अनजाने रास्ते (भाग-11) – अंशु श्री सक्सेना : Moral Stories in Hindi

Moral Stories in Hindi :

बीतते समय के साथ वैदेही की प्रेगनेन्सी को लेकर यूनिवर्सिटी कैम्पस में तरह तरह की चर्चाएँ होने लगीं। साथी लेक्चरार और रीडर्स की तिरस्कार भरी बींधती निगाहें और व्यंग्यात्मक परिहास वैदेही का कलेजा छलनी कर जाते । छात्र छात्राएँ उसे मुड़ मुड़ कर देखते और मुँह फेर कर हँसते। परन्तु वैदेही ने स्वयं को रेनकोट जैसा बना लिया जिस पर पड़ने वाली सारी उलाहनाएँ वर्षा की बूँदों की तरह फिसल जातीं।

समय आने पर वैदेही ने राहुल को जन्म दिया और इसी समय उसके जीवन में कमली का आगमन हुआ। कमली ने उसे और राहुल दोनों को सम्भाल लिया। कमली और राहुल के साथ वैदेही के घंटे दिनों में, दिन महीनों में और महीने सालों में बदलने लगे।

इस बीच प्रोफ़ेसर बैनर्जी के रिटायरमेंट के बाद वे और नीलिमा जी भी अपने गृहनगर कोलकाता में बस गये। वैदेही के साथ उनका सम्पर्क बीच बीच में भेजे गये पत्रों के माध्यम से ही हो पाता।

वैदेही भी प्रोफ़ेसर हो गई, यूनिवर्सिटी में उसके दायित्व बढ़ गये थे। कभी कभी उसे अपने कलीग्स से अयान के समाचार भी मिलते रहते थे। उन्हीं से उसे पता चला था कि अयान और नजमा का भी तलाक़ हो चुका है और अयान की ही कोई रिसर्च स्कॉलर, अयान की तीसरी बीवी बन गई है। नजमा और अयान के तीन बच्चे हैं जो कि अलीगढ़ में ही पढ़ते हैं।

अयान ने कभी उसके बारे में जानने की कोशिश नहीं की न ही कभी राहुल पर अपना हक़ जमाया।

राहुल की परवरिश में वैदेही ने कोई कसर नहीं छोड़ी परन्तु फिर भी जवान होता राहुल कॉलेज में आते आते बिगड़ने लगा । ग़लत दोस्तों की संगत उसे ड्रग्स और नशे की अँधेरी गलियों में खींच ले गई थी। वैदेही को प्रोफ़ेसर दिनकर की कही बात हमेशा याद आती…

“जब तक राहुल छोटा है, तुम उसे सम्भाल लोगी, परन्तु जवान होते लड़कों पर पिता का अंकुश होना अत्यन्त आवश्यक होता है”

दिल पर पत्थर रखकर वैदेही ने राहुल को अमेरिका की एक यूनिवर्सिटी में पढ़ने के लिए भेज दिया।

अमेरिका पहुँच कर भी राहुल का मन पढ़ाई में नहीं लगा और एक अमेरिकन लड़की जेनी के चक्करों में पड़ गया। कुछ समय बाद राहुल ने जेनी से शादी कर ली और जल्दी ही दो जुड़वाँ बच्चियों रिंकी और चिंकी का पिता भी बन गया।

वैदेही का मन अपनी पोतियों को देखने के लिए तरसता। वह जब भी राहुल को अपने परिवार के साथ भारत आने को कहती, राहुल कभी व्यस्तता का…तो कभी चिंकी की बीमारी का तो जेनी की बेकरी शॉप से सम्बन्धित किसी काम का।

इतने सालों में केवल एक बार ही राहुल के पास जा पाई है वैदेही…वो भी तब, जब अपने रिटायरमेंट के बाद उसने स्वयं मुँह खोल कर बेशर्म बन कर कहा था,

“मैं जून में रिटायर हो रही हूँ राहुल, रिटायरमेंट के बाद कुछ दिनों तेरे पास आकर रहना चाहती हूँ मेरे बेटे…अपनी पोतियों के संग खेलना चाहती हूँ, तू मुझसे मेरा यह हक़ क्यों छीन रहा है?”

हालाँकि अमेरिका जाकर वह मुश्किल से पंद्रह दिन ही रह पाई थी। जेनी की आग सी तपिश वाली घूरती निगाहों ने उसे अपना रिटर्न टिकट प्रीपोन कराने पर मजबूर कर दिया था।

राहुल का ध्यान आते ही फिर वैदेही को उससे की गई पिछली बात याद आ गई।

“समझा करो यार ममा…”

सवेरा हो चुका था…पंछी अपने अपने घोंसलों से बाहर जाने के लिए चहचहा रहे थे। मंद मंद चलती हवा वैदेही के बालों में उतरी चाँदी को बिखेर रही थी। आज भी वैदेही के बाल कंधों तक ही कटे हैं पर अब उनकी बेतरतीबी को सँवारने का उसे मन नहीं होता। पहले गर्मियों में कलफ़ लगी कड़क सूती साड़ियाँ और सर्दियों में सिल्क की साडियाँ पहनने वाली वैदेही,

“कहीं जाना तो है नहीं…”

सोच कर हफ़्तों घर के मैले कुचैले पुराने गाउन पहन कर ही गुज़ार देती है।

“ओह! मैं सारी रात अपनी बीती ज़िन्दगी के बिखरे क़तरे ही समेटती रही..ज़िन्दगी की किताब में अपनी उम्र के रूप में जुड़े सरसठ (६७) पन्नों पर स्याही की तरह बिखरी यादों को पढ़ने और पलटने में सिर्फ़ एक रात का ही समय लगा…मुझे तो लगता है जैसे सदियाँ बीत गई हों और मैं इस आस में जी रही हूँ कि कब मेरी साँसों की डोर टूटे और मृत्यु मुझे अपने आलिंगन में भर ले…”

वैदेही ने फिर अपने गालों पर ढलक आई आँसुओं की धारा को अपने हाथों से पोंछा और फ़्रेश होने के लिए बाथरूम में चल दी।

तभी बार बार दरवाज़े पर डोर बेल बजने पर वैदेही ने झल्ला कर कहा,

“आ रही हूँ मेरी माँ, कमली…थोड़ा सा सब्र कर, अभी खोलती हूँ किवाड़”

कमली, वैदेही के घर के बाहर बने आउट हाउस में ही रहती है और सुबह सवेरे आ धमकती है, यदि वैदेही देर तक सोना भी चाहे तो कमली उसे सोने नहीं देती। पिछले लगभग चालीस सालों से साथ रहते रहते उसने वैदेही की माँ का स्थान ले लिया है।

वैदेही के दरवाज़ा खोलते ही कमली धड़धड़ाते हुए घर के भीतर घुस आई।

“दीदी, आज ज़रा जल्दी काम करा ल्यो हमसे…ऊ कर्नल साब के बेटी दामाद नाती नतिनी, सब आवै वाले हैं…उनके घर आज बहुतै काम है हमका”

जल्दी जल्दी गैस पर चाय का पानी रखते हुए कमली ने ऐलान किया।

“ठीक है…तू चाय बनाकर चली जा उनके घर…नाश्ते में मैं टोस्ट सेंक लूँगी”

वैदेही ने कमली को आश्वस्त किया। चाय का घूँट भरते हुए उसे अनदेखे अनजाने कर्नल साहब की क़िस्मत से ईर्ष्या सी हुई…

“लोग कहते हैं कि बेटा बुढ़ापे की लाठी होता है और बेटियाँ पराई, परन्तु मेरा तो बेटा ही पराया है जबकि कर्नल साहब की बेटी उनकी बुढ़ापे की लाठी”

लगभग ग्यारह बजे कमली लौटी। वैदेही का खाना बनाते बनाते वह कर्नल साहब के घर की बातें ही करती रही,

“कर्नल साहब की कुहू बिटिया कितनी अच्छी हैं…कितना ख़याल करत हैं साहब का, हमसे कहत रहीं कि साहब को बादाम दिया करौ…दूध दिया करौ, अब हम उनका का बताएँ कर्नल साहब त देसी घी में डूबा आलू पराँठा खात हैं”

उसकी बात सुनकर वैदेही भी हँस पड़ी…फिर अचानक बोली,

“तूने अभी नाम क्या लिया कर्नल साहब की बिटिया का ?”

“दीदी…कुहू बिटिया”

वैदेही का दिल ज़ोर ज़ोर से धड़कने लगा…कहीं यह वही छोटी सी गोलमटोल कुहू तो नहीं ?

“और तेरे कर्नल साहब का क्या नाम है ? कैसे दिखते हैं वो ”

अपनी उत्सुकता पर क़ाबू पाने की असफल कोशिश करते हुए वैदेही बोल पड़ी ।

“ऊ त हमें नहीं मालूम…सबहैं कर्नल साहब ही कहत हैं उनका, खूब गोर और लम्बा हैं कर्नल साहब…का बात है दीदी? आप अइसे काहे पूछ रही हो?”

अब चौंकने की बारी कमली की थी।

“कुछ नहीं…ऐसे ही कोई याद आ गया था”

वैदेही ने ठंडी साँस लेकर कहा। शाम को वैदेही फिर अपने उसी बरामदे में चाय का प्याला लेकर बैठी थी। आकाश फिर अपनी नारंगी चुनरी उतार, नीली काली चुनरी ओढ़ रहा था। पंछी अपने अपने घोंसलों में वापस आने के लिए शोर मचा रहे थे।

तभी बाहर लॉन वाला मेन गेट खटका और पाँच आकृतियाँ भीतर आती दिखीं। वैदेही ने सामने की मेज़ पर रखा अपना चश्मा उठाकर लगाया और देखा,

एक पैंतालीस से पचास वर्षीया महिला, लगभग पचास वर्षीय अधेड़ पुरुष,लगभग बाइस से पच्चीस वर्षीय दो जवान स्त्री पुरुष और सबसे पीछे लगभग सत्तर वर्षीय एक वृद्ध, जो अपनी मज़बूत क़द काठी के कारण अलग से दिख रहे थे, भीतर आकर उसके सामने खड़े हैं।

वह महिला बोली,

“मुझे पहचाना वैदेही आंटी…मैं कुहू, ये मेरे पति शिशिर, यह मेरा बेटा प्रखर और बेटी प्रज्ञा…और इन्हें तो आप जानती ही हैं, मेरे डैडी, रिटायर्ड लेफ़्टिनेंट जनरल अबीर मुखर्जी”

“ओह कुहू तुम…कितनी बदल गई हो तुम”

वैदेही ने अब ध्यान से कुहू को देखा, उसे लगा जैसे वह स्वयं को ही बीस वर्ष पूर्व दर्पण में देख रही हो, अंतर सिर्फ…रंग गोरा और पहनावा अलग।

नीली जींस और सफ़ेद शर्ट में कुहू बेहद स्मार्ट लग रही थी, वैसे ही कंधों तक कटे लहराते बाल। शाम के धुँधलके में उसका गोरा रंग अलग ही आभा बिखेर रहा था। उसके पति और बच्चों ने वैदेही के पाँव छूकर आशीर्वाद लिया तो वैदेही जैसे सपने से जागी…

“अरे अरे ख़ुश रहो बच्चों, अंदर आओ…तुम कैसे हो अबीर, लेफ़्टिनेंट जनरल, या कर्नल?”

उसने सबसे पीछे खड़े अबीर से पूछा।आज इतने सालों बाद अबीर के परिवार का आने से वैदेही को ऐसा लगा जैसे बरसों से सूखी बंजर पड़ी धरती पर बरखा की बूँदें बरस गई हों और उसकी सोंधी सी ख़ुशबू वैदेही के इर्द गिर्द लिपट गई हो।

कमली दौड़ दौड़ कर सबके लिए चाय नाश्ते का प्रबन्ध करती रही। आज वह भी बहुत ख़ुश थी कि पहली बार उसकी दीदी के घर पर मेहमान आए थे।

कुहू ने वैदेही को उलाहना देते हुए कहा…

“आंटी, आपको इतने सालों में एक बार भी मेरी याद नहीं आई ? आप मेरी शादी में भी नहीं आईं…वो तो डैडी नहीं बताते तो हमें पता भी नहीं चलता कि आप यहीं पास में ही रहती हैं”

“हाँ बेटा,बैनर्जी सर का फ़ोन भी आया था और उन्होंने कार्ड भी भेजा था, परन्तु यूनिवर्सिटी में एग्ज़ामिनेशन इंचार्ज होने के कारण मुझे छुट्टी नहीं मिल पाई…अबीर…क्या तुम्हें मालूम था कि मैं यहीं रहती हूँ ? तो फिर इतने सालों में मुझसे मिले क्यों नहीं ? और आज ऐसा क्या ख़ास हो गया कि तुम अपने पूरे परिवार को लेकर मुझसे मिलने चले आए ? अरे मैं तो पूछना ही भूल गई, दिनकर सर और नीलिमा मैम कैसे हैं ?

“हाँ, मैं जानता था कि तुम यहाँ रहती हो, तुम प्रोफ़ेसर रही हो तुम्हें आस पास कौन नहीं जानता ? हाँ, तुमने अपने आपको दीन दुनिया से काट लिया इसलिए तुम्हें यह नहीं मालूम कि तुम्हारे आस-पास कौन लोग रहते हैं…रही बात, कि मैंने आज बच्चों को तुम्हारे बारे में क्यों बताया ? आज मेरी वसु की पुण्यतिथि है और कुहू उसकी तस्वीरें देखकर तुम्हें याद करने लगी…कुहू जब चौदह पंद्रह साल की हुई तब हमने उसे वसु की तस्वीरें दिखाईं थीं और सारी असलियत उसे बता दी थी, वह तुम्हें आज भी बहुत प्यार करती है वैदेही, इसलिए नहीं कि तुम्हारा चेहरा उसकी माँ से मिलता है बल्कि इसलिए कि तुम इसकी वैदेही आंटी हो…तुम्हारा लाड़, दुलार, ममता, सब याद है इसे”

अबीर एक साँस में सारी बातें कह गया।

“डैडी सही कह रहे हैं आंटी, मैं आपको कभी नहीं भूली, शादी के बाद मैं शिशिर के साथ ऑस्ट्रेलिया चली गई थी, पर मैं जब जब इंडिया आई, आपसे मिलने की इच्छा बढ़ती रही…नानी, नानू भी अब माँ के पास दूसरी दुनिया में चले गये हैं, तो बस डैडी और आप ही हैं जिन्हें मैं अपना परिवार कह सकती हूँ…अब प्लीज़ आप दोनों एक दूसरे का ख़्याल रखिए”

कुहू ने वैदेही के दोनों हाथ अपनी हथेलियों के बीच रख लिए और उसकी झुर्रियों भरी शुष्क उँगलियाँ सहलाने लगी।

“दोस्ती का वादा तो अबीर ने किया था पर कभी निभाया नहीं”

कहकर वैदेही ज़ोर से हँसी। आज सालों बाद यह हँसी उसके हिस्से आई थी।

“यू कान्ट ब्लेम मी फ़ॉर दैट…कमली से पूछो, मैं हमेशा एक अच्छे और सच्चे दोस्त की तरह तुम्हारा ख़्याल रखता हूँ”

अबीर ने भी हँस कर जवाब दिया।

“हाँ दीदी, कर्नल साहब हमेशा पूछत हैं कि आज दीदी ने क्या खाया”

कमली भी बीच में टप्प से बोली।

“वैदेही…ज़िन्दगी में जिन भी रिश्तों में हम बँधे होते हैं वे रिश्ते निश्चित राहों पर चलते हैं निश्चित मोड़ों पर मुड़ते हैं…केवल दोस्ती ही एक ऐसा रिश्ता होता है जिसमें कुछ भी निश्चित नहीं…कोई निश्चित मोड़ नहीं, कभी भी किसी भी राह चल पड़ती है दोस्ती की गाड़ी…न कोई अपेक्षाएँ न कोई ईर्ष्या, न कोई राग द्वेष…न किसी मंज़िल की तलाश, इसीलिए दोस्ती के अनजाने रास्तों पर चलना सबसे अधिक सुखद होता है…मैंने तो अपने हिस्से की दोस्ती हमेशा निभाई है, लेकिन तुमने ही दोस्त बनाने छोड़ दिए”

अबीर ने गम्भीर आवाज़ में कहा।

“तुम ठीक कह रहे हो अबीर…अयान से धोखा खाने के बाद मैंने दूसरों पर विश्वास करना ही छोड़ दिया, किसी रिश्ते में बँधने से मैं डरने लगी, यहाँ तक कि तुम्हारे बढ़ाए दोस्ती के हाथ को भी मैंने नहीं पकड़ा…स्वयं को एक खोल के अंदर समेट लिया, जैसे कोई घोंघा अपने ही शेल में छुपा बैठा रहता है, अब सोचती हूँ तो शायद अपने में ही उलझी रहने के कारण मैं राहुल को भी अच्छी परवरिश नहीं दे पाई…खैर ! अब जो बीत गई सो बात गई…मैं ज़िन्दगी के टेढ़े मेढ़े पथरीले रास्तों पर चलते चलते थक चुकी हूँ अबीर, इसलिए आज से बल्कि अभी से मैं तुम्हारी ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाती हूँ, मैं तुम्हारे साथ दोस्ती के अनजाने रास्तों पर चलने को तैयार हूँ”

कहकर वैदेही ने अबीर की ओर अपना हाथ बढ़ाया।

“पर नानू, एक लड़का और एक लड़की कभी दोस्त नहीं हो सकते…मैंने एक मूवी में देखा था”

प्रज्ञा कहते हुए ज़ोर से हँस पड़ी ।

“पर एक सत्तर साल का बूढ़ा और सरसठ साल की बुढ़िया दोस्त हो सकते हैं”

कहकर अबीर ने वैदेही का बढ़ा हुआ झुर्रियों वाला हाथ थाम लिया। शिशिर, कुहू, प्रखर और प्रज्ञा चारों ने तालियाँ बजाकर स्वागत किया।

कुहू ने अबीर और वैदेही के झुर्रियों भरे बूढ़े काँपते हाथों के ऊपर अपना हाथ रख दिया,

“तो फिर यह तय रहा कि आज से डैडी और वैदेही आंटी एक दूसरे का दोस्तों की तरह ख़्याल रखेंगे क्योंकि इस उम्र में जीवनसाथी की नहीं एक दोस्त की ज़रूरत होती है,जो ज़िन्दगी की दुश्वारियों में मज़बूती से हाथ थामे…आप दोनों रोज़ शाम को एक साथ पार्क में टहलने जाएँगे, ढेर सारी बातें शेयर करेंगे इनक्लूडिंग मेरी और राहुल की बुराई…”

कह कर कुहू ज़ोर से हँस पड़ी। आज वैदेही सूना पड़ा घर, परिवार के कहकहों से गूँज रहा था और वैदेही ने अबीर के साथ दोस्ती के रिश्ते में बँध कर दोस्ती की सच्ची, सीधी और सरल राह पकड़ ली थी।

समाप्त

अंशु श्री सक्सेना

 

अनजाने रास्ते (भाग-10)

अनजाने रास्ते (भाग-10) – अंशु श्री सक्सेना : Moral Stories in Hindi

 

2 thoughts on “अनजाने रास्ते (भाग-11) – अंशु श्री सक्सेना : Moral Stories in Hindi”

  1. Iss kahani se kafi kuch zindagi ki sachayi se avagat huye…kehna likhna chahe jitna dil kare, lekin likh nhi paate..
    Likhne walo ko dil se naman.

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