अनकही वेदना   – सरिता गर्ग ‘सरि’ 

आज माँ की याद मन के शैल- शिखरों से निकली वेगवती धारा-सी नयनों की झील भर गई। काम की व्यस्तता के बीच , मैं माँ की गोद और अहम रिश्ते को भुला बैठा था। बरसों से बीमार माँ से नहीं मिल पाया था। डबडबाई आँखों से अनन्त व्योम में नजरें गड़ाए मैंने निश्चय किया,आज मुझे माँ के पास जाना ही होगा।

         गाँव के बाहर की पक्की सड़क पर बस से उतर कर कच्ची पगडंडी के ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर चलते हुए एक अलौकिक आनन्द का अनुभव हो रहा था। मैं इसी गांव में पैदा हुआ था। पहले भी कई बार गाँव आया ,पर इस बार एक लंबे अंतराल के बाद आना हुआ।

बचपन की कई यादें मन के मैदान पर दौड़-भाग करने लगीं। एक ख्याल आता तो तुरन्त दूसरी याद चंचल हिरनी सी छलांग लगाती आ जाती।इन्हीं ख्यालों में डूबा कब अपने कच्चे-पक्के घर के आमने पहुंच गया पता ही नही चला।

घर के आमने कुछ दूरी पर लगे बरगद की छांव में बान की खाट पर बैठे चाचा हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे। घर के बाहर मुझे खड़ा देख वहीं से बोले ‘कौन है भाई’!

मैंने उनके पास जाकर पैर छुए और कहा चाचा ‘मैं बचुआ हूँ।’

          गाँव में मुझे सब इसी नाम से

जानते और बुलाते थे। 2-4  मिनिट चाचा के पास बैठ मैं घर के अंदर गया। सामने दालान में एक निवाड़ के पलंग के ऊपर माँ का कंकाल लेटा था। मैं उस हालत में माँ को ठीक से पहचान भी नहीं पा रहा था।

माँ के सिर पर हाथ रख,उनके ऊपर जरा झुककर मैंने माँ पुकारा। दूसरी बार पुकारने पर उन्होंने धीरे से आंखें खोली, मुझे एकटक देखती रही। मैंने फिर धीरे से कहा ‘अम्मा मैं बचुआ..’ तभी मैने उनकी आंखों की कोर से दो बूंद टपकती देखी।

वो लगातार मुझे देखे जा रही थी। मैं खुद को रोक नहीं पाया। अपनी जीवनदायिनी माँ को आज इस हाल में देख छाती फाड़कर एक गुबार सा उठा और मैं फफक कर रो पड़ा। माँ कुछ नहीं बोली ,बस चुपचाप मुझे देखती रही। दंतविहीन मुख और कोटर में दुबकी दो तेजहीन आंखें मुझसे सब कुछ कह गईं।



        कुछ देर बाद मैंने खुद को संयत किया। हाथ-मुंह धोकर कपड़े बदले तो चाची ने खाने की थाली सामने रख दी और वहीं मेरे पास बैठकर पंखा झलने लगीं। मेरे पूछने पर माँ का हाल बताती रहीं।

उन्होने बताया दो दिन से माँ कुछ बोल भी नहीं रही और न ही कुछ खाया है। मेरा कौर गले में अटक गया। चुपचाप थाली सरका दी। चाची के पूछने पर यही कहा रास्ते में कुछ खा लिया था इसलिए ज्यादा भूख नहीं है।

          मैं फिर माँ के पायताने आकर बैठ गया। चाची  से थोड़ा दूध गर्म कर लाने को कहा। वो एक कटोरी में दूध ले आईं और बोली हम तो थक गए कह-कह कर पर ये पीती नहीं हैं। मैंने आधा चम्मच भरकर दूध उनके मुंह डाला तो बाहर निकल गया

मैने मुंह साफ कर दोबारा दूध मुंह में डाला। इस बार अंदर चला गया। वो 5-6 चम्मच दूध ही पी सकीं। मुझे तसल्ली हुई कुछ तो उनके पेट में गया । मैं थोड़े -थोड़े अंतराल पर उन्हें

दूध और पानी पिलाता रहा।

         अगले दिन मैं माँ के पास उनका हाथ थामे बैठा था और कुछ पुरानी बातें कर रहा था। वह टकटकी बाँधे मुझे ही देखे जा रही थीं। कभी- कभी उनका हाथ हिल जाता था जैसे मेरी बात पर सहमति दे रही हों।

कुछ देर बाद मैंने महसूस किया मां न तो पलकें झपका रही थी न उनका हाथ हिल रहा था। बरसों उन्होंने मुझे नहीं देखा था शायद इसीलिए अंत समय उनकी आंखें मुझपर चिपकी रह गईं थी। मैं ताश के पत्तों-सा भरभराकर उनकी छाती पर गिर पड़ा। मेरे मुंह से बस यही निकला ‘माँ मुझे माफ़ कर दो।’

   माँ शायद मेरे इंतजार में ही प्राण समेटे बैठी थी। आज तेरह दिन गुजर गए मां को गए। उनका अंतिम कर्म निबटा कर मैं घर के बाहर पड़ी उसी बान की खाट पर आकर लेट गया और मेरी आँख लग गई।

कुछ ही देर हुई होगी  मुझे लगा मैं आँगन में भाग रहा हूँ और माँ मेरे पीछे दूध का गिलास पकड़े दौड़ रही है,’बचुआ आजा बेटा दूध पी ले।’ कुछ पल को आँखें खुली फिर थकान से बन्द हो गईं, मां धीरे से जगा रही थी

‘बेटा तू आज बहुत थक गया जा अंदर जाकर लेट जा।’ मैं उठकर बैठ गया।जाने कहाँ से  एक ठंडी, सुगन्धित हवा का झोंका आया और मुझे सहला कर गुजर गया और गहराती शाम खामोशियों के धब्बे छोड़ गई।

सरिता गर्ग ‘सरि’

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