समझ नही आता अम्मा कभी-कभी इतना कड़वा क्यों बोलती है ? किसी बात का सीधे जवाब देती ही नही , पूछो कुछ तो नमक मिर्च लगा के तोखे स्वर में बढ़ा चढ़ा जवाब कुछ और देती है
ये सवाल मेरे ही नही हम उम्र सभी लड़कियों के मन में आता है कि क्या इस उम्र तक आते आते औरतें इतनी चरेर हो जाती हैं कि उनकी बातों से मुलायमियत और चेहरे से मासूमियत गायब सी हो जाती है।
सोलह साल की रेखा जो बहुत ही मासूम और सुकुमार है वो अपने भीतर ना जाने कितनी अनकही और सैकड़ो अनसुलझे सवाल लिए जवानी की दहलीज पर कदम रख रही है।सच पूछा जाये तो अभी तो उसे समझने की और कदम कदम पर साथ की जरूरत है ।पर मां के इस रूखे व्यवहार ने उसके ज़ेहन में अनगिनत सवालों ने जन्म दे दिया है। जिसमें कि वो उलझती जा रही है सच पूछा जाये तो उत्साह और उमंग से भरे इस यौवन का वो उल्फ ही नही उठा पा रही है।
उसे मां को देखकर लगता है कि इस उम्र तक आते आते वो भी ऐसे ही हो जायेगी।
सोचते हुए रसोई की तरह चाय बनाने के लिए बढ़ी ही थी कि पीछे से आवाज आई जल्दी से स्कूल के लिए तैयार हो वरना देर हो जाये गी। जी मां,और उसने पलट कर देखा तो देखती है मां सिसक रही है और मुझे देखते ही झट आंसुओं को पल्लू में समेट सहज होती हुई बोली चाय बना दूं क्या?
इस पर उसने कहा , नही नही मैं बना लूंगी।तुम रहने दो आज मुझे अपने हाथ की चाय पीनी है कहती हुई वो पैन में दूध और पानी डाल गैस पर चढ़ाते हुए लाइटर हाथ में ले बर्नर पर खट से मार दिया। फिर क्या थोड़ी देर में दूध और पानी दोनों खौलने लगे जिसे देख रेखा के मन मस्तिष्क में कौधा कि इसी तरह मां का जीवन भी खौल रहा है मगर कारण नही पता ? क्योंकि चाहे कितना भी पूछा लो पर वो अपनी बातें कभी हम भाई बहनों से सांझा करती ही नहीं।
उधर मां ने भी आंगन मे पड़े रात के बर्तन को समेट नहाने चली गई और मैं चाय ले अपने कमरे में।और थोड़ी देर बाद कमरे से निकली तो मां पूजा कर रही थी। वो
कहते हैं ना कि पहले की स्त्रियां पढ़ी नही गढ़ी होती थी। वक़्त के साथ अपने आप को रिश्तों के साथ इतना सिझा देती थी कि आने वाले वक़्त में क्या होना है उसकी भी आहट उन्हें पहले ही मिल जाती थी।
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जिसमें से इसकी मां थी । थी तो अगूंठा टेक पर स्वभाव की चिड़चिडाहट के साथ बच्चों का ख्याल भी बहुत रखती थी। उसकी डाट और चिड़चिड़ाहट में भी उसकी फिक्र जो झलकती थी।
खैर हर रोज की तरह आज भी वो चाय पीकर घुसलखाने में नहाने चली गई और मां पूजा करने वो नहा कर जब तक लौटी मां ने टिफिन लगा दिया था। जिसे लेकर वो स्कूल चली गई।
पर आज उसका मन कुछ अनमना सा रहा। जिसे उसकी सहपाठी सहेली जो तकरीबन चार साल से एक साथ पढ़ रही है समझ गई। वो समझी ही नही बल्कि इशारे से पूछ भी ली।
जबकि वो खुद भी अनमनी थी। हो भी क्यों ना उसकी भी हालत कुछ उसके ही जैसी जो थी। फर्क ये था कि उसकी मां पढ़ी लिखी थी नौकरी करती थी क्लब किटी ये कह लो कि अपने मन मर्जी की मालकिन थी इसलिए खुश रहती थी। मगर चिड़चिड़ापन दोनों का एक सा था हमेशा छोटी छोटी बातों पर चिड़चिडाती और अनाप सनाप बोलती रहती थी।
इसलिए ये भी परेशान ही रहती थी पर कुछ कर नही सकती थी इसलिए चुप थी ।
पर बात चीत के दौरान पता चला कि दोनों के माओं की स्थितियां एक सी है दोनों ही पति से दुखी है ।वो बात और है कि पैसे का आभाव ना होने के कारण उन्होंने छणिक ही सही पर खुशियों का साधन ढूंढ लिया है मगर ये तो खुद को खत्म करने पर तुली है इनके जीवन में उत्साह,उमंग,खुशियों की तो जैसे जगह ही नही है।ऐसा लगता है जैसे इन्होंने खुद को विषाद के हवाले कर दिया हो।अत: उसने अपनी अपनी मा से बात करने की सोची और सही समय का इंतज़ार करने लगी ,
कुछ ही दिन में उसे ये मौका मिल ही गया एक तफाक की बात थी कि पिता जी रोज कि तरह देर रात गए भी घर नही लौटे, मां बार बार दरवाजे पर निराशा ही हाथ लगती इधर ये भी जग रही थी और ये देख उसे कोफ्त हो रही थी ,जब नही रहा गया तो मां के कमरे का दरवाज़ा नाक किया। दरवाज़ा खुलते ही वो भीतर गई और मां का हाथ हाथों में ले पलंग पर बैठते हुए बोली : वर्षो से यही करते करते थकी नही तुम ,आज भी वही सब करती हो तो वर्षो पहले करती थी
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जबकि इतने सालों में तुमने अपना सब कुछ खो दिया अपनी खूबसूरती,अपनी पढ़ाई लिखाई,अपनी उमंग ,मतलब वो सब कुछ जो तुम्हारे जीवन को जीवंत बनाते , जिसका असर हम सब के जीवन पर भी पड़ रहा।आखिर क्यों किसके लिए उस शख्स के लिए जिसने कभी तुमको तबज्जो ही नही दिया।ये जानते हुए भी कि जीवन अनमोल है दोबारा नही मिलेगा।फिर भी तुम बेवजह इसे गंवा रही हो।
अरे समझदारी तो इसमें है कि खुद को कही और खर्च करो । वहां जहां खुशियों के चार पल मिले वहां नही जहां बिना उद्देश्य जिंदगी का राम नाम सत्य हो जाये अगर खुशियां कहीं एक जगह से नही मिल रही तो कही और से ढूंढो ये थोड़े की एक को ही लेकर बैठ जाओ। आखिर तुम्हें वभी तो जीने का हक है ना फिर ये सब क्यों।
अरे! हम सब हैं,तुम्हारी पढ़ाई लिखाई है, तुम्हारा शौक है आखिर इधर अपना ध्यान क्यों नही खींचती हो।
ऐसा कहते हुए उसने मां को अपने सीने से लगा लिया।
फिर क्या जैसे ही उसने उसे सीने से लगाया उसकी आंखें डबडबा आईं।
जिसे उसने अपने पीठ पर पड़े दो चार बूंदों से महसूस किया।फिर सामने करते हुए बोली मां जीवन खत्म करने का नाम जिंदगी नही है जीने का नाम ,आगे बढ़ने का नाम जिंदगी है।
जागो और अपने अपने सपनों को पूरा करो। इसके पहले कि वो कुछ और कहती कि डोर बेल बजी तो मां खोलने चली गई और वो अपने कमरे में।
सुबह हुई उसने देखा कोई फर्क नही सब जैसे के तैसा
पर चार छह दिन में उसके दिनचर्या में जरूर परिवर्तन नज़र आने लगा।
वो सुबह उठकर रोजमर्रा के कामों के साथ खुद का भी ध्यान रखने लगी वो ये कि सलीके से कपड़े पहनने लगी और बन संवर कर रहने लगी उन्हें लिखने का बड़ा शौक था सो लिखने लगी साथ ही नई नई डिसेस भी बनाने लगी ।इस तरह उनके मरियल से चेहरे पर धीरे धीरे रौनक ने दस्तक दिया और फिर एक दिन जब उनकी रचनाओं के लिए उन्हें पारितोषिक मिला तो वो खुशी से उछल गईं ये सब देख रेखा बहुत खुश हुई कि चलो देर से ही सही पर मां ने अपने जीवन में परिवर्तन तो लाया।अब
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ऐसा भी नही था कि पति को तबज्जो नही देती ,देती थी पर अपनी खातिर भी जीने लगी थी ।और यही सच भी है कि औरों के साथ साथ खुद के लिए भी जियो । जो की उसकी बेटी की वजह से संभव हो पाया।वो उनका मनोबल ना बढ़ाती तो यकीनन ऐसे ही घुट घुट कर वो जीती और एक दिन खतम हो जाती।
यकीनन उनके जीवन में जो परिवर्तन आया उनकी बेटी की वजह से आया । वरना उन्होंने तो खुद को उदासी चिड़चिड़ापन,विषाद के हवाले कर ही दिया था।
कहानी कार
कंचन श्रीवास्तव आरज़ू
प्रयागराज