अब पछताये होत क्या? –  मुकुन्द लाल part 1|best hindi kahani

  रात के अंधकार को चीरते हुए बस पूरी रफ्तार से गीली सड़क पर दौड़ रही थी। रह-रहकर बादल के गरजने और बिजली के चमकने का क्रम जारी था।

  पानी भी घंटे-आध घंटे के अंतराल पर बरस रहा था पर कमलेश के अंतस्थल में उमड़ते- घुमड़ते दुख के बादल उसकी आंँखों के माध्यम से लगातार बरस रहे थे। उसकेआंँसू थमने का नाम नहीं ले रहा था।

  मेढ़कों के टर्र-टर्र की आवाजें और उस बस के बगल से गुजरने वाले वाहनों के हौर्न की कर्कश ध्वनि उसके दिल में शूल की तरह चुभती थी।

  उसके बगल में बैठी उसकी पत्नी माधुरी की आंँखें भी भींगी हुई थी। माधुरी अपने हाथों के स्नेहिल स्पर्श और सांत्वना के द्वारा कमलेश को धैर्य बंधाने का प्रयास कर रही थी। 

  उस दिन शाम में दफ्तर से लौटते ही फोन से उसे खबर मिली थी कि उसके पिताजी की मृत्यु हो गई है। 

  उसको एक झटका सा लगा यह खबर सुनकर। कुछ पल तक वह किंकर्तव्यविमूढ़ सा बैठा रह गया सदमा के कारण। 

  सहज होने के बाद उसने तुरंत अपने बड़े भाई को खबर किया कि उसके आने तक दाह-संस्कार का कार्य स्थगित रखा जाए वह हर हालत में सुबह तक घर पहुंँच जाएगा।

  उसके घर में मातम छा गया। कमलेश फफक-फफक कर रोने लगा। माधुरी भी अपने आप को रोक नहीं सकी उसकी आंँखों से भी आंँसू बहने लगे। उसका छोटा पुत्र वरुण जो तुरंत खेल के मैदान से लौटा था अपने पापा-मम्मी को रोते हुए देखकर, वह भी रोने लगा।

  सिसकती हुई उसकी पत्नी ने ढाढ़स बंधाते हुए कहा, “अब जो होना था सो हो गया… मौत पर किसका बश चलता है… अब हमलोगों को समय पर वहाँ पहुँचने की व्यवस्था करनी चाहिए… विक्रम और रीतु तो पटना में हैं, उनको डिस्टर्ब करना ठीक अभी नहीं है, बाद में उनको सूचित कर देंगे।… उनकी परीक्षा भी चल रही है।”

  उसके बापू चन्दर ने बहुत दुख तकलीफ सहकर कमलेश को पढ़ाया था।स्कूलों के प्रधानाध्यापकों और शिक्षकों से आरजू मिन्नत करके, अपनी दयनीय परिस्थितियों का वास्ता देकर कमलेश की फीस माफ ही करवा लेता था।




  चन्दर गरीब जरूर था पर जागरूक था। निर्धनता के बावज़ूद उसने अपने पुत्र की पढ़ाई पर पूरा ध्यान दिया था जबकि उसके कई साथियों को उसके बापू ने किसी न किसी काम पर लगा दिया था पढ़ाई छुड़ाकर।

  कमलेश का बापू रात-दिन मेहनत करता था, चाहे चिलचिलाती धूप हो या कड़ाके की ठंड, बारिश हो या सूखा। वह अपने काम में कभी ढिलाई नहीं बरतता था। उसका एक मात्र काम था गांव-गांव घूमकर कपड़ों की फेरी करना। सप्ताह में एक-दो हाटों पर भी जाकर कपड़ों को बेचता था। किसी ने ठीक ही कहा है कि फेरी का संबंध फकीरी के साथ हमेशा होता है। यह कहावत चन्दर पर हू-ब-हू लागू होता था। गांव-गांव पैर घसीटने के बावजुद भी उसे दो जून की रोटी के अलावा कुछ भी नसीब नहीं होता था। न अच्छा घर था उसके पास न अपनी दुकान। उसकी पुश्तैनी मिट्टी के घर की हालत भी खास्ता थी। उसके कुछ हिस्से ढह भी गए थे, जिसको वह बेबस होकर सिर्फ देख सकता था।

  समय के थपेड़ों ने उसे सिखा दिया था कि शिक्षा के माध्यम से ही गरीब तरक्की कर सकता है, जी सकता है इज्जत की जिन्दगी। 

  उससे एक चूक हो गई थी कि वह कमलेश के बड़े भाई सूरज को नहीं पढ़ा पाया था। इसका उसे बेहद अफसोस था। वह नहीं चाहता था दुहराना इस गलती को कमलेश के साथ। 

  उसे उम्मीद थी कि कमलेश की पढ़ाई में आवश्यकता पड़ने पर उस कस्बे के लोग उसे मदद करेंगे ही क्योंकि वह हमेशा सामाजिक कार्यों में बढ़-चढ़कर भाग लेता था। नालियों की सफाई का मुद्दा हो या विद्युतीकरण का, मंदिर की व्यवस्था का हो या सामाजिक जागरण का।. सावन में ठाकुरवाङी के श्रृंगार और झूलन का भव्य व आकर्षक सजावट की व्यवस्था करता था, उस कस्बे के मशहूर चित्रकारों और कलाकारों के द्वारा। जिसको देखने के लिए ग्रामीण पुरुषों, महिलाओं और बच्चों की भीड़ उमड़ पड़ती थी। होली-दीवाली के मौकों पर भी उत्सव का आयोजन कवाता था, कस्बे के लोग उमंग-उत्साह के साथ भाग लेते थे। ऐसे अवसरों पर उस छोटे से कस्बे में आनन्द का झरणा फूट पड़ता था। एक-दूसरे को शुभकामनाएं देते थे, झूम उठते थे कस्बाई। 




  कमलेश की पढ़ाई भी जोश-खरोश के साथ जारी थी। 

  चन्दर के कठिन संघर्ष ने रंग दिखलाया, जिसका नतीजा यह निकला कि जिस खांदान में एक भी आदमी शिक्षित नहीं था, उसमें कमलेश पहला था, जिसने मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की।

  परीक्षाफल निकलने के बाद चतुर्दिक उसकी प्रशंसा होने लगी। उस कस्बे के जो लोग कमलेश को हीन दृष्टि से देखते थे, वे लोग उसको इज्जत देने लगे।

  पास-पड़ोस और कस्बे के लोगों ने पिता-पुत्र की हौसला आफजाई की, इसके साथ ही पुत्र को आगे की पढ़ाई जारी रखने की सलाह दी।

  उसी का परिणाम था कि कमलेश कस्बे के निकटवर्ती शहर के काॅलेज में पढ़ने लगा था। 

  उसका परिवार उसकी ओर आशाभरी निगाहों से देख रहा था। इसलिए काॅलेज में कभी भी अपना समय बर्बाद नहीं करता था और न मनचले व फैशनपरस्त लड़कों के साथ शहर की रंगरेलियों में हिस्सा लेता था। सीधा काॅलेज जाता और क्लास समाप्त होते ही सीधे वह अपना डेरा लौट आता। स्वनिर्मित दिनचर्या के अनुसार अपनी पढ़ाई जारी रखता। उसके बापू ने उसे कह दिया था कि अगर वह किसी वर्ष भी फेल हो जाता है तो उसकी हिम्मत टूट जाएगी और वह आगे नहीं पढ़ा पाएगा। 

  हालांकि कमलेश को काॅलेज की पढ़ाई के क्रम में काफी आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ता था। कभी-कभी तो लौज में बहुत फजीहत उठानी पड़ती थी, समय पर खाने और रहने का शुल्क भुगतान नहीं करने के कारण।

  बी. एस. सी. तक पहुँचते-पहुँचते उसके बापू की उम्र काफी ढल गई थी। परिवार के खर्च के साथ पढ़ाई का खर्च पूरा करना मुश्किल होने लगा था।

  कभी-कभी उसका बापू कस्बे के साहूकारों से कर्ज लेकर या घर के बासन-बर्तन और उसकी माँ के जेवरों को बेचकर भी रुपये भेजता था। उसके पढ़ने के लिए।

  छुट्टी में घर आने पर जब कमलेश को पता चलता तो वह बापू से कहता भी कि उनको ऐसा नहीं करना चाहिए। उसकी पढ़ाई बंद ही हो जाएगी तो क्या फर्क पड़ेगा, वह कोई छोटी-मोटी प्राइवेट नौकरी कर लेगा कहीं।




  उसके इस बात पर उसके बापू उसे समझाते हुए कहते, “नहीं बेटा!… ऐसा मत कह!… बहुत फर्क पड़ेगा… अरे!… हमलोगों की जिन्दगी कोई जिन्दगी है… तू पढ़ लिखकर अपना जीवन संवार ले!… हमलोग तो जाहिल, गंवार रह गये, कम से कम इस खांदान में एक आदमी भी तो आगे बढ़े… तरक्की करे!… उसके आगे ये छोटे-मोटे घरेलू सामानों की क्या गिनती है… तू पढ़ लिख जाएगा तो ऐसे ढेरों सामानों से घर भर जाएगा। “

  तब कमलेश निरुत्तर होकर अपने बापू का चेहरा एक टक देखता रह जाता था। उसकी आंँखें छलछला आती थी। वह भावविहव्ल होकर तुरंत अपने बापू के सामने से हट जाता था।

  कमलेश को यदा-कदा भय भी लगता था कि उसके बापू जितनी आशा और विश्वास के साथ उसको पढ़ा रहे हैं, क्या उनके सपनों को वह पूरा कर भी पाएगा या नहीं।

               बी. एस. सी. की फाइनल परीक्षा चल रही थी। कमलेश जी-जान से परीक्षा की तैयारी में लगा हुआ था। रात-दिन बिना वक्त गंवाये पढ़ रहा था।

  सभी पर्चे अच्छे गए थे। सिर्फ रसायन विज्ञान की परीक्षा शेष थी, जो सोमवार को द्वितीय पाली में थी, किन्तु शनिवार को जब वह परीक्षा देकर लौटा था तो उसकी तबीयत खराब होने लगी। वैसे दो दिन पहले से ही उसकी तबीयत थोड़ी खराब चल रही थी, फिर भी उसकी पढ़ाई जारी थी। उसके करियॅर और जीवन का सवाल था।

  शनिवार की शाम होते-होते वह कुछ ज्यादा ही अस्वस्थ हो गया। तेज बुखार और सिर-दर्द से वह बेचैन हो उठा। रात बीतने के साथ-साथ 

उसका सिर ज्वर बढ़ने के कारण दर्द से फटने लगा था। पढ़ना तो दूर उसको बिस्तर पर उठकर बैठना भी मुश्किल मालूम पड़ने लगा। 




  उस लौज के एक-दो सहपाठी औपचारिकतावश आये। हाल-चाल पूछा फिर सांत्वना देकर चले गये। उनकी भी परीक्षा चल रही थी। लौज के मालिक ने एक-दो टैबलेट दर्द निवारण हेतु दिया लेकिन वह भी नाकाम साबित हुआ। सुबह इलाज करवाने की बातें कहकर शान्त पड़ गया। उसे बीमारी से ज्यादा परीक्षा में शामिल नहीं होने का गम खाये जा रहा था।

  रात-भर बिस्तर पर करवटें बदलता रहा। ज्वर में बड़बड़ाता रहा, छटपटाता रहा, लेकिन कोई देखने वाला नहीं था।

  किसी तरह रात कटी। सुबह हुआ। किन्तु ज्वर और दर्द जाने का नाम नहीं ले रहा था। किसी प्रकार नित्य क्रिया-कर्म से निवृत हुआ। फिर बिस्तर पर आकर लेट गया।

  वह ईश्वर से म ही मन प्रार्थना करने लगा,

“हे ईश्वर!… कोई मेरे घर से इस वक्त आ जाए, जिससे उसका उचित इलाज हो सके… और वह परीक्षा में सम्मिलित हो सके।”

  कुछ पल के बाद ही उसके कानों में आवाज आई, “कमलेश!…”

  सिर उठाकर जब उसने देखा तो उसके बापू सामने कमरे की दहलीज पर खड़े थे। ऐन वक्त पर उसके बापू का आना उसे चमत्कार सा प्रतीत हुआ। वह डूब गया सुखद आश्चर्य में। उसके मुंँह से खुद बखुद निकल गया,” कैसे अचानक चले आये बाबूजी।”




  फिर बहुत मुश्किल से उठा और डगमगाते हुए कदमों से अपने बापू का चरण स्पर्श करने के लिए आगे बढ़ा। अपने बापू के चरणों की ओर झुका ही था कि उसके बापू ने कमलेश को अपनी छाती से लगा लिया।

  उसकी देह तेज बुखार से तवे की तरह गर्म थी। चन्दर को उसकी स्थिति समझते देर नहीं लगी। 

  “क्या बात है बेटा?” उसके उदास चेहरे की तरफ देखते हुए चंदर ने मृदुल स्वर में पूछा। 

    कमलेश की आंँखें छलछला आई। उसका गला भर आया था। 

  उसने कमलेश को सहारा देकर बिस्तर पर बैठाया, फिर स्वयं बिस्तर पर बैठ गया। कुछ पल तक प्रेम व स्नेह प्रदर्शित करता रहा, उसको सांत्वना देता रहा। फिर उसने कमलेश की पीठ सहलाते हुए पूछा कि उसको क्या तकलीफ है। तब उसने रूंँधे हुए स्वर में कहा, “तबीयत बहुत खराब है, सिर-दर्द और बुखार है… क्या करें?… कल ही परीक्षा भी है।” 

  अपने बापू के स्नेहिल व मृदुल व्यवहार ने उसके तनाव और चिन्ता को कम कर दिया था।

  उसने अपने बापू से फिर पूछा, “आप कैसे अचानक चले आये बाबूजी!… मैंने तो उम्मीद भी नहीं की थी कि ऐसे मौके पर. कोई घर से चला आयेगा। “

  चंदर ने कहा,” सब भगवान की लीला है बेटा!… उसको यहांँ भेजना था, सो भेज दिया।… बात ऐसी है कि ठाकुरबाड़ी की रंगाई चल रही थी… रंग अचानक घट गया…. पेंटर ने रंग लाने के लिए कहा लेकिन वह रंग वहांँ नहीं मिला… इस लिए मुझे गया आना पड़ा… खासकर रंग के लिए।” 

  कमलेश अपने बापू की बातें सुनकर कुछ पल तक आवाक रह गया। 

  चंदर ने परम पिता परमेश्वर के प्रति आभार व्यक्त करते हुए कहा,” हे भगवन!… तेरी लीला अपरम्पार है।… किस बहाने तुमने यहांँ पहुंँचा दिया हमको”उत्साहित होकर उसने आगे कहा अपने  पुत्र से,” तुझे घबराने की जरूरत नहीं है बेटा… अब मैं आ गया हूंँ… सब ठीक हो जाएगा… चलो डाॅक्टर से दिखा देते हैं।” 




  चन्दर ने रिक्शा बुलाया, फिर कमलेश को सहारा देकर बैठाया, स्वयं भी रिक्शा पर बैठा और चल पड़ा डाॅक्टर के पास। 

  डॉक्टर के यहाँ कमलेश ने अपने कष्टों का विस्तार से उल्लेख किया और उसने यह भी कहा कि कल उसकी परीक्षा भी है। 

  डॉक्टर ने उसके स्वास्थ्य की जाँच-पड़ताल करने के बाद कहा था कि घबराने की जरूरत नहीं है, सब ठीक हो जाएगा, जो दवा देते हैं उसे समय पर देते रहियेगा। 

  दवा ने जादू ऐसा असर किया। शाम होते- होते ज्वर और दर्द लगभग दूर हो गया, फिर भी चिकित्सक के निर्देशानुसार दवा लेता रहा। 

  चन्दर उसकी देख-रेख में जी-जान से लगा रहा। 

 वह पुनः परीक्षा की तैयारी में जुट गया और वहआधी रात तक पढ़ता रहा। 

  दूसरे दिन वह सोमवार को दूसरी पाली की परीक्षा में सम्मिलित भी हुआ। 

  हलांकि उस वर्ष बी. एस. सी. का रिजल्ट बहुत खराब हुआ था लेकिन कठिन परिश्रम और द्दढ़ निश्चय का ही फल था कि कमलेश

 बी.एस.सी. पास कर गया था। 

  एक ऐसा भी समय आया जब उसे सरकारी नौकरी मिल गई और वह दफ्तर का बाबू बन गया। 

    लेकिन उसके बापू को क्या मिला? कमलेश ने क्या किया अपने बापू के लिए। उसकी छोटी-मोटी इच्छाएं भी तो वह पूरी नहीं कर सका था। स्वार्थी बन गया था वह। वह बन गया था नमकहराम। 

  साल-भर पहले ही कमलेश अपनी पत्नी माधुरी के साथ राजगृह घूमने के लिए आया था। उसके साथ उसका छोटा बेटा वरुण भी था। उसका कस्बा उसी रास्ते में पड़ता था। इसलिए औपचारिकतावश वह राजगृह से लौटते वक्त अपने कस्बे में एक दिन के लिए उतर गय था। 




  कई वर्षों के बाद उसने घर में कदम रखा था। वहांँ पहुंँचते ही उसने देखा कि उसके पुश्तैनी मकान का आधा हिस्सा लगभग ढह चुका था। शेष हिस्सा बारिश और आंँधी-तूफान में कब गिर जाएगा कहना मुश्किल था। 

  माधुरी तो घर के अन्दर पैर रखने में भी संकोच कर रही थी, पर कमलेश की भावनाओं का ख्याल रखते हुए अपने पति और पुत्र वरुण के साथ घर के अंदर दाखिल हुई। 

  घर  के अन्दर जब कमलेश की नजर अचानक अपने बापू पर  पड़ी तो वह क्षण भर के लिए उसे पहचान भी नहीं सका था। बढ़ी हुई दाढ़ी, बेतरतीब सफेद बाल, आंँखों पर मोटे लेंस का चश्मा, मैली धोती-गंजी और फटी चादर में वह अत्यंत ही दीन-हीन दिख रहा था। 

  पल भर के लिए पति-पत्नी असमंजस की स्थिति में अपने पुत्र के साथ खड़े रहे। 

  (शेष दूसरी किश्त में) 

    स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित 

                  मुकुन्द लाल 

                   हजारीबाग(झारखंड) 

              #पछतावा

अब पछताये होत क्या? part 2

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