शुभ विवाह – आरती झा आद्या : Moral Stories in Hindi

पत्नीभक्त केदारनाथ जी जब से सेवानिवृत्त हुए थे, जीवन का केंद्र में बस दो ही चीज़ें थीं—सुबह की चाय पर पत्नी के साथ मोहल्ले की खबरें सुन कर उस पर टीका-टिप्पणी करना और बेटी तान्या के लिए योग्य वर की तलाश। वह चाहते थे कि तान्या का विवाह एक ऊँची पोस्ट के अधिकारी से हो—कुछ-कुछ उनके अपने प्रतिबिंब जैसा ही वो चाहते थे।

लेकिन तान्या… तान्या तो बिल्कुल अपनी माँ की छाया थी। अपनी माँ की तरह ही उच्छ्रंखल और जिद्दी स्वभाव लड़की थी वो। खुद को सही समझना और पूरी दुनिया को गलत साबित करना दोनों माँ-बेटी का प्रिय शगल था।

पिता की इच्छा के विपरीत माँ की शह पर तान्या ने अपने होम टाउन से महानगर आकर टेली मार्केटिंग में नौकरी पकड़ ली थी। घरवालों की नज़र में ये महज़ ‘अनुभव’ था, शादी से पहले थोड़ा-बहुत बाहर की दुनिया देखना। पर तान्या के लिए यह नौकरी उसकी निजी स्वतंत्रता की पहली सीढ़ी थी।

इधर कुछ महीनों से तान्या विवाह की चर्चा तेज़ हो चुकी थी। केदारनाथ जी ने अपने पुराने मित्र संजीव जी के बेटे, आयुष को बचपन में देखा था और काफ़ी दिनों सम्पर्क में नहीं रहने से उनके बारे में ज्यादा कुछ पता नहीं था, संजीव की याद आते ही उनके खोज बीन में संजीव जी का

बेटा आयुष पढ़ा-लिखा, सरकारी अफ़सर और उनके जैसा ही ऊँचे रसूख वाला निकला। संजीव जी को भी यह रिश्ता जम गया था। आयुष को तान्या की तस्वीर भेजी गई। वह तस्वीर देखकर मुस्कराया — “देखने में तो स्मार्ट है।”

होली का डर  – बेला पुनिवाला   

लेकिन जब उसने अपने रूममेट अर्जुन को फोटो दिखाई, अर्जुन अचानक चुप हो गया। उसने दो बार फोटो देखा और धीमे स्वर में बोला, “मुझे भ्रम हो रहा है शायद, पर ये लड़की… कहीं मैंने इसे देखा है।”

आयुष ने चौंककर पूछा, “कहाँ?”

“शायद हमारी कंपनी में थी। किसी के साथ लिव-इन में रहती थी। बाद में सुना कि इसने उस लड़के को छोड़ किसी और लडके से कोर्ट मैरिज कर ली और जिस लड़के से इसने शादी की, वो लड़का ऑफिस में चपरासी था।”

आयुष की रात करवटों में बीती। संदेह की एक फाँस उसके मन में गड़ गई थी। मन में उलझनें थीं, अब सच्चाई जानना भी ज़रूरी था और उसी बेचैनी में एक सप्ताहांत पर वह बिना बताए उस महानगर पहुँच गया।

पहले ऑफिस की जानकारी ली, फिर उस इमारत की, जहां तान्या पहले रहती थी। धीरे-धीरे सच सामने आया — हाँ, तान्या पहले एक लड़के के साथ लिव-इन में थी और बाद में किसी और लड़के से कोर्ट मैरिज कर ससुराल में रह रही थी, लड़का वही किसी कंपनी में चपरासी था। आयुष को झटका ज़रूर लगा, लेकिन वह चुपचाप वापस लौट आया।

उसके भीतर एक द्वंद्व चल रहा था — तान्या जैसी सुंदर और आत्मनिर्भर लड़की को जीवनसाथी बनाना चाहता था, लेकिन अब आयुष को समझ नहीं पा रहा था कि ऐसी क्या बात है जो कि केदारनाथ जी शादीशुदा बेटी के लिए लड़का ढूंढ़ रहे हैं।

जीवन का संघर्ष – सुभद्रा प्रसाद

आयुष अपने माता-पिता से तान्या से सबके सामने मिलने की इच्छा जताता है। नियत तिथि पर दोनों परिवार मिले। केदारनाथ जी ने अपना सबसे सुंदर कुरता पहना, निर्मला जी ने खास साड़ी निकाली और तान्या हल्के गुलाबी रंग के सूट में सजी थी — सादगी में गरिमा की प्रतिमूर्ति लग रही थी। केदारनाथ जी और सुमित्रा देवी ने उत्साहपूर्वक मिठाई मंगवाई, उन्हें लगा कि उनका दोस्त संजीव विवाह की तारीख तय करने के लिए मिलना चाहता है। 

केदारनाथ की पत्नी ने हँसते हुए कहा, “अब शुभ मुहूर्त निकाला जाए, विवाह तो तय है ही।”

उनकी बात सुनकर आयुष ने धीरे से पानी का गिलास मेज़ पर रखा।

“एक बात कहनी है,” उसने कहा।

सबकी नज़र आयुष की ओर उठ गई। 

“आंटी मैं तान्या जी के अतीत के बारे में बात करना चाहता हूँ। आपने हमसे यह बात छुपाई कि वह पहले लिव-इन रिलेशनशिप में थीं और अब विवाहिता है।” केदारनाथ की पत्नी की बात सुनकर आयुष ने बिना लाग-लपेट के अपनी बात सबके समक्ष रखी।

आयुष के मुँह से ये सुनते ही वहाँ सन्नाटा छा गया, जैसे दीवारों ने भी साँसें रोक लीं। तान्या का चेहरा पीला पड़ने लगा।

केदारनाथ जी की आँखें फैल गईं, “ये… ये क्या कह रहे हो बेटा?”

तान्या की आँखें झुक गईं, स्वर काँपता था—“मैं उस रिश्ते से निकलना चाहती थी। तलाक की प्रक्रिया जारी है। लगा कि तलाक हो जाने के बाद अतीत को बताने की आवश्यकता नहीं रहेगी।”

सन्नाटा अब पीड़ा की स्याही में भीगने लगा था। केदारनाथ जी और पत्नी के चेहरे पर शर्मिंदगी, विस्मय और चोट के भाव उभर आए।

अन्तिम इच्छा  – माता प्रसाद दुबे

संजीव जी उठे। उनका चेहरा कठोर नहीं था, पर निर्विकार था।

संजीव जी ने गहरी साँस ली। फिर बोले, “केदारनाथ जी, जिस बेटी के विवाह की खबर आप लोगों को भी कानोंकान नहीं हुई, इसका अर्थ तो यही हुआ कि आपकी बेटी ने विवाह को एक प्रयोगशाला बना दिया है। हम विवाह नहीं, शुभ विवाह चाहते थे — जहाँ विश्वास हो, सरलता हो, मर्यादा हो। हमारे लिए अब यह रिश्ता संभव नहीं है।”

संजीव जी उठ खड़े हुए। उन्होंने नज़रें तान्या पर डालीं, फिर बोले, “मैं किसी के अतीत पर उंगली नहीं उठाता, लेकिन झूठ पर खड़ा हुआ रिश्ता… शुभ नहीं हो सकता।”

केदारनाथ जी और उनकी पत्नी जैसे जम गए। वर्षों से वे पड़ोस की बहुओं, रिश्तेदारों की बेटियों और समाज की हर तलाकशुदा और स्वतंत्र लड़की को आँखों से तोलते आए थे। बातें बनाना, कटाक्ष करना और दूसरे के रिश्ते तोड़ने में रुचि रखना — उनके लिए जैसे सामान्य बात हो चुकी थी।

अब उसी सामाजिक कटघरे में उनकी बेटी खड़ी थी।

केदारनाथ जी अवाक् थे। वे दोनों पति-पत्नी जो हमेशा पड़ोस की बहुओं की कमियाँ गिनाया करते थे, दूसरों की बेटी को विवाह का ज्ञान दिया करते थे, आज उनकी नजरें झुकी हुई थी और अपनी बेटी के जीवन में अंधेरा छाता देख उसे ज्ञान देने में खुद को असमर्थ महसूस कर रहे थे। सुमित्रा देवी—जो अक्सर पड़ोस की बेटियों को ‘संस्कारों’ का पाठ पढ़ाती थीं, छोटी-छोटी बातों पर तलाक का अपवाह उड़ा देती थीं, दूसरों के घरों में बैठ कर मीठी-मीठी बात कर आग लगा देती थीं, आज फूट-फूटकर रो रही थीं। आज उनकी बेटी एक ऐसा दर्पण बन गई थी जिसमें उनका समूचा आचरण, उनके पूर्वाग्रह, उनके निर्णय… सब नग्न खड़े थे।

सूनी गोद – नंदिनी

तान्या चुपचाप उठी और अपने कमरे में चली गई।

न कोई शब्द, न कोई शोर।

बस अधूरे रिश्ते की सिसकती साँझ उस घर में उतर आई।

किसी ने कुछ नहीं कहा। किसी में कोई संवाद नहीं हुआ, कोई तर्क-वितर्क नहीं हुआ। बस अधूरी भावनाएं और एक अधूरी शाम ही आज के हिस्से में आई।

घर में सबकुछ था—तथाकथित भव्यता, शिक्षा, प्रतिष्ठा…

बस एक ही चीज़ नहीं थी—”शुभ”।

आरती झा आद्या 

दिल्ली

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