आलू टमाटर की सब्ज़ी – कल्पना मिश्रा

आज बाबूजी की तेरहवीं है। नाते-रिश्तेदार इकट्ठे हो रहे हैं पर उनकी बातचीत, हँसी मज़ाक देख-सुनकर उसका मन उद्दिग्न हो रहा है..”कोई किसी के दुख में भी कैसे हँसी मज़ाक कर सकता है? पर किससे कहे,किसे मना करे” इसीलिये वह बाबूजी की तस्वीर के सामने जाकर आँख बंद करके चुपचाप बैठ गई।

अभी बीस दिन पहले ही की तो बात है.. वह रक्षाबंधन पर मायके आई थी। तब बाबूजी कितने कमजोर लग रहे थे। सबके बीच होने के बावजूद उसे लगा कि जैसे वह कुछ कहना चाहते हों फिर मौका मिलते ही फुसफुसा कर धीरे से बोले भी थे ..”बिट्टू… रमा(भाभी) हमको भूखा मार देगी। आधा पेट ही खाना देती है, दोबारा माँगने पर कहती है कि परेशान ना करो ,जितना देते हैं उतना ही खा लिया करो। ज़्यादा खाओगे तो नुकसान करेगा फिर परेशान हम लोगों को करोगे ” कहते-कहते उनका गला भर आया। 

” पर कभी आपने बताया क्यों नही बाबूजी?”  सुनकर सन्न रह गई वह और तुरंत अपने साथ लाई मिठाई से चार पीस बर्फी निकाल कर बाबूजी को दे दिया। वह लगभग झपट पड़े..और जल्दी-जल्दी खाने लगे.. ऐसा लग रहा था मानों बरसों से उन्होंने कुछ खाया ही ना हो।

“अरे,अरे,,,,इतना मत खिलाओ बिट्टू। तुम तो चली जाओगी पर अभी पेट ख़राब हो जायेगा तो हमको ही भुगतना पड़ेगा” तभी भाभी ने आकर उलाहना दिया।



तब मन मसोस कर वह रह गई थी और  चलते-चलते दबे शब्दों में उसने भाभी से कुछ दिनों के लिए बाबूजी को अपने साथ ले जाने की बात कही तो भाभी तो कुछ न बोलीं पर भइया भड़क गये..”सारी उम्र किया है..तो अब भी कर लेंगें। वैसे तूने ये बात क्यों कही? कुछ कहा क्या बाबूजी ने ?” 

“नही भइया, नही..” वह हड़बड़ा गई और बाकी के शब्द उसके मन में ही रह गए। बड़े भाई से जवाब-सवाल कर भी कैसे सकती थी ? बचपन से ही बेटियों को भाइयों से दबकर रहने का संस्कार जो कूट कूट कर भरा जाता है..पर जाते-जाते उसने एक बार पलटकर देखा तो उसके जन्मदाता कातर निगाहों से उसे ही देख रहे थे। तब क्या पता था कि ये उनकी आख़िरी चितवन है।

इसके पाँच दिन बाद ही खब़र मिली कि “बाबूजी की हालत ठीक नहीं है,वो अस्पताल में हैं ..आकर मिल जाओ” सुनकर छटपटा उठी वह और दूसरे दिन ही उनके पास पहुँच गई।

बाबूजी अर्धमूर्छित से थे,उसको पहचान भी नही पाये! वह उनके कान में फुसफुसाई “बाबूजी, देखिये मैं आपकी बिट्टू” 

कई बार आवाज़ देने पर बामुश्किल उनकी आँखें हिली.. “बि..ट्टू.. भू..ख..” उनकी अस्फुट सी आवाज़ सुनकर वह यूँ खुश हो गई मानो बरसों के प्यासे को जी भर के पानी पीने को मिल गया हो …”बताइये,क्या खाना है बाबूजी..?” पूछते हुए उसकी आँखे भर आईं।



“आ,,लू  टमाटर की स,,ब्ज़ी रो,,टी ..” लड़खड़ाती आवाज़ में उनके मुँह से बोल निकले। जल्दी से उसने इंतज़ाम भी किया..पर देर हो चुकी थी! बाबूजी बगैर खाये पिये,भूखे ही इस सँसार से चले गये।

“बिट्टू,,बिट्टू ,,,,चलो,खाना खा लो” अचानक भइया की आवाज़ सुनकर वह चौंक पड़ी।

“खाना?” वह धीरे से बोली “भूख नही है भइया” 

“हाँ बिट्टू! पहले मान्य खाना खायेंगे ना.. तो थोड़ा सा ही..” असहज से होते हुए वो बोले।

वह कुछ न बोली ! चुपचाप उठकर मान्यों वाले बिछे आसन पर बैठ गई। थाली में तरह-तरह के पकवान परोसे जा रहे थे। उसकी आँखों से आँसू बह निकले! कानों में बाबूजी के आख़िरी शब्द गूँज रहे थे…”आलू टमाटर की सब्जी,रोटी”

कल्पना मिश्रा

कानपुर

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