क्यों ना करूँ अभिमान – ऋतु अग्रवाल

    “भई, वाह! सुधा, बहू तो तुम हीरा चुन कर लाई हो। देखने-भालने में ख़ूबसूरत,पढ़ी-लिखी,सभ्य, सुसंस्कृत,इतनी मीठी वाणी और सोने पर सुहागा यह कि इतना बढ़िया भोजन! साक्षत अन्नपूर्णा है बहुरानी। आज तो पेट के साथ आत्मा भी तृप्त हो गई।” सुधाकर जी अपने बेटे की नई-नवेली बहू के हाथों का भोजन प्रथम बार कर रहे थे और मन भर-भर कर उसे आशीर्वाद दे रहे थे।

          “इसके लिए तो हमें मनोहर भाई साहब का शुक्रिया अदा करना चाहिए। आखिर यह रिश्ता वही तो लाए थे। हमने तो बस स्वीकृति की मुहर लगाई थी। वैसे यह बात माननी पड़ेगी कि बहू है साक्षात लक्ष्मी ही।” सुधा जी बहू की बलैया लेते हुए बोली।

          धीरे-धीरे दिन बीतते गए। बहू सुनैना का रोज एक नया गुण सामने आता। क्या घर क्या रिश्तेदारी क्या आस-पड़ोस, सभी जगह सुनैना की बहुत तारीफ होती। सास,ससुर और सुनैना का पति रमन, सुनैना के गुणों एवं व्यवहार पर निहाल होते रहते पर तारीफ एवम् मिठाई ज्यादा हो तो धीरे-धीरे पाचन तंत्र पर असर दिखाने लगती है।

            सुनैना की अत्यधिक प्रशंसा से घर-परिवार की अन्य बहुओं को तकलीफ होने लगी। वे जी-तोड़ कोशिश करतीं कि कहीं से भी सुनैना की कोई कमजोर घड़ी हाथ लगे तो तिल का ताड़ बना कर सुनैना को नीचा दिखाया जा सके पर जब ऐसा कुछ हाथ नहीं लगा तो उन्होंने सुनैना के बारे में भ्रम फैलाना शुरू कर दिया कि सुनैना घमंडी है इसलिए सबसे कम ही बातें करती है।




         दरअसल सुनैना अपने काम से काम रखती थी और किसी से फालतू बातें, बुराई करना इत्यादि उसे पसंद नहीं था इसलिए उसके कम बात करने वाले सरल व्यवहार को घमंड कहकर प्रचारित किया जाने लगा। धीरे-धीरे उड़ती-उड़ती यह खबरें सुनैना के कानों में पड़ने लगी पर उसने इन सब बातों का कोई जवाब नहीं दिया बल्कि इन पर ध्यान देने या सफाई देने की ज़रूरत तक नहीं समझी।

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         गर्मी की छुट्टियों में जब सुनैना की ननद रीमा मायके रहने आई तो दोपहर के खाने के पश्चात दोनों ननद-भाभी आराम करने के लिए लेटीं तो आपस में बातचीत भी करने लगी।

          “सुनैना! आजकल तुम्हारे बारे में यह सब क्या सुनने को मिल रहा है? माँ भी कह रही थी कि सुनैना का व्यवहार घर में तो ठीक है पर शायद वह बाहर वालों से सामंजस्य नहीं बिठा पा रही है। मुझे अच्छा नहीं लगता पर हो सकता है कि शायद अपनी सुंदरता एवं गुणों की प्रशंसा के कारण वह बाहर वालों के सामने कुछ घमंड दिखा जाती हो। देखो, सुनैना! तुम समझदार हो पर तुम्हारी बड़ी बहन समान होने के नाते मैं यही कहना चाहूँगी कि कभी घमंड मत करना। घमंड का सिर हमेशा नीचा होता है।” रीमा ने कहा।

            सुनैना नहीं ध्यान से रीमा की बात सुनी। कुछ क्षण वह शांत रही।

         “दीदी! घमंड तो मुझे है पर अपने आप पर नहीं। दीदी! एक बात कहूँ! ये जिसे आप लोग मेरी सुंदरता कहते हो, निश्चित ही तौर पर आनुवांशिक रूप से मुझे मिली है। शिक्षा-दीक्षा के लिए मेरे परिवार जनों एवं गुरुजनों का परिश्रम मुझसे ज्यादा ही रहा। मेरे रहन-सहन, बातचीत करने के तरीके के लिए मैं अपने परिवार के लिए कृतज्ञ हूँ। हाँ! भोजन मैं अच्छा पकाती हूँ पर उसके लिए मेरी मम्मी और दादी माँ जिम्मेदार हैं और आप सब से मेरा व्यवहार मीठा है, इसके लिए आप लोगों का मीठा एवं सहयोगी व्यवहार जिम्मेदार है

और इन सबसे ज्यादा मैं ईश्वर को धन्यवाद करती हूँ कि मेरे जीवन में आप सभी लोग हैं। हाँ! बात मैं अवश्य कम करती हूँ क्योंकि बेवजह बात करना और किसी की बुराई करना मुझसे नहीं होता है। कुछ सीखने-सिखाने की बात हो तो फिर मुझसे ज्यादा बातूनी कोई नहीं। आप ही बताइए कि ईश्वर ने मुझे इतने प्यारे दो परिवार दिए हैं तो फिर मैं अभिमान क्यों ना करूँ? बाकी जब यह रंग-रूप,गुण,सुंदरता मेरे खुद के निर्मित है ही नहीं तो इन पर अभिमान क्यों करूँ और अगर इस बात के लिए लोग मुझे घमंडी कहते हैं तो कहा करें।”कहकर सुनैना ने रीमा की गोद में मुँह छुपा लिया।

        रीमा सोचने लगी कि यह घमंडी तो बिल्कुल भी नहीं है। बस,एक मासूम,निश्चल मन की बच्ची है और ऐसी भोली-भाली बच्ची पर हम अभिमान क्यों न करें। 

मौलिक सृजन 

ऋतु अग्रवाल 

मेरठ

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