रात थोड़ी डरावनी हो चली थी। वैसे इसमें रात की कोई गलती नहीं थी। प्रकृति के बंधे-बंधाये नियमों के तहत धरती के उस हिस्से ने सूरज से पीठ कर ली थी जिधर दिल्ली बसता था। ये तो वो रोज़ ही किया करती थी। गलती शायद इस शहर की थी या सिया के कुछ अनुभवों की जिन्होंने उसके ज़हन में डर का ऐसा कीड़ा छोड़ा जो यूं लेट होने पर कुलबुलाने लगता।
कहने को बाहर मौसम और माहौल ऐसा था जिसे प्रेमी युगल रोमासं के लिए आदर्श मान सकते हैं। यानी हल्की फुहार, सुहावनी बयार, सड़क सुनसान और उस पर ढ़लता अंधेरा…मगर सिया इस वक्त कोई प्रेमिका तो थी नहीं जो एक चार्टड बस का सफर इसलिए तय कर रही थी ताकि अपने प्रेमी तक पहुँच सके, वो तो कंप्यूटर ऑपरेटर थी जो आज दो घंटे ओवरटाइम करने के बाद थकी-हारी ऑफिस से घर लौट रही थी।
ऑफिर से पहले ही देर से निकली थी। फिर जो बस मिली उसमें ऐसा पंचर हुआ कि फिर स्टार्ट ही नही हुई। दूसरी बहुत देर बाद मिली जिसमें गिनती की सवारियाँ थी, वो भी सारे मर्द…इस शहर में यही छोटी सी बात किसी लड़की के डरने का कारण बन जाती है..निर्भया की घटना के असर से शायद दिल्ली अभी भी नहीं उबरी थी।
बस में तो फिर भी ठीक था, सिया को असली चिंता बस स्टैंड से घर तक पहुँचने की थी। इस वक्त बस स्टैंड से घर के लिए ओटो पकड़ने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती थी। अगर कोई भूला-भटका मिल भी जाता तो तीगुना-चौगुना किराया माँगता, यह कह कर…वहाँ से खाली लौटना पड़ता है।
वो जानती थी लेट होने पर ये रास्ता सुनसान हो जाता है जहाँ से गुजरते हुए उसे दसियों बुरे ख्याल आते हैं। पास से गुज़रने वाले हर कार, स्कूटर, ओटो, इंसान… को वो शक की नजरों से देखने लगती है। दिल बैठा जाता है जिसे मन ही मन हनुमान चालिसा पढ़ जैसे तैसे संभालती है। दो महीने पहले इसी रास्ते से, लगभग इसी समय एक राहगीर लड़की को जबरन वैन में डालकर ले गये थे।
बस ने जोर से ब्रेक लगाये तो सिया के बुरे ख़्यालात भी कुछ पल के लिए ठिठके। उस स्टॉप पर थोड़ी और सवारियां उतर गई। अब बस में सवारी के नाम पर एक उम्रदराज़ आदमी और तीन-चार शोहदे बचे थे जो उससे एक सीट छोड़ कर पीछे बैठे थे। उनके बीच जिस तरह का ओछा हँसी-ठट्टा चल रहा था, सिया समझ गई थी कि उसका केंद्र वही है मगर दम साधे बैठी रही। उनमें से दो लड़के अपनी सीट से उठे और ठीक उसके पीछे वाली सीट पर बैठ गये। हाँलाकि उनके हाथ सिया से दूर थे फिर भी ना जाने क्यों वह उनकी उंगलियां अपनी पीठ पर फिरती हुई महसुस कर रही थी…उनकी नज़रों का ताप उसे किसी ऐक्स रे किरणों सा बेंधता लग रहा था। उनके अश्लील मज़ाक कानों में शीशे से पिघल रहे थे।
सिया जैसे सुन्न पड़ गई थी। तभी बस में पीछे बैठे उम्रदराज़ इंसान आकर उसकी सीट पर बैठ गये। उसे स्माईल देकर ऐसे बातचीत करने लगे जैसे पुरानी जान पहचान हो। “आज लेट हो गया बेटा तुम्हें! रोज़ तो जल्दी आ जाती हो?” इससे पहले सिया कुछ समझ कर जवाब देती उन्होंने अगला सवाल दागा, “घर में सब कैसे हैं…पापा ठीक है? पिछले महीने तबियत खराब थी ना उनकी? ” सिया ने चुप्पी साधे रखी, साथ ही दम भी…पापा तो दो साल पहले ही एक ऐक्सीडेंट में….
वह खिड़की के बाहर झांकने का उपक्रम करते हुए हालात समझने की कोशिश कर रही थी। वह उस आदमी को जऱा भी नहीं पहचानती थी जो उससे लगातार किसी परिचित की तरह बात करने की कोशिश कर रहा था।
दिखने में तो बेहद शरीफ़ लग रहे हैं, शायद वो उसे कोई और समझ रहे हो…कंफ्यूजन हो सकता है ना? मगर ये उसकी चालाकी भी तो हो सकती है… लड़की देह के पास आने की, उसे छूने की, महसुस करने की…और उस दिन ऑफिस में सुगंधा कह रही थी ना, ‘ये बड़ी उम्र वाले ज्यादा खतरनाक होते हैं…पहले बेटी बेटी करके, अपनी उम्र का दिखावा करने निर्दोष बनते हैं और फिर मौका देख कर अचानक से इनके भीतर का जानवर प्रकट होता है जो ज़ोरदार झपट्टा मारता है…इन अधेड़ो से ज्यादा बच कर रहना चाहिए। पहले पास बैठेगें, बातों में उलझायेगें फिर बहाने से कभी टांगें, कभी कंधे छुआएंगे.. तुम पर लदने की कोशिश करेगें…’ बस एक मोड़ से मुड़ी तो वो आदमी वाकई सिया पर लगभग लुढ़क ही पड़ा। सिया को सुगंधा की बात पर यकायक यकीन हो आया।
वो घिर चुकी है, सोच कर सिया की देह पसीने पसीने हो उठी। गला सूखने लगा। चाहती थी चिल्ला कर उन्हें डाँट दे, पीछे बैठे शोहदो को भी… मगर कमज़ोर पड़ रही थी। खैर राम-राम करते हुए उसका बस स्टॉप आया। वो सामान समेट ऐसे भागी जैसे पिंजरा खुलने पर कोई जानवर भागता है। उसके साथ वो अधेड़ आदमी भी उतर गया और उसके पीछे पीछ चलने लगा।
‘सही कह रही थी सुगंधा, बस से उतर कर उन बत्तमीज लड़को से तो पीछा छूट गया मगर ये बुड्ढ़ा तो हाथ धो कर पीछे पड़ा है।’ सोचते हुए सिया ओटो स्टैंड पर आकर खड़ी हो गई। मगर वहाँ दूर दूर तक ना कोई ओटो था, ना राहगीर…नितांत सुनसान सन्नाटा… ऊपर से बारिश भी बढ़ गई थी। वो आदमी उससे थोड़ी दूर खड़ा हो गया। “बेटी! अब यहाँ ओटो नहीं मिलेगा। मेरा घर पास ही है, चाहो तो साथ चले चलो, मैं तुम्हें कार से घर छोड़ दूंगा…” इस बार सिया बड़ी हिम्मत जुटा कर भड़क पड़ी। “देखिये अंकल जी! पहली बात, मैं आपको जानती नहीं हूँ फिर भी बस में आप मुझसे ऐसे बात कर रहे थे जैसे कितनी पुरानी जान पहचान हो…दूसरी बात, मैं आपकी बेटी नहीं हूँ क्योंकि अगर आप वाकई मुझे बेटी की तरह मानते तो मुझे अकेला देख यूं मेरा पीछा न करते…वैसे भी इस शहर में बहुत सी लड़कियों को ओटो नहीं मिलता तो क्या आप सबको अपनी कार से घर पहुँचायेगें? अगर अब आपने मुझे तंग किया तो मैं पुलिस को कॉल कर दूंगी।” धमकाते हुए सिया का चेहरा तमतमा गया।
सिया, जो अब तक एक सीधी-साधी गऊ समान सॉफ्ट टारगेट लग रही थी अब दुर्गा के रूप में आ चुकी थी। वो आदमी सन्न रह गया फिर थोड़ा झेंप कर वहाँ से चला गया। उसके जाने पर सिया ने राहत की सांस ली। बहुत अच्छा लगा उसे आज पहली बार किसी को इस तरह डांट कर… बता कर कि वह कमज़ोर नहीं है, वह भी विरोध कर सकती है।
बारिश की तीरछी बौछारें बस स्टैंड के शेड में घुसपैठ कर उसे भिगो रही थी। सड़को पर तेज़ भागती गाड़ियों की बत्तियाँ गीली सड़क पर रोशनी बिछा रही थी। जैसे ही कोई ओटो सिया की नजरों में आता वो उसे भाग कर हाथ दिखाती मगर सभी में कोई न कोई सवारी बैठी होती। यूं ही 15-20 मिनट गुज़र गये। थक गई थी वो इस संघर्ष से…अंततः उसने भगवान का नाम लेकर बारिश में पैदल ही घर तक का सफर करने की ठानी। आखिर कब तक यहाँ खड़ी रहती?
वो सिर को दुपट्टे से ढ़क चली ही थी कि एक कार उसके पास आकर धीमें धीमें चलने लगी। एक नये खतरे की आहट पा वह ऊपर से नीचे तक काँप उठी। कुछ भी तो नहीं था उसके पास जो इस हालत में उसका हथियार बन पाता…सुगंधा कितनी बार समझा चुकी है लड़कियों को पर्स में कोई छोटा-मोटा चाकू, पैपर स्प्रे वगैरह रखना चाहिए तो ऐसे में तुरंत उनका सहारा बन सके…मगर उसने कभी इन बातों पर ध्यान ही नहीं दिया।
“आप भीग रही हैं, आपको कहीं ड्राप कर दूं?” कार का विंड़ो ग्लास नीचे हुआ जिसमें से एक आवाज़ आई। आवाज़ किसी मर्द की नहीं बल्कि एक लड़की की थी जिसे सुन कर सिया की जान में जान आई। उसने मुँह घुमा कर देखा। कार की ड्राइविंग सीट पर लगभग 24-25 साल की लड़की बैठी थी। मासूम सी लेकिन आत्मविश्वास से भरी जिसके गले में किसी कंपनी का आई कार्ड लटक रहा था। पास की सीट पर लैपटॉप रखा था। वो भी शायद ऑफिस से लौट रही थी।
सिया कुछ पलों के लिए जड़ हो गई। मन किया उस अजनबी लड़की से लिपट जाए और फूट-फूट कर ऐसे रो पड़े जैसे बचपन में किसी बात से डर जाने पर माँ से लिपट रो दिया करती थी। वह उसे बताना चाहती थी, इस वक्त कितनी जरूरत थी उसकी…उसके इस प्रस्ताव की कि ‘आपको कहीं ड्राप कर दूं’… सच! भगवान भी कैसे कैसे रूप धर मदद को आता है। सोच कर सिया ने ईश्वर को मन ही मन धन्यवाद दिया और कार में बैठने लगी। मगर संकोच से रूक गयी उसके कपड़े पूरी तरह भीग चुके थे। उसके बैठने से सीट गीली हो जाती। “कोई बात नहीं, मैं क्लीन कर लूंगी, आप आराम से बैठ जाइये।” उसने सिया का संकोच भाँप मुस्कुराते हुए कहा।
“थैक्यूं वैरी मच! आपको नहीं पता, इस वक्त मुझे इस लिफ्ट की कितनी जरूरत थी।” सिया ने राहत भरी साँस छोड़ते हुए कहा।
“मुझे पता है। यहाँ पर इस वक्त मुश्किल से कोई ओटो, टैक्सी मिलती है और आज तो मौसम भी ख़राब है…आप चिंता न करें मैं आपको घर तक ड्राप कर दूंगी।” सिया ने उसे अपने घर का पता बता दिया।
“आप भी उस साइड रहती है क्या?”
“रहती तो नहीं, किसी काम से जा रही थी।”
“ओह! तो आपको मेरी वज़ह से ऐक्स्ट्रा ड्राइव करना पड़ेगा?”
“कोई बात नहीं, मुझे बारिश में ड्राइव करना पसंद है।” वह मुस्कुराई।
दोनों में संक्षिप्त परिचय का आदान-प्रदान हुआ फिर इधर-उधर की बातें होनें लगी। उस लड़की का नाम सुहासिनी था जो एक आईटी कंपनी में इंजीनियर थी। सिया ने उसे अपने साथ बस में हुआ वाकिया बताया कि कैसे उसे कुछ लड़को ने और उससे भी ज्यादा एक अधेड़ आदमी ने परेशान किया। फ़िर जी भर कर इस शहर को और इस शहर के मर्दों को कोसा। भड़ास निकाल सिया कुछ हल्की हुई और आँख बंद कर बैठ गई।
“क्या सोच रही हैं?” सुहासिनी ने टोका।
“उस आदमी का चेहरा आँखों के आगे घूम रहा है…दिखने में इतना शरीफ, कितना सीधा-सादा लग रहा था मगर देखो तो ज़रा, हरकतें कैसी थी? तुम उसे देखती तो मान ही नहीं सकती थी कि वो बेटा बेटा बोलकर किसी लड़की को इस तरह तंग कर सकता है…”
“हाँ! ये तो मैं सच में नहीं मान सकती…कभी नहीं…क्योंकि मैं जानती हूँ वो ऐसा कर ही नहीं सकते।” सुहासिनी इस बार थोड़ा गंभीर स्वर में कहा।
सिया उसे सवालिया नज़रों से घूरने लगी। “क्या तुम जानती हो उसे?”
“हाँ जानती हूँ, पापा हैं वो मेरे…”सुन कर सिया चौंक पड़ी। “वैसे इसमें न तो तुम्हारी कोई गलती है, न ही उनकी… बहुत लड़कियों से डांट खा चुके हैं मगर क्या करें, स्वभाव से मज़बूर हैं। मेरी हमउम्र हर लड़की में मुझे ही देखने लगते हैं और उसके लिए उतने ही प्रोटेक्टिड हो जाते हैं, जितना मेरे लिए। वो तुम्हारी सुरक्षा को लेकर चिंतित थे इसलिए तुम्हें घर छोड़ना चाहते थे मगर जब तुम नहीं मानी तो मुझे फोन करके बुलाया। मैं ऑफिस से तभी घर पहुँची थी और देखों ना, मुझे आते ही दौड़ा दिया कि तुम्हें अपनी कार से घर छोड़ कर आऊ। जानती हो वो अभी भी वहीं बस स्टाप के पीछे खड़े इंतजार कर रहें हैं। तुम्हें ड्राप कर उन्हें पिक करूंगी फिर तसल्ली के साथ वो घर जाएँगे।”
सिया बुत बनी सब सुन रही थी। समझ नहीं आ रहा था कैसे प्रतिक्रिया दे! बिना सोचे समझे, किसी के बारे में कैसी धारणा बना लेता है हमारा मन…हमारा अपना डर, अपनी सोच सामने वाले का चेहरा बदल देते हैं। आँखें वह देखने लगतीं हैं जो है ही नहीं…कान वो सुनने लगते हैं जो कभी बोला ही नहीं गया…
क्या क्या बोल गई थी वो सुहासिनी के पिता के बारे में…अब किस मुँह से सॉरी बोले? सिया बस का घटनाक्रम याद करने लगी जब वो उसके पास बैठ उससे बतियाने लगे थे तो पीछे बैठे लड़के चुप हो गये थे। शायद वें उन्हें यही जताना चाहते थे कि मैं अकेली नहीं हूँ…
“आई ऐम सॉरी! मैंने पता नहीं उन्हें क्या क्या कह दिया।” सिया शर्मिंदगी महसुस कर रही थी।
“नहीं, सॉरी की कोई बात नहीं। तुमने जो किया ठीक किया। लड़कियों को अजनबियों पर आँख मूंद भरोसा नहीं करना चाहिए। हर आदमी मेरे पापा जैसा नहीं होता ना…”
‘काश! हर आदमी तुम्हारे पापा जैसा होता तो ये दुनिया बेटियों के लिए ज़न्नत होती…’ सिया अपने घर के बाहर खड़ी, सुहासिनी को जाते देख मन ही मन बुदबुदा रही थी।