अपमान लक्ष्मी का – डॉ .अनुपमा श्रीवास्तवा

सुधा की तबीयत आज कुछ ठीक लग रही थी। आधे घंटे से वह बिछावन से उठने का प्रयास कर रही थी पर कमर के दर्द के कारण उठ नहीं पा रही थी।

तभी सुधीर बच्चों की तरह चहकते कमरे में आकर बोले-” सुधा उठकर चलो न बाहर चलकर देखो तो ….दो गौरैया अपना घोंसला बना रही है छज्जे के उपर। मैंने एक कटोरी में पानी और दूसरे में चावल रख दिया है दोनों फुदक -फुदक कर बरामदे में भी आ रहीं हैं। “

सुनते ही सुधा की आंखों में एक चमक सी आ गई। सारा दर्द जाने कहां गायब हो गया।अनायास ही मूंह से निकल गया…”क्या कहा गौरैया ! अच्छा ठीक है आप चलिये मैं कोशिश करती हूँ उठने की।”

सुधा बेड के सहारे उठने का प्रयास करने लगी। उठ कर  वह तकिये के सहारे जैसे ही बैठी सामने दीवार पर टंगी तस्वीर पर नजर चली गई। एक हूक सी उठी सुधा के सीने में जो आह बनकर आँखों से निकल पड़ी। कमर का दर्द और  तेज हो गया वह एक हाथ से अपने दिल को थामे वहीं निढाल सी पड़ गई।

उसके मूंह से अनायास ही निकल पड़ा..”घोंसला मेरा घोंसला….”

वह बेड के सिरहाने सिर टिका कर एकटक उस टंगी हुई तस्वीर में अपना घोंसला ढूंढने में कहीं खो गई।

चहकती -फुदकती नटखट सी दोनों बेटियां घर की चिरैया , माँ की दुलारी दिन भर धमाचौकरी मचाये रखती थीं। सुधा की दुनियां इन्हीं दोनों बेटियों के इर्द-गिर्द घूमती थी। चाहे कितनी ही थकी रहे इन कठपुतलियों की शरारत देख सारी थकान गायब हो जाती थी। दोनों को अपने दोनो तरफ से एक साथ बाहों में भरकर अक्सर कहती थी कि तुम दोनों मेरी आंखे हो तुम्हीं से तो मैं दुनियां को देखती हूं। कभी-कभी सुधीर बीच में घुसकर बोलते और..”मैं…?”

दोनों अपनी तोतली आवाज में कहती “पापा आप मम्मी के कुछ नहीं हो ….है न मम्मी !”

“हां हां ये कुछ नहीं है…” और हँस कर कहती “तुम्हारे पापा तो मेरे नाक है।”

इतना सुनते ही चारो ठहाके लगाकर हंस पड़ते ।

ठहाकों की आवाज कमरे से बाहर जाती तो सभी घर वाले जल -भुन जाते।


सुधा की सास कहती -“हँसती तो ऐसे है जैसे बेटी पैदा कर के जग जीत लिया हो…इन्हीं के बदौलत कुल का वंश बढ़ाएगी।”

धीरे-धीरे घर के बड़े – छोटे सब मिलकर उसपर एक बेटा होने  देने का दबाव डालने लगे। सुधा बिल्कुल भी इसके पक्ष में नहीं थी पर सुधीर भी घर वालों के राग में राग मिलाने लगे। सुधा सबसे तो लड़ सकती थी पर पति की मानसिकता का क्या करे। हारकर एक और चांस लेने के लिए तैयार हो गई ।

सुधा प्रेगनेंट हुई पूरा घर खुश था। तीसरे महीने में धोखे से सुधीर ने प्रेग्नेंसी टेस्ट करवा दी। जैसे ही पता चला कि फिर से लड़की है तो घर में मातम छा गया। उस दिन तो घर में खाना तक नहीं बना और न किसी ने भर मूंह बात की सुधा से ।

सास ने फरमान जारी किया कि अबॉर्शन करवा लो। पहले से ही दो बेटियां हैं तीसरी को लेकर माला बनाने की जरूरत नहीं है। रोती -बिलखती सुधा हॉस्पिटल गई और जो सब चाहते थे वह करवा कर वापस आ गई। लगभग एक साल लगा सुधा को इस अपराध को भुलाने में। फिर धीरे-धीरे जिंदगी पटरी पर से चलने लगी। सुधा फिर से अपनी नन्ही परियों के किलकारियों के बीच रमने लगी।

लेकिन कहते हैं न कि भाग्य का लेख और कर्म का रेख मिटाए नहीं मिटता है। इस बार अनचाहे ही सुधा प्रेगनेंट हो गई। वह नहीं चाहती थी कि किसी को पता चले उसने सुधीर को मना लिया था कि वह किसी को भी नहीं बतायेंगे। जो भी होगा उसे स्वीकार कर लेंगे। सुधीर मान भी गए थे पर कब तक घर वालों की खोजी नजरों से  खुद को बचाती सब ने भाँप लिया सास -ससुर..नन्द-देवर सब सुधा के आव-भगत में लग गये। सासु माँ सुधा पर कुछ ज्यादा ही ढरने लगी। उनकी खातिरदारी देख कर वह अनजाने डर से सिहर उठती और भगवान के सामने भींगी आंखों से प्रर्थना करने लगती।

दुर्भाग्य ने एक बार फिर से सुधा का पीछा किया। सुधीर ऑफिस के ट्रेनिंग के लिए पन्द्रह दिन तक दूसरे शहर चले गए। घर वालों को अच्छा मौका मिल गया। पहले से सब सेटिंग था चेकअप के बहाने सुधा का अल्ट्रासाउंड हुआ पता चला फिर लड़की है। इस बार मातम नहीं भूचाल आ गया पूरे घर में। सास ने अपना माथा पीटना शुरू कर दिया। ससुर जी अपने नसीब को दोष देने लगे। उनको सुधा की सेहत से नहीं मतलब था। सुधीर के भाग्य फूटने की ज्यादा चिंता थी।


सुधीर के वापस आते ही पूरा घर उसका कान भरने में लग गया। सुधा लाख गिरगिराई पैरों पर गिरी पर किसी ने उसकी ममता पर रहम नहीं खाया। सब कुछ वैसे ही दुहराया गया। बेचारी सुधा….अपनी दोनों अबोध बेटियों को गले लगाकर खूब रोई। उसका मन  बिना प्राण के शरीर जैसा  हो गया था।

सुधीर तो महीने भर तक आंख नहीं मिला पाये थे सुधा से। उसने परिवार के दबाव में कसाई का रूप ले लिया था अपने ही औलाद को मारकर।

समय बीतता गया। सुधीर के भाई बहनों की शादी हो गई। माता-पिता भी अब बुढ़े हो चले थे। सुधीर के भाई को दस वर्ष के बाद भी कोई औलाद नहीं हुआ। एक मनहूस दिन जिसकी कल्पना से दिल दहल उठता है। स्कूल से लौटते वक्त बस का एक्सीडेंट हुआ और सुधीर की दोनों चिरैया उसके घोंसले से सदा के लिए उड़ गईं।

उस दिन जो सुधा औंधेमूंह गिरी सालों तक बिछावन से नहीं उठ पाई। उसका घोंसला उजड़ चुका था। सुधीर और उसके परिवार ने बेटियों को कोख में मारने का अपराध  किया था। बेटियां लक्ष्मी का स्वरूप होती हैं और सुधीर ने लक्ष्मी का अपमान किया था।

उसने अपने अपराध को स्वीकार किया और

प्रायश्चित के तौर पर जी जान लगाकर सुधा की सेवा कर उसे मौत के मूंह से निकाला। उसके परिश्रम से अब सुधा उठकर बैठने लगी थी। सुधीर हर पल उसे खुश रखने की कोशिश करता था।

सुधीर फिर  से कमरे में आया था सुधा को गौरैया दिखाने के लिए  उसने देखा  सुधा की आंखों से दर्द का सैलाब बह रहा था वह तस्वीर में अपनी आँख की पुतलियों को निहार रही थी। सुधीर पर नजर पड़ते ही उसके मूंह से निकल गया….”ओ री चिरैया नन्ही सी….!”

 

स्वरचित एवं मौलिक

डॉ .अनुपमा श्रीवास्तवा

मुजफ्फरपुर ,बिहार

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