अब कहती हूं – शुभ्रा बैनर्जी  : Moral Stories in Hindi

Moral Stories in Hindi : प्रभा आज छोले बना रही थी बेटी के पसंद के।बेटी ने बड़े चाव से कहा था “मां,एकदम वैसे ही बनाना जैसे पापा को पसंद थे।”खाने की मेज पर छोले के डोंगे को देखकर उसकी प्रतिक्रिया थी”मां,क्या हो गया है आपको?ना तो वैसा रंग है और ना ही खुशबू।पापा का डर नहीं रहा ना अब आपको?जैसे तैसे निपटा दिया आपने।है ना?”

बेटी की बात सोलह आने सच थी,इसलिए मुस्कुराते हुए खाना परोसने लगी प्रभा।पहला कौर मुंह में डालते ही लगा,सामने बैठे पति प्रश्नवाचक नजरों से देख रहें हैं उसे।उफ्फ,कितनी जद्दोजहद करती थी प्रभा सुबह से रात तक,एक खाना पकाने में।थोड़ा सा स्वाद इधर से उधर हुआ या रंग में फर्क दिखाई दिया तो झट से बोल देते कि भूख नहीं है।खाना सिर्फ दो रोटी ही होता था,पर खाने से कोई समझौता नहीं करते थे सुमित।बेटी भी बिल्कुल पापा पर ही गई है।सुमित जाते-जाते मानो उसके हांथों का स्वाद भी लेते गए।अब तो कुछ भी बना लो,कोई फर्क ही नहीं पड़ता।टोकने वाला जो चला गया।

दुर्गा पूजा का शुभारंभ बाहर के खाने से ही होता था सुमित का।बिना बिल की परवाह किए बच्चों को उनकी मनपसंद रेस्टोरेंट में ले जाकर बड़े खुश होते थे वो।प्रभा का दिमाग खराब होता था बेवजह की फिजूलखर्ची देखकर ।जब भी उन्हें टोकती ,यही कहते”अरे ,हम इन्हीं के लिए तो क्या रहें हैं।मेरे बच्चों को राजाओं के ठाठ से पालूंगा मैं।तुम मुंह मत बनाया करो।बचपन की सुखद स्मृतियां सारी ज़िंदगी खुशियां देती हैं।”प्रभा निरुत्तर एक बाप को निश्चिंत होकर बच्चों के ऊपर खर्च करते देखती।साथ ही देखती उस पिता की आंखों में अपार संतोष।

आज बेटे और बेटी ने मिलकर उसी रेस्टोरेंट में प्रभा को ले जाने की योजना बनाई थी।काफी समय से बाहर नहीं गई थी प्रभा।जाते समय भी बेटी ने पापा की पसंद के हिसाब से तैयार होने को कहा।अब तो कुछ भी पहन लो,एक सा ही लगता है।जब सुमित थे ,आंखों से ही समझा देते थे कि साड़ी जम नहीं रही,बिंदी टेढ़ी है,सिंदूर नाक पर फ़ैल रहा है।बच्चों के साथ अपनी मनपसंद टेबल पर बैठते ही सुमित की उपस्थिति का आभास होने लगा।बेटे ने मेनू कार्ड प्रभा के हांथ में देकर कहा”मां,जो खाना हो ऑर्डर कर दो।”प्रभा कभी भी कहां ऑर्डर करती थी।

सुमित ही मेनू कार्ड देखकर उसके चेहरे को पढ़कर वहीं चीजें मंगवाते थे,जो वह खाना चाहती थी।प्रभा ने बेटे से ही ऑर्डर करने के लिए कहा।अचानक टेबल पर रखे वास पर नजर डालते ही प्रभा ने वेटर को बुलाया और कहा”वो लिली के फूलों वाला वास कहां गया?यह तो यहां नहीं रहता था पहले?वेटर ने चकित होकर कहा”मैम दो साल हुए उस वास को बदलें।”ओह।प्रभा को खुद पर ही गुस्सा आया।यह रेस्टोरेंट है ,उसका घर थोड़े ही।खाना ख़त्म होने से पहले बेटी ने मीठा मंगवाने की जिद की।प्रभा ने आदतन इमरती मंगवाई।वेटर फिर बोला”मैम ,कोविड के बाद से इमरती नहीं बनती यहां अब। पेस्ट्री या केक मिल सकता है।”

प्रभा बड़ी मुश्किल से अपने आंसू रोक पाई।बच्चे क्या सोचेंगें?मां अभी भी इतनी चटोरी है।पान वाला वहीं था अभी तक,अपनी दुकान के साथ।प्रभा ने इस बार उससे बात नहीं की,मन ही नहीं हुआ।सुमित हमेशा दो पान एक्स्ट्रा बंधवाते थे,और पैसे भी ज्यादा देते थे इसे।घर आकर बेटे ने पूछा”मां,तुम इतना खोई -खोई क्यों थी आज?मन ही नहीं था खाने पर।पेट भी नहीं भरा होगा तुम्हारा।पहले तो कितना शौक से खाती थी।

प्रभा चाहकर भी अपने मन का खाली पन बच्चों को दिखाकर कमज़ोर नहीं पड़ना चाहती थी।अपना पक्ष रखते हुए बोली”अरे!अब उमर हो रही है मेरी।जीभ पर लगाम रखना जरूरी है कि नहीं?”रात को सुमित की फोटो के पास जाकर बिफर पड़ी”क्या जरूरत थी इतनी जल्दी जाने की?कुछ साल और साथ नहीं रह सकते थे तुम?मेरे हर शौक को,हर पसंद को इतना बढ़ावा देकर अब चले गए।

मैं बच्चों से कह ही नहीं पाती,अपनी इच्छाओं के बारे में।अहसान जैसा लगता है ।उनके सम्मान और प्यार के साथ मेरा यह रवैया बिल्कुल भी ठीक नहीं।पर क्या करूं मैं?तुमने तो मेरे बिना कुछ कहे ही सारे शौक पूरे किए।अब किसी से कहकर मांगने की आदत ही नहीं रही।तुम्हारे सामने हमेशा तुम्हें टोकती रही,डांटती रही फिजूलखर्ची पर।

अब मैं भी यह स्वीकार करती हूं,तुम्हारे इसी बड़े मन की प्रत्यक्षदर्शी थी मैं।कंजूस और बात-बात पर पैसों की बात करने वाले पुरुष तुम नहीं थे।अपने ही बेटे-बेटी से कुछ मांगते हुए बहुत संकोच होता है।तुम्हें पता है,ग्रीन गार्डन वाले ने अपना हुलिया ही बदल ही दिया।वो लिली वाला वास हटा दिया है,और तो और अब इमरती भी नहीं बनती वहां पर। पर्दों का रंग भी हरा कर दिया गया है, बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता।पान वाला रघु अब भी वहीं दुकान लगाता है।

पता नहीं क्यों,अब पान खाने का मन नहीं करता।तुम गए तो ऐसे गए कि मेरे सारे शौक ,स्वाद लेकर ही चले गए।तुम्हारे सामने कभी बोल नहीं पाई पर अब कहती हूं”तुम ठीक कहते थे जी,जीवन साथी की जगह कोई नहीं ले सकता।खून के रिश्ते से भी बड़ा जन्मों का रिश्ता होता है।तुम्हारी छाया में बच्चों ने अपने बचपन की सुखद स्मृतियां संजोकर रख ली है।तुम्हारी तरह तुम्हारे बच्चे भी बिल नहीं देखते।मुझे हमेशा खुश रखने की कोशिश करतें हैं।मैं उनसे तो नहीं कह सकती ना कि,जीवनसाथी के ना होने का दुख कोई नहीं बांट सकता ,यहां तक कि अपनी औलाद भी नहीं।”

प्रभा बोलती जा रही थी और गालों पर आंसू लुढ़क रहे थे।तभी गर्दन पर गर्म बूंदों का स्पर्श महसूस हुआ।पीछे बेटी खड़ी थी,पीछे से गले में बांहें डालकर वह भी रो रही थी।बेटियां सहज ही अनुभव कर पातीं हैं मां के अन्तर्मन की पीड़ा।

शुभ्रा बैनर्जी 

#जीवनसाथी के ना होने का दर्द कोई नहीं बाँट सकता

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