सौतेली माँ – पूनम अरोड़ा

आरव जब छैः वर्ष का था तो दुर्भाग्यवश  उसकी माँ  का देहांत  हो गया। वह छोटा था किन्तु  माँ  के विछोह का दर्द  उसमें  उन सबसे कहीं  ज्यादा था जो उसकी माँ  के लिए शोक व्यक्त  करते थे। वे शोक  करने से अधिक उसके लिए अधिक संवेदना  प्रकट करते थे।

“अब इस बेचारे  का क्या होगा,अभी इस की उम्र  ही क्या है, माँ  के बगैर कैसे रह पाएगा?
माँ के बगैर बच्चे  की क्या दुर्गति होती है?”
इस तरह के ढेरों  किस्से, चर्चा,  विवेचना ।
एक तो बेचारा वैसे ही मातृ शोक से व्याकुल—
उस पर इस तरह की बातें।

पिता भी शुरू से ही अधिक स्नेही नहीं  थे कि स्वयं को उनकी गोद में  डालकर इस दर्द  से मुक्त  हो पाता।

थोड़ा बहुत  दादी का ही सहारा था। उन्होंने  ही आजकल  उसकी देखरेख  का दायित्व  लिया हुआ था।

इतना छोटा होने पर भी वो समझ सकता था कि दादी में  स्नेह -वात्सल्य  की अपेक्षा  एकाधिकार  प्रदर्शन  अधिक  था। उनके प्यार में उसे मातृत्व  के  सुकून की खुली छाँव  की बजाए अधिकार  व जिम्मेदारी  का फर्ज  अधिक  महसूस  होता। इस संरक्षण  में  उसे प्यार और सुरक्षा  तो मिलती लेकिन  वो खुल के साँस नहीं  ले पाता। मुक्ति  का एहसास  नहीं  था। उन्होंने  उसे अपने अधिकार क्षेत्र  के बंधन में  और अनुशासन  की परिधि  में  जकड़ा हुआ था।  उनकी इस जकड़ से वह माँ के साथ बिताए उन्मुक्त स्नेहसिक्त  पलों  को याद करके और  भी कसमसाता  छटपटाता।

तभी धीरे धीरे घर में  पापा की दूसरी शादी की
सुगबुगाहट शुरू हो गई। उसे सुनकर अच्छा  लगा कि घर में  “नई माँ”  आएगी और उसे फिर से वो पहले वाले हँसते खेलते दिन प्राप्त हो जाएँगे लेकिन वो हैरान था का नाते रिश्तेदार, पड़ोसी आदि की प्रतिक्रिया  भिन्न ही थी इस परिपेक्ष्य  में  — वे सब लगभग एक जैसी बात करके उसके प्रति  सहानुभूति  प्रकट कर रहे थे —-“हाय बेचारा !!! सौतेली माँ  पता नहीं  किस हाल में  रखेगी, क्या हाल होगा ?

इससे तो बिना माँ  के ही रहता। जब तक दादी है तब तक फिर भी सहारा  है बाद में  क्या होगा? बेचारा मासूम !!!!

उन सबकी इस तरह की बातों  ने मासूम  आरव ने  मन  में  “सौतेली माँ “की एक मनगढ़ंत   छवि बना ली थी जो किसी फिल्म  या सीरियल के खलनायिका  जैसी थी।

उसकी माँ  के  आने की “खुशी” अब “डर” में  बदल गई थी। सबसे ज्यादा दादी ही उसे  नई माँ  से बचकर रहने व उससे दूरी बना कर रखने की हिदायत देती रहतीं।

पापा की शादी हो गई और नई माँ  भी घर आ गई। उसे देखने  से वो कहीं  भी खलनायिका  जैसी नहीं  लगी। बहुत  खूबसूरत  और प्यारी थीं। उनका व्यवहार  भी बहुत  अच्छा  लगा उसे।

उन्होंने  पहले ही  दिन उसे बुलाकर गोद में  बिठाया, अपने साथ ही मनुहार करके  खाना खिलाया। अपने मायके से लाए बहुत  से कपड़े, गिफ्टस और खिलौने उपहार  स्वरूप  दिए।बहुत  सी छोटी छोटी बातें  पूछीं बताईं।

उसे यह सब बहुत  अच्छा  लगा लेकिन मन में
बसे डर ने उसे उनके साथ ज्यादा खुलने नहीं  दिया और फिर दादी का डर भी तो था जो उसकी माँ  के साथ ज्यादा निकटता पसंद नहीं  कर रहीं  थीं।

शुरू शुरू में  माँ  ने उसकी जिम्मेदारी  अपनी इच्छा  से लेनी चाही। उससे उसकी पसंद का नाश्ता खाना पूछकर बनाना, उसे नहलाना, स्कूल भेजना, उसे दूध देना, होमवर्क  कराना। वह जब इधर उधर घूम कर या यहाँ  वहाँ  बैठकर समय व्यतीत  करता तो वो अपने पास बुलाकर पढ़ाने की ही कोशिश करतीं।

इन सबसे दादी को धीरे धीरे अपना” वर्चस्व”  खोता नजर आने लगा साथ ही वह पोते को लेकर नई बहू पर विश्वास  भी नहीं  कर पा रहीं थी। ऐसे में  उन्होंने  इन सब बातों  के प्रति
अपनी नापसंदगी जाहिर की। बहू को उन्होंने
आरव के मामले में दखल न देने को कहा।
पिता को  भी अपनी माँ  के इस फैसलें से कोई
आपत्ति  न थी।

वह “सगी माँ”  तो थी नहीं  कि उसकी परवरिश  के सम्बन्ध  में  अपनी इच्छा  थोप सकतीं।




सास व पति का रूख समझते हुए वह धीरे- धीरे आरव  के ऊपर से अपना अधिकार
छोड़ने लगी व दादी ने पुनः उसे अपने अधिकार क्षेत्र की सीमा रेखा में  संरक्षित  कर लिया।

माँ  से अपने आप एक दूरी बनती चली गई और एक झीनी अदृश्य  दीवार दोनों  के बीच खिंचती चली गई।

समय बीतता गया,स्थितियाँ  बदल गईं। दादी भी अब नहीं  रही। उसके एक सौतेला भाई और बहिन हुई पर वो दीवार हमेशा  बनी रही।

वह बड़ा हो गया था और अंतर्मुखी  स्वभाव  होने के कारण जैसी स्थति चल रही थी उसने उसमें कोई  बदलाव की चेष्टा नहीं  की।

पिता तो शुरू से ही निरपेक्ष  व्यावहारिक  से थे,
बच्चों  की जरूरतें  आवश्यकताएँ  पूरी कर देना व पढ़ाई लिखाई से सम्बंधित  कुछ सवाल जवाब  कर लेना ही उनकी कर्तव्य पूर्ति  की इतिश्री थी अतः पिता से उसका दुनिया का ही नाता था  ह्रदय  का नहीं। कोई शिकायत  नहीं  थी तो कोई  लगाव भी नहीं  था।

माँ  से बचपन की स्थितियों  की वजह से कोई जुड़ाव नहीं  हो पाया लेकिन  उन्होंने  कभी उससे दुर्व्यवहार  नहीं  किया।

दादी के जाने के बाद उसकी खाने पीने, पहनने, शिक्षा  सम्बन्धी  आवश्यकताएं बिना कहे पूरी हो जातीं। उसका बैग, जूते वगैरह फट जाते तो उसके स्थान पर अगले दिन  नये पड़े मिलते। कपड़े  हमेशा धुले हुए प्रेस करते मिलते। वह जिस भी समय घर आता, माँ  चाहे सो रही होती,उठकर गरम रोटी बना कर देती। बीमार होने पर उसके इलाज, समय पर दवा देने, पथ्य और आराम का पूरा ख्याल रखा जाता।

बस परस्पर  संवाद संभाषण ही न हो पाता।बहुत  जरूरत  होने पर ही वह माँ  या भाई बहनों  से कोई  बात करता। उसे  उनसे कोई  शिकायत या ईगो नहीं थी बस एक हिचक या झिझक जिसे वो तोड़ नहीं  पाया न ही वे उससे  खुल पाए।

जब कभी बच्चे  अपनी माँ  से स्कूल की बातें  शेयर कर रहे होते या उनसे कुछ लेने की जिद करते या माँ  से डाँट खाते तो आरव का मन हुलस उठता। उसे लगता उसे सब चीजें  अपने आप क्यों  मिल जातीं  हैं, वह चाहता — वह भी जिद करे, न मिलने पर डाँट पड़े, कम नम्बर आने पर सजा मिले और वो भी अपने स्कूल की दोस्तों  की बातें  मजे लेकर सुनाए लेकिन अब वो सब संभव नहीं  लगता। बचपन में  बच्चों  को गढ़ना जितना आसान होता है वैसे बड़े  हो जाने पर नहीं। जैसे कच्ची  मिट्टी पकने पर न तो मिट्टी न ही बच्चे अपने पुराने स्वरूप  में  वापिस आ पाते हैं।

बी-काॅम करने के बाद उसका आगे पढ़ने का बिलकुल  मन नहीं  था। वह अपने लिए कोई  छोटी मोटी नौकरी तलाश कर रहा था। पिता ने भी उसकी इस इच्छा  में  कोई  व्यवधान  नहीं  डाला लेकिन वह जान गया था कि प्रत्यक्ष चाहे
उन्होंने  कुछ  न कहा  हो लेकिन  अप्रत्यक्ष  रूप  से माँ  की इसमें  सहमति  नहीं  थी।उन्होंने  पिता पर दबाव डाला कि उसे समझाएं कि उसे अभी हायर स्टडी करनी चाहिए  या कोई  प्रोफेशनल  कोर्स। अभी से यदि कोई नौकरी मिल भी गई तो वह किसी प्रतिष्ठित  कम्पनी  या प्रतिष्ठित  पद के लिए क्वालिफाई नहीं  करेगा।

उसे भी यह तर्क  उचित लगा और उसने नौकरी का विचार छोड़ कर एक अच्छे  संस्थान से एमबीए किया और उसके आधार पर ही एक अच्छी  कम्पनी में  उसका सेलेक्शन हो गया।
इसके लिए उसने मन ही मन में  माँ  को इसके लिए धन्यवाद  दिया।




कार्यकाल के दौरान ही अपने ऑफिस की एक लड़की सान्या से उसकी दोस्ती  प्रेम की परिणति  तक जा पहुँची। वह भी उसे प्यार करती थी। वह उसके माता पिता से भी मिल
चुका था और वे भी इस रिश्ते  को अपनी स्वीकृति  दे चुके थे।

बस आरव ही अपने अंतर्मुखी  स्वभाव  का होने के कारण घर में यह बात अभिव्यक्त करने से  झिझक रहा था।  आजकल करते हुए जब तक वह यह बात बताता तब तक एक दिन पिता ने उसके आगे अपने बाॅस की बेटी  इकलौती बेटी से विवाह का प्रस्ताव  उसके समक्ष रख दिया। वे इतने खुश और एक्साइटेड थे, अपने बाॅस  के प्रति इतने कृतज्ञ  हो रहे थे कि उन्होंने  अपनी इकलौती बेटी के लिए उनके बेटे को चुना। उन्होंने  कहा “तुम सोच भी नहीं  सकते कितना प्राउड फील कर रहा हूँ  मैं।
सिर्फ इसी कारण से ऑफिस  में  मेरा रेपुटेशन  इतना बढ़ गया है कि सब मेरे भाग्य से ईर्ष्या  कर रहे हैं मेरा तो प्रमोशन  पक्का है ही  और मेरी तो छोड़ो तुम्हारा  भाग्य कितनी बुलन्दी पर है, इतनी जहीन लडकी  के साथ साथ तुम उनके करोड़ों  की जायदाद के भी अकेले वारिस बनोगे ।”

उनकी खुशी ह्रदय में  समा नहीं  पा रही थी।
अब आरव को लगा कि उसे सान्या के बारे में  बता देना चाहिए। जब उसने सान्या के साथ सम्बंध के बारे में  उनको बताया तो उनका चेहरा ऐसे हो गया जैसे सूर्य पर काले बादल छा जाने से उसका उजास कालिमा में  बदल गया हो सिर्फ बादलों  की कालिमा ही नहीं बल्कि  आरव को उसकी गर्जना भी सुनाई पड़ी।
वे कह रहे थे — तुम होश में  तो हो, नहीं  हो तो आ जाओ। ये मत सोचना कि तुम निर्णय  लोगे और मैं  मान जाऊँगा। यह तो पाॅसिबल ही नहीं  है। मैं  तुम्हारा पिता हूँ  मुझे पता है क्या गलत है क्या सही। मुझे उस लड़की  के बारे में  कुछ नहीं  सुनना, वही होगा जो मैं  चाहूँगा। तुम चाहो या न चाहो मुझे कोई  फर्क  नहीं  पड़ता।”

यह कहकर दनदनाते हुए वहाँ  से निकल गए।
आरव हतप्रभ सा शून्य को निहारता खड़ा देखता रह गया। बहुत कश्मकश  असमंजस  की स्थिति थी न तो वो पिता के आगे बोल सकता थि न ही सान्या को छोड़  सकता था।
ऐसे में  उसने यही सोचा कि वह जल्द से जल्द किसी किराए के मकान का बंदोबस्त  कर वहाँ  शिफ्ट हो जाएगा और फिर सान्या से शादी करेगा। तब तक इस बारे में  कुछ न कहना ही उचित  है। अगले दिन इतवार था वह सुबह  जल्दी  ही तैयार  होकर मकान की खोज  में  निकल पड़ा था। एक जगह बात ठीक भी हो गई थी। घर लौटा तो तीन बज चुके थे, गेट खुला ही पड़ा था। अंदर गया तो माता पिता के कमरे से जोर जोर से बहस की आवाजें  आ रही थीं जो कि बंद कमरे से  बाहर तक गूँज रही थी इसलिए  उसे सुनने में  कोई  कठिनाई  नहीं  हुई।

पिता कह रहे थे “तुम उसकी तरफदारी कर शह देने की कोशिश  मत करो। वह नासमझ है तो क्या मैं  भी मूर्ख बन जाऊँ? मुझे पता है उसका हित अनहित कहाँ  है? उसके बचकाने पन में मैं  किसी भी तरह उसके सुनहरे भविष्य  के अवसर को हाथ से नहीं  जाने दूँगा ।”

माँ  की आवाज सुनाई पड़ी —
तुमने जिन्दगी  भर हर  बात को प्रैक्टिकल नजरिए से देखा है, कभी गहराई  से बच्चों  की भावनाओं, सुख दुख में झाँकने की कोशिश  की है? फायदा -नुकसान ,हित -अनहित के अलावा क्या बच्चों  की इच्छा  या खुशी का कोई  मूल्य नहीं  है?
एक तो बचपन से ही अभागा अपनी माँ  के प्यार से वंचित रहा, तुमने भी कभी उस प्यार की कमी को पूरा करने की कोशिश  नहीं  की।सौतेली माँ  समझकर मुझे भी उसके नजदीक नहीं  आने दिया। मैं  जो देख पाती हूँ  वो तुम क्यों  नहीं  देख पाते कि सबके बीच होते हुए भी वह कितना अकेला है। अपने आसपास  उसने कितनी दीवारें  खड़ी  की हुई हैं और उसी में  अकेले घुटता रहता है। वो तो उसकी समझदारी है कि इस घुटन के बीच जीते हुए भी वह किसी गलत संगत में  नहीं  पड़ा। आज जब पहली बार उसके जीवन में  खुशी की लहर आई है, वह अपने खुद  के लिए जीना चाह रहा है  तो  तुम उसके हित का वास्ता  देकर बीच में  आ गए। मैं  तुम्हें  ऐसा हरगिज़  नहीं  करने दूँगी । वह जहाँ  चाहेगा वहाँ  उसे शादी करने का पूरा अधिकार है ताकि आगे की जिन्दगी  उसे घुटी हुई  न जीनी पड़े।”

पिता की आवाज —–
“तुम  तो ऐसा  बोलोगी ही, तुम क्यों  चाहोगी कि वो एक बड़ा आदमी बने। आखिर तो उसकी सगी माँ  तो हो नहीं इसलिए  उसके भाग्य से ईर्ष्या  हो रही है तुम्हें ।”
तभी माँ  की चीखती कसकती हुई सी ,कमरे को चीरकर बाहर निकली रूंधी आवाज  उसे सुनाई पड़ी —
हाँ  मैं  उसकी सौतेली माँ  हूँ, यही सोच हमेशा से तुम्हारे  मन में  थी और है और यही उसके बाल मन में  बिठाकर तुम लोगों   ने उसके मन में  मेरे  लिए काँटा  बो दिया।
मुझे!! मुझे उससे ईर्ष्या  हो रही है ?
ठीक है आज से मैं  उसके विषय में  कुछ नहीं  बोलूंगी। तुम्हारा बेटा है तुम जानो।”

फिर कुछ देर घुटी हुई आवाज, रोने सिसकने का स्वर कमरे से आता रहा।
थोड़ी देर बाद जब पिता कहीं  चले गए तो आरव हिम्मत  करके अपने मन की बर्फ  को पिघलाकर माँ  के कमरे में  गया।
उनके चरणों  में  प्रणाम  करके बोला —
मैंने  आपको अपनी माँ  की जगह कभी नहीं  दी लेकिन आप कहीं  से भी उनसे कम नहीं  हो।
हो सकता है आज मेरी माँ  भी होती तो पिता की तरह मेरा हित अनहित ही सोचती शायद वो भी आपकी तरह मेरी खुशियों  के लिए न लड़तीं। बचपन में  मेरे ऊपर डाल दिए गए “सौतेली” शब्द के आवरण ने “माँ ” शब्द को छुपा  दिया  था। उस आवरण के पीछे से मैं  कभी आपकी  ममता और महानता को नहीं  देख पाया।

हर सौतेली माँ  के अंदर एक माँ होती है बस कहीं  पर  माँ  के ऊपर “सौतेलापन” हावी हो जाता है और “माँ”  हार जाती  है लेकिन आपके अंदर की माँ  हमेशा जीवित रही।
आप  सच में  मेरी  माँ  हैं, मुझे  माफ कर दीजिए।”

ऐसा कहते हुए आँखों से आँसू बहते जा रहे थे।
उसे अपने पैरों  से उठाते हुए, उसके आँसुओं की तरलीय नमी से  उनका मनोमालिन्य पल भर  में  ही धुल गया। बरसों  का रूका हुआ ममता का स्त्रोत फूट पड़ा और  उसका बहाव उन  दोनों  की आँखो से अश्रु आवेग के रूप में  उमड़ पड़ा।

पूनम अरोड़ा

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