सम्मान की सूखी रोटी : डाॅ संजु झा : Moral Stories in Hindi

मोहन बाबू का मन आज बहुत ही व्यथित और विचलित है। बार-बार पत्नी के उलाहनों से उनका ह्रदय विदीर्ण हो उठा है। सम्मान की सूखी रोटी के समक्ष उन्होंने पैसों की कभी भी परवाह नहीं की।उनके मन में आरंभ से गुरु के प्रति सम्मान की अवधारणा बनी हुई थी। उन्हें ज्ञात था कि गुरु अज्ञान के अंधकार से निकालकर ज्ञान के प्रकाश की ओर ले जाता है। हमारे शास्त्रों में भी गुरु का स्थान ईश्वर से भी बड़ा है। कबीरदास जी ने भी कहा है-‘गुरु गोविंद दोऊ खड़े,काको लाॅंगू पाॅंव,

बलिहारी वो गुरु, जिसने दियो गोविंद बताऍं।

अर्थात ् गुरु का ही स्थान बड़ा है।गुरु ही ईश्वर के बारे में ज्ञान देता है।’

परन्तु आज पत्नी के ताने सुनकर उन्हें गुरु के बारे में सारी बातें बेमानी प्रतीत हो रहीं थीं।

पत्नी रेखा ने उन्हें ताने मारते हुए कहा-“सारी उम्र सम्मान की सूखी रोटी खाने की बात करते रहे।अब बेटी की शादी और बेटे की पढ़ाई तुम्हारे आदर्शों से होगी?बेटी की शादी सिर पर आ गई है।एक सम्मानजनक शादी करने की भी तुम्हारी हैसियत नहीं है! मुफ्त में ज्ञान बांटते रहे।अब सोचो कि बेटी की शादी कैसे होगी?”

समान अधिकार – स्नेह ज्योति

मोहन बाबू ने पत्नी की बातों का कोई जबाव नहीं दिया। चुपचाप बिस्तर पर आकर लेट गए।आज सचमुच वे खुद को असहाय महसूस कर रहे थे। उन्हें अपना अस्तित्व बौना महसूस हो‌ रहा था।लेटे-लेटे  मन अतीत की गलियों में विचरण करने लगा।काफी पढ़े-लिखे होने के बावजूद उन्हें सरकारी नौकरी नहीं लगी। परिस्थितियों से समझौता करते हुए उन्होंने  एक निजी स्कूल में पढ़ाना शुरू कर दिया। गाॅंव से पत्नी और

दोनों बच्चों को शहर ले आऍं। बड़े शहर में इतनी कम तनख्वाह में परिवार का गुजर-बसर होना मुश्किल था। स्कूल के बाद वे घर में ही बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने लगे।जो बच्चे जितनी फीस देते थे,उतनी ही ले लेते थे।

उन्हें ‌बच्चों को ज्ञान देने में संतुष्टि मिलती थी। उनके पास एक कुशाग्र बुद्धि का बालक नितिन पढ़ता था। नितिन कभी भी समय पर पूरे पैसे नहीं देता था।मोहन बाबू के एक शिष्य ने उन्हें बताया -“सर! नितिन के पास पैसों की कमी नहीं है। उसके पिता तो उसके लिए पूरे पैसे देते हैं, परन्तु उसकी सौतेली माॅं पैसे रख लेती है।”

अगले दिन नितिन ने निराश स्वर में कहा -“सर! मैं कल से ट्यूशन पढ़ने नहीं आऊॅंगा।मेरी माॅं कहती हैं कि स्कूल के बाद खुद से पढ़ो। ट्यूशन पढ़ने की कोई जरूरत नहीं है!”

नितिन की नम ऑंखें मोहन बाबू की अंतस तक को भिंगो गईं।उसके पढ़ने की जीजिविषा को महसूस कर उसके सिर पर हाथ रखकर उन्होंने कहा -“बेटा!इस बार तुम दसवीं की परीक्षा दोगे,इस कारण मेहनत बहुत जरुरी है।तुम मेरे पास पढ़ने आ जाया करो। पैसों की कोई बात नहीं है। शिक्षा मेरे लिए व्यवसाय नहीं है। मैं तो बस ज्ञान का पुजारी हूॅं। सम्मान की सूखी रोटी मिल जाती है,यही मेरे लिए बहुत है।”

नितिन को मुफ्त में पढ़ाने की बात सुनकर उस दिन उनकी पत्नी ने कितना हंगामा किया था! जोर-जोर से चिल्लाकर कह रही थी -“आप बहुत महान गुरु बनने की कोशिश कर रहे हो।घर का और बच्चों का खर्च कैसे पूरा होता है, मैं ही जानती हूॅं! अपने बच्चों के भविष्य की आपको कोई चिन्ता नहीं है।”

सौतेली माँ – पूनम अरोड़ा

उस दिन मोहन बाबू ने पत्नी को शांत करते हुए कहा था -“रेखा!अभी बच्चे बहुत छोटे हैं।अभी से उनके भविष्य की चिंता क्यों? परमात्मा कोई -न-कोई मार्ग निकाल ही देंगे।”

जब तब मोहन बाबू को अपनी पत्नी की जली-कटी सुननी ही पड़ती थी, परन्तु वे अपने ज्ञान बाॅंटने के लक्ष्य से कभी नहीं भटके।पूर्ण समर्पण भाव से बच्चों को पढ़ाया करते थे।कुछ आर्थिक  रुप से कमजोर विद्यार्थी पैसे देने में असमर्थ  रहते थे, उन्हें भी उसी लगन भाव से पढ़ाया करते थे। दसवीं में अच्छे नम्बरों से पास होने के बाद नितिन दिल्ली पढ़ाई करने चला गया। कुछ समय बाद उसके पिता का भी तबादला अन्य शहर में हो गया।

समय के साथ उनकी बेटी स्नातक कर चुकी थी।बेटा भी इंटर में पढ़ रहा था।उनकी सुंदर और सुशिक्षित बेटी पूनम के लिए अच्छा रिश्ता आया। उन लोगों ने दहेज की कोई माॅंग नहीं रखी।  पूनम को आगे पढ़ाने के लिए  भी राजी थे।मोहन बाबू भी यह सोचकर खुश थे कि बड़े शहर में बेटी अपने भविष्य को  अच्छी तरह आकर दे सकेगी।

उनकी पत्नी रेखा ने फरमान जारी करते हुए कहा था -” कान खोलकर सुन लो।भले ही लड़केवालों ने दहेज की कोई माॅंग नहीं रखी है, परन्तु बिटिया को खाली हाथ तो विदा नहीं कर सकते हैं। बारातियों की खातिरदारी भी तो अच्छे से करनी होगी।सोच लो कैसे करोगे? मैंने अपने सपनों को चुप्पी के तालों के पीछे कैद कर लिया, परन्तु अब बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ नहीं होने दूॅंगी।”

मोहन बाबू के मन की उदासी गहराने लगी थी।जैसे किसी  शेर की गिरफ्त में आकर  हिरण का शरीर छटपटाने के बाद  सुन्न हो जाता  है,वैसा ही उन्हें आज महसूस हो रहा था।पत्नी रेखा की बात तो सही थी, परन्तु पैसे कहाॅं से आऐंगे,यही मोहन बाबू को नहीं समझ आ रही थी?  उसी समय  उनकी तंद्रा  भंग करते हुए पत्नी ने चाय के लिए आवाज दी।वे अतीत से वर्त्तमान के धरातल पर आ चुके थे।चाय पीकर पत्नी से कहा -“रेखा! चिन्ता मत करो। इस शहर में मेरी जान-पहचान के बहुत लोग हैं। कुछ-न-कुछ  इंतजाम हो जाएगा।”

माफी – नीलिमा सिंघल

 पत्नी को सांत्वना देकर घूमने के लिए पार्क निकल गए। वहाॅं पार्क में हल्की -हल्की ठंढ़ी बयार बह रही थी। बच्चे पार्क में धमा-चौकड़ी मचा रहे थे। चारों तरफ क्यारियों में मनभावन रंग-बिरंगे फूल खिले हुए थे, परन्तु उनके बेचैन मन को इन खुबसूरत दृश्य भी नहीं लुभा पा रहे थे।कुछ देर तक पार्क में बेचैन से इधर-उधर टहलते रहें , फिर घर लौट आऍं।

घर पहुॅंचते ही पत्नी ने एक लिफाफा पकड़ाते हुए कहा -“देखो!कुछ देर पहले डाकिया दे गया है।”

मोहन बाबू ने उत्सुकता से लिफाफे को उलट-पलटकर देखा।भेजनेवाले का नाम स्पष्ट नहीं दिख रहा था। उन्होंने लिफाफा खोला,तो एक चिट्ठी नीचे गिर पड़ी। उन्होंने उठाकर देखा तो चिट्ठी के साथ पाॅंच लाख का चेक भी था। चिट्ठी भेजनेवाले का नाम नितिन समझ में आ चुका था।वे उत्सुकतावश चिट्ठी पढ़ने लगें।

आदरणीय सर

मैं आपका शिष्य नितिन काफी समय के बाद आपको याद कर रहा हूॅं, इसके लिए क्षमा चाहता हूॅं। दसवीं तक तो आपने मेरी काफी मदद की,जिसकी बदौलत मैं आज ऊॅंचे मुकाम पर पहुॅंच गया हूॅं ।जैसा कि आपको मालूम है कि मैं दसवीं काफी अच्छे नम्बरों से उत्तीर्ण हुआ था।आपके यहाॅं मिठाई लेकर भी गया था।आपने मुझे आशीर्वाद देते हुए कहा था -” नितिन बेटा! मुझे विश्वास है कि सफलता तुम्हारे कदम चूमेगी।तुम ज़िन्दगी में एक सफल और अच्छे इंसान बनोगे।”

दसवीं के बाद मेरे पिताजी ने मुझे पढ़ने के लिए बाहर भेज दिया। बारहवीं के बाद मैंने अच्छे काॅलेज से इंजीनियरिंग की पढ़ाई की और उसके बाद नौकरी करने विदेश चला आया। विदेश में अपने देश के साथ-साथ आपकी भी बहुत याद आती थी।एक-दो बार स्वदेश आया भी, परन्तु समयाभाव के कारण आपसे मिल नहीं पाया।इस बार आने पर मैंने आपके बारे में पूरा पता लगाया।मुझे पता चला कि आपकी बिटिया (मेरी बहन) की शादी है और आप आर्थिक परेशानी से भी जूझ रहें हैं।

मैं अपनी पत्नी और बच्चों समेत पूनम बहन की शादी में सम्मिलित होने आ रहा हूॅं।आप गुरु दक्षिणा समझकर मेरी मुॅंहबोली बहन की शादी में खर्च करेंगे।इसे अन्यथा नहीं लेंगे।गुरु तो अनमोल होते हैं।गुरू ही वह कुम्हार है,जो अपने शिष्य को नए ढ़ाॅंचे में गढ़ सकता है, उसमें आत्मविश्वास भर सकता है।सच ही कहा गया है कि  सारी पृथ्वी को‌ कागज और जंगल को कलम, सातों समुद्र को स्याही बनाकर लिखने पर भी गुरु के गुण नहीं लिखे जा सकते हैं।मेरे लिए आप ऐसे ही अद्भुत, अतुलनीय, श्रद्धेय गुरु हैं।विशेष मिलने पर।

माफी – नीलिमा सिंघल

आपका शिष्य -नितिन!

पत्र पढ़ते -पढ़ते मोहन बाबू की ऑंखों से अश्रु धारा प्रवाहित होने‌ लगी।बगल में बैठी उनकी पत्नी को एहसास हो चुका था कि  पति द्वारा नि:स्वार्थ भाव से 

 दी हुई शिक्षा ने उनके परिवार के आत्मसम्मान को बचा लिया।मोहन बाबू और उनकी पत्नी को ऐसा महसूस हो रहा था, मानो मरुस्थल में अचानक से हरियाली लहलहा उठी हो। पत्नी ने उनसे कहा -“सच में सम्मान की सूखी रोटी में बहुत ही ताकत है!”

 

समाप्त।

लेखिका -डाॅ संजु झा। स्वरचित।

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