होली का डर  – बेला पुनिवाला   

 वैसे तो होली रंगो का त्यौहार है, खुशियों का त्यौहार है, हर किसी को होली का त्यौहार बहुत ही पसंद है। होली के दिन हर कोई एक-दूसरे पे कलर लगाता है। लोग नाचते है, गाते है, यहाँ तक की भगवान् श्री कृष्ण को भी ये होली का त्यौहार बहुत पसंद है। 

        मगर पता नहीं मुझे पहले से ही होली का त्यौहार इतना पसंद नहीं, मेरे घर में भी कोई इतना होली नहीं खेलता, मुझे होली के रंगो से डर लगता है, मुझे होली में रंगे हुए उन चेहरों से डर लगता है, उस दिन में भूल से भी घर से बाहर नहीं निकलती, यहाँ तक की जब भी स्कूल, टूशन और कॉलेज में होली मनाई जाती, तब मैं होली के रंगो से बचने के लिए कोई भी बहाना बना लेती, मगर घर से बाहर नहीं जाती। मैं होली के दिन अपने आप को एक कमरें बंद कर के रखना चाहती क्योंकि मुझे उस दिन हर पल इस बात का डर लगा रहता, कि कहीं कोई आकर मुझे होली के रंगो से रंग ना दे। पता नहीं क्यों लेकिन बस यूहीँ, मुझे होली के रंग और रंगो से भरे चेहरे पसंद नहीं। 

       दिन गुज़रते गए, त्यौहार आते-जाते रहे, मैं बड़ी होती गई, मेरी शादी हो गई, मेरे पति को भी पता है, कि मुझे होली के रंगो से रंगना पसंद नहीं, मैं कभी होली खेलती ही नहीं हूँ, इसलिए मेरे पति भी मुझे कभी भी होली खेलने के लिए फाॅर्स नहीं करते। मेरी एक प्यारी सी गुड़िया भी है, जिसका नाम मैंने ही बड़े प्यार से आनंदी रखा था। उसका दाखिला हम ने एक अच्छे से नर्सरी स्कूल में कराया। पहले तो मेरी आनंदी स्कूल जाते वक़्त बहुत रोया करती थी, वह मुझ से एक पल भी दूर नहीं रह सकती थी और ना मैं उस से दूर रह सकती, उसके साथ कभी-कभी मैं भी रो देती।   

        होली का त्यौहार फिर से आया, आनंदी के नर्सरी स्कूल में भी उस दिन होली सेलिब्रेशन था, सब बच्चे और टीचर्स भी होली के रंगो से खेलने लगे, एक-दूसरे पे रंग लगाने लगे, स्कूल की छुट्टी का वक़्त हुआ तो सब घर जाने लगे, आनंदी के ऑटो वाले ने टीचर्स से कहा, कि आज अब तक आनंदी नीचे आई नहीं, टीचर्स ने सब बच्चों को चेक किया, मगर सच में आनंदी कहीं नहीं दिखी, इसलिए टीचर ने मुझे फ़ोन कर के बुलाया और कहाँ कि स्कूल से एक भी बच्चा बाहर नहीं गया, तो आपकी आनंदी कहाँ गई ? 




      मैं अपना सारा काम छोड़-छाड़ के स्कूल गई, टीचर्स से बात की, सब आनंदी को ढूंँढने में लग गए, मैंने दो बार आनंदी के क्लास में भी जाकर चेक किया, मगर वह कहीं नहीं दिखी, मैं एकदम घबरा गई, एक तो उस दिन होली की वजह से सब के चेहरे रंगो से रंगे हुए थे, मुझे सब को देखते हुए खुद डर लग रहा था। मेरे दिल की धड़कन तेज़ होने लगी, मेरा मन नहीं माना, मुझे बार-बार यहीं लगता, कि मेरी आनंदी यही है, मैं फिर से एक बार आनंदी के क्लास में गई, उसे आवाज़ लगाई आनंदी-आनंदी, कहाँ हो तुम ? तुम्हें डरने की कोई ज़रूरत नहीं है, देखो तुम्हारी ममा तुमको लेने आई है, तभी धीरे से आवाज़ सुनाई दी, ” मम्मी-मम्मी “। मैंने पीछे मुड़ के देखा, तो आनंदी क्लास में सब से पीछे वाली बेंच के नीचे छुप के बैठी हुई थी, उसके पास जाकर मैंने उसे बाहर निकाला, अपने गले से लगा लिया, हम दोनों रोने लगे।  पीछे से टीचर्स भी क्लास में आ गए, टीचर्स ने आनंदी से पूछा, कि तुम यहाँ बेंच के नीचे क्या कर रही थी ? 

आनंदी ने रोते हुए कहाँ, कि मेरे दोस्त मुझे कलर लगाने आ रहे थे इसलिए मैं यहाँ बेंच के नीचे छुप गई थी, ताकि मुझे कोई कलर नहीं लगा सके, आनंदी की बात सुनकर सब हँसने लगे। उसके साथ एक बार मेरी भी हँसी छूट गई। मुझे वो पल याद आने लगा, जब मैं भी ऐसे ही रंगो से डरा करती थी और कहीं कोई मुझे रंग ने दे, इसलिए मैं भी घर में छुप जाया करती, अपने सारे दोस्तों को भी कह देती, कि ” हम सब होली पे बाहर जा रहे है, ताकि कोई मुझे रंग लगाने घर ना आए। “

      उसके बाद घर जाकर मुझे महसूस हुआ, कि आज मेरी आनंदी ने भी शायद वहीं महसूस किया जो मैं महसूस करती आई हूँ। ये सोच आँखों में आंँसू के साथ मेरी हंसी भी रूकती नहीं थी। घर में ये बात जब सब को पता चली तो, घर में भी सब हम पे हँसने लगे। 

       तो दोस्तों, सब के लिए तो होली का त्यौहार रंगो का और खुशियों का त्यौहार है, मगर क्या करे, कि वहीं मेरे और मेरी बेटी के लिए होली डर है। 

 स्व-रचित 

सत्य घटना पर आधारित  

बेला पुनिवाला  

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