सब लोग जा चुके थे,आज तेरहवीं भी हो गई थी।घर एकदम सूना था, हरिया काका बैठे बड़ी बहू की तस्वीर के सामने बैठे,खो गए यादों में।
करीब 13 वर्ष के थे ,वो जब स्कूल में मास्टरजी पढ़ाते पढ़ाते उनकी कक्षा में गिर गए थे।कक्षा के बच्चे और लोगों को बुलाकर लाए,तो पता चला मास्टरजी नहीं रहे। डॉक्टर को भी बुलाया गया,बताया अचानक हृदयघात हो गया।
मास्टरजी उसी गांव के थे और हरिया के बापू मास्टरजी के खेतों में काम करते थे। जबरदस्ती मास्टरजी ने ही हरिया का स्कूल में दाखिला कराया था और हरिया उन्हीं के डर से स्कूल जाता था कि मास्टरजी बापू को बता देंगे। अब चूंकि मास्टरजी का स्कूल आना बंद तो हरिया का भी स्कूल से कोई वास्ता नहीं।
यादें धुंधली हो गई और हरिया ने भी स्कूल छोड़कर गाड़ी ड्राइवरी का काम सीख लिया।बल्कि अब कभी कभी मास्टरजी के खेतों में बापू के साथ ट्रैक्टर भी चला आता। फिर एक दिन बापू के साथ पहली बार मास्टरजी के घर गया।मास्टरजी के बेटे विजय का लग्न आना था।देखा तो याद आया विजय तो स्कूल में दो क्लास ही आगे था
उनसे और अब मास्टरजी की जगह क्लर्क लग गया था,उसी गांव के स्कूल में।विजय ने भी पहचान लिया हरिया को, और बातें चलते चलते तय हुआ कि विजय की पत्नी को लिवाने हरिया ही जायेगा विजय के साथ ड्राइवरी करके। जब पहले पहल दूल्हा दुल्हन के रूप में विजय और उसकी पत्नी को लेकर वो घर पहुंचा,तो गेट पर ही शोर सुना था, बड़ी बहू आ गई है।
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हरिया का आना जाना अब इस घर में लगा ही रहता।जब भी जाता, पहली बात ही यही रहती, बड़ी बहू चाय बना लो,हरिया आया है।फिर भी हरिया ने बड़ी बहू का कभी चेहरा न देखा था। अब घर का,खेत का, ड्राइवरी का जो भी काम होता वो हरिया ही देखता था। अब वो घर मास्टरजी की बजाय बड़ी बहू का घर कहा जाने लगा।
विजय के तीन छोटे भाई और बहनों की पढ़ाई लिखाई अब विजय जी की जिम्मेदारी थी,रोटी टूक की बड़ी बहू की और बाहर के सारे काम हरिया के। हरिया अब इस घर का नौकर नहीं बल्कि सबसे भरोसेमंद आदमी था,जो हर वक्त बेवक्त खड़ा रहता था।अपने घर परिवार बच्चों के पास तो बस सोने भर ही जाता था। उसके देखते देखते बड़ी बहू के तीन बच्चे हुए।
विजय की मां मास्टरजी के मरणोपरांत बावली सी हो गई थी, सो घर बाहर की जिम्मेदारी बड़ी बहू ही निभाती, स्वभाव जरूर खरेरा था।विजय शांत था,ऊपर से भाई बहनों की जिम्मेदारी। पर चलती बड़ी बहू की ही थी, रुपए पैसे की ऐसी कोई कमी न थी,बड़े जमींदार जो ठहरे।धीरे धीरे कर बहन फिर भाइयों की नौकरी और शादी हो गई।मगर जिसकी भी शादी होती गई,वे बाहर जाते गए। यहां गांव में कोई न रुका।
सब कहते विजय ने बहुत किया अपने भाई बहनों का ,पर परिवार को जोड़कर न रख पाया।दबी जुबां में कहने वाले कहते बड़ी बहू के साथ रुकना सहज न है।एक तो बड़े घर की,ऊपर से इतने सालों इस घर में अकेली की चली है।विजय भी कुछ न कहता जैसे तैसे कर,उसने अपने पिता की जिम्मेवारियों को निभा दिया था।
अब बड़ी बहू के दो बेटियों के बाद बेटे की भी शादी हो गई।उनकी खुद की भी बहू आ गई।पर हरिया ने देखा ,बड़ी बहू अब भी वैसी की वैसी थी।घर में सब उन्हीं के हिसाब से होता। नए जमाने की लड़की कितने दिन देखती, आखिर वो भी चली गई शहर पति को लेकर।घर में रह गए हरिया,विजय और बड़ी बहू।अब हरिया की भी उमर हो चली थी, घर कम ही जाता था।वहीं दो टूक खा लेता, विजय का भी मन लगा रहता।
बड़ी बहू कभी कभी बहुत सुनाती थी,विजय को कि देख ले सारी उम्र गवां दी,तेरे भाई बहनों की रोटियों के पीछे,आज कोई पूछने भी नहीं आता। अब भी तेरी दो रोटी मैं ही सेकूं।
हरिया को कभी कभी समझ न आता,विजय को कह रही है या हरिया को सुना रही है। पर ये सच था बड़ी बहू के पास कोई न फटकता। पर फिर भी बड़ी बहू वैसी की वैसी अक्खड़ और तेज।कभी कभी हरिया समझ न पाता कि अच्छी है या बुरी। पर हां ,ये सच था कि बड़ी बहू किसी के हिसाब से चल नहीं सकती थी तो उनके साथ किसी की बनना मुश्किल ही था।
फिर इसी तरह एक दिन विजय भी हृदयाघात से चला गया।अब घर एकदम सूना, दिनों में ही उनका बेटा कह गया था, हरिया काका आप घर का ख्याल रखना, मां को किसी चीज की जरूरत लगे
तो फोन कर देना, किसी ने नहीं पूछा, बड़ी बहू अकेली कैसे रहेगी।बड़ी बहू भी ठहरी पक्की, टस से मस न हुई। दो साल गुजर गए,अब हरिया का आना कम हो गया था, खेत का हिसाब देने ही आता था,बड़ी बहू को या कभी जरुरत पर फोन करती थी तो, मगर घूंघट में ही।
फिर भी वही अकेला था जो इस घर के सबसे करीब था। और एक दिन जब सुबह गेट खटखटाने पर कोई न आया तो अंदर आकर देखा तो बड़ी बहू खाट पर सो रही थी, बहुत बोले बड़ी बहू.. बड़ी बहू।जब कोई आवाज न आई तो शक हुआ और चादर हटा कर देखा तो वो जा चुकी थी। पहली बार उस दिन बड़ी बहू का चेहरा देखा, झुर्रियां से भरा पर एकदम गोरा, तीखे नयन नक्श।कुछ देर तो यकीन न हुआ।
फिर आखिर बड़ी बहू के बेटे को फोन कर बताया। तब शाम तक सब आए और दाह संस्कार हुआ,तब तक हरिया ही बैठा रहा खाट के पास। सब तेरहवीं कर चले गए, घर की चाबी हरिया को देकर जो बड़ी बहू की जान थी।हरिया काका सोच रहे थे, देखो बड़ी बहू सब जीते जी की हाय हाय है, जो चाबी आपकी जान थी,आज उसका कोई रखवाला भी बनने को तैयार नहीं।
“ऋतु यादव”, रेवाड़ी, हरियाणा।