबह के ठीक पांच बजकर तीस मिनट पर अलार्म की संगीतमय धुन से मुक्ता जी की नींद टूटी । उनींदी आँखो  से उन्होंने साइड टेबल पर रखा मोबाइल उठाकर ,अलार्म बंद कर, खिड़की के शीशे पर नज़र डाली। रातभर हुई झमाझम बारिश से हवाओं मे नमी थी। शीतल ठंडक का एहसास पाकर एक पल को दिल ने चाहा कि कुछ देर यूँ ही लेटे रहा जाए मगर दूसरे ही पल याद आया कि आज तो पाँच सितम्बर है और फिर एक नई स्फूर्ति के साथ वो पलंग से उठ खड़ी हुईं। 

         जल्दी से घर के ज़रूरी काम निपटा कर मुक्ता जी ने सिद्धी विनायक भगवान श्री गणेश की पूजा की, उनकी उपासना का आज छठवाँ दिन जो था ।

       कुछ देर बाद ही उनके हाथ मे कड़क चाय की प्याली थी।घड़ी पर नज़र डाली तो सुबह के साढ़े सात बज रहे थे ।सोचा- अभी तो बहुत वक्त है स्कूल जानें मे, शिक्षक दिवस के कार्यक्रम का समय ग्यारह बजे का निर्धारित किया गया है।

      कुछ पल फुर्सत के मिले तो मन चल पड़ा अतीत के गलियारों में। पीछे—– —और पीछे ———

और पीछे——और पहुंच गया इक्कीस बरस पहले के गुज़िश्ता लम्हों की यादों में——

     सन् था 2001 ,जब मुक्ता जी ने शासन से मान्यता लेकर अपने छोटे से शहर मे एक निजी स्कूल का संचालन आरम्भ किया था। शुरूआती कक्षाएं थीं- प्री नर्सरी से के. जी .टू तक।नया नया स्कूल था,बच्चों का प्रवेश प्रारम्भ था ।विद्यालय प्रमुख होने के नाते हर अभिभावक के सम्पर्क मे मुक्ता जी स्वयं रहती थीं। विद्यालय का संचालन सुचारू रूप से चल ही रहा था कि एक दिन प्री नर्सरी की मुख्य शिक्षिका नीलू मैडम नें परेशान होकर मुक्ता जी से कहा – मैडम, क्लास के सभी बच्चों को हमनें अच्छी तरह से सम्भाल लिया है मगर एक बच्ची से हमें परेशानी है,वो क्लास मे आते ही रोने लगती है , ना वो लंच करती है ,ना कुछ बोलती है ,उसकी इन हरकतों का असर बाकी बच्चों पर भी पड़ रहा है ।

   मुक्ता जी नें  कक्षा में पहुंचकर देखा तो सारे बच्चे सुर मे सुर मिलाकर रोये जा रहे थे  , मैडम नीलू ने एक बच्ची की ओर इशारा किया जिसके रोने की आवाज़ सबसे तेज़ थी ।मुक्ता जी को देखते ही वो बच्ची आश्चर्यजनक रूप से चुप हो गई और उनकी गोद मे चढ़ अपनी दोनो बाहें गले मे डाल दीं। देखते – देखते कक्षा मे शांति छा गई। मुक्ता जी ने उसे खुद से अलग करने का प्रयास किया मगर बच्ची की पकड़ बहुत मजबूत थी । वे उसे अपने साथ लेकर केबिन मे आ गईं, गोद मे सुकून से बैठ उसने मुक्ता जी के हाथ से ही खाना खाया और फिर वहीं बैठकर खेलने लगी ।



   अगले कई दिनो तक उसका यही रूटीन चलता रहा , स्कूल पहुंचते ही वो सबसे पहले मुक्ता जी के केबिन मे आती,अपनी बड़ी बड़ी आँखों से उन्हे निहारती ,फिर कक्षा मे चली जाती ।

   नाम था उसका -” सृष्टि”, शर्मा दम्पत्ति की लाडली बेटी।

एक दिन सृष्टि के माता पिता स्कूल मे आए और किसी को कभी कुछ न  बताने का वादा लेकर मुक्ता जी को उसके बारे मे सब कुछ बता दिया ।

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सृष्टि उनकी अपनी संतान नही थी । तमाम तरह के इलाज कराने के बाद, हर धर्म स्थल की चौखट पर माथा टेकने के बाद भी जब उन्हें संतान प्राप्ति नहीं हुई तब इसे अपनी नियति मानकर स्वीकार कर लिया था तभी एक दिन उन्हे मालूम हुआ कि नजदीक के शासकीय अस्पताल में कोई अपनी दुधमुंही बच्ची को बिलखती छोड़कर भाग गए हैं। शर्मा दम्पत्ति ने समुचित कानूनी कार्रवाई कर उस बच्ची को बड़े प्रेम सेअपना लिया ।वो बच्ची थी “सृष्टि “जो पूर्ण स्वस्थ होने के बाद भी बोलने मे असमर्थ थी ।

    अब तो मुक्ता जी का मन सृष्टि में ही रम गया।अब उनकी कोशिश यह         होने लगी कि वो जल्द से जल्द बोलना शुरू कर दे । वो भी अब बहुत खुश रहने लगी थी । ऐसे ही एक दिन जब मुक्ता जी उस कक्षा में नन्हे बच्चों की नटखट बातों का आनंद उठा रहीं थीं तब एक बच्चे ने उनसे फर्माइश की – “बड़ी मैडम, कहानी सुनाइये ना “

        तभी उनकी साड़ी का ऑचल पकड़कर खड़ी सृष्टि अपनी तोतली ज़ुबान में  बोल उठी- ” अले बली मैदम नहीं—-मम्मी मैदम “——-।

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ये उसके मुँह से निकले पहले शब्द थे जिसने उन्हे प्रसन्नता के अतिरेक से भावविभोर कर दिया ।फिर तो उस कक्षा के सारे बच्चों ने मुक्ता जी को

” मम्मी मैडम ” के ममतामयी सम्बोधन से नवाज़ दिया।



   सृष्टि से उनका बंधन कुछ ऐसा बंधा कि उसका हाथ पकड़कर लिखना भी उन्होने ही सिखाया ,उनकी हर बात उसके लिए पत्थर की लकीर थी ।लगभग चार साल तक यही सिलसिला चलता रहा फिर एक दिन उसके माता पिता नें आकर बताया कि स्थानांतरण होने के कारण उन्हें अब ग्वालियर जाना होगा ।सृष्टि से विछोह की कल्पना कर मुक्ता जी सिहर गईं, 

उसका भी रो रोकर बुरा हाल था और फिर उसे जाना पड़ा। 

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  इस विद्यालय को आरम्भ हुए पूरे इक्कीस बरस हो चुके हैं जिसमे अब तक कई बच्चे विद्या अध्ययन कर अपनी मंज़िल पा चुके हैं, वो जब भी मिलते हैं ,उन्हें अपार सम्मान एवं स्नेह  प्रदान करते हैं मगर ना जाने वो कौन सा अपूर्व बंधन है जो आज भी हर पल उन्हें सृष्टि से प्रगाढ़ आत्मीयता से     बाँधे हुए है ,आज भी वो एक दूसरे के सतत सम्पर्क मे हैं। 

  मुक्ता जी अतीत के गलियारों मे विचरण कर ही रही थीं कि उनका मोबाइल बज उठा ,उसे हाथ मे लेकर देखा तो स्क्रीन पर कोई नाम नहीं  ,सिर्फ नम्बर नज़र आ रहे थे मगर आत्मिक भावनाओं का बंधन इतना मजबूत था कि दूसरी ओर से कोई आवाज़ सुने बिना ही वो बोल उठीं- हैलो सृष्टि बेटी ,कैसी हो ——-

 

तुरंत ही दूसरी ओर से चहकती ,खिलखिलाती हुई  आवाज़ गूंजी- मम्मी मैडम ,शिक्षक दिवस पर मेरा प्रणाम लीजिए – ,आज आपके लिए एक गुड न्यूज़ भी है ,आपके आशिर्वाद से मेरा चयन रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन में  वैज्ञानिक के पद पर हो गया है ।

 

अपनी प्रिय शिष्या की यह उपलब्धि सुनकर मुक्ता जी की ख़ुशी का पारावार ना रहा  ,उसे असीम आशीष देकर , अपनी बातें समाप्त कर वो चल पड़ीं शिक्षक दिवस समारोह में शामिल होने  सृष्टि के साथ-साथ सभी विद्यार्थियों की उन्नति हेतु मन में लिए असंख्य मंगलकामनायें ।

स्वतः ही उनके होंठ बुदबुदा उठे – 

“हे ईश्वर, अपूर्व बंधन की इस स्नेहिल डोर को सदैव बाँधे रखना”

 

             संध्या पंडित

                बालाघाट, मध्यप्रदेश

 

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