1965 का  प्रेम – सुनीता मिश्रा

उसका पत्र मिला मुझे, बहुत अवसाद भरा  था।उसने लिखा था–“मैं  जिन्दगी से निराश हो गई हूँ । जीने की इच्छा खत्म हो गई है, पर अपनी अनुभा का मुँह  देखती हूँ तो सोचती हूँ, मेरे बाद क्या होगा इसका ? क्या तू दो चार दिन के लिये नहीं आ सकती मेरे पास, शायद इस उदासी की गहन खाई से निकल पाऊँ मैं। याद है बचपन में मैं जब भी उदास परेशान होती तू ही मुझे हँसाती थी, मेरे दर्द की दवा बनकर।”

उसके पत्र ने मुझे बहुत विचलित कर दिया था। लगा उड़कर उसके पास पहुंच जाऊँ,उसे गले से लगा लूँ। पर मैं जा न सकी, मेरी भी मजबूरियाँ थी। गृहस्थी की जंजीर बहुत मजबूत होती है। फिर न उसने कोई पत्र लिखा न मैं ही कोई खोज खबर ले पाई।

प्रिया से मेरी दोस्ती जब हुई हम दोनों, टेन्थ में एक ही सेक्शन में थे। क्लास टीचर ने परिचय कराया था सबसे उसका । स्कूल के प्रिन्सिपल की बेटी थी।

बहुत ही सुन्दर, बिल्कुल अप्सरा सी, लम्बे घने बालों की चोटी, सीधी नाक,और होठ जैसे पंखुड़ी गुलाब की। इस उम्र में हम लड़कियों को सौंदर्य बोध तो हो ही गया था।

हमारी प्रिन्सिपल बहुत अनुशासन प्रिय थी। कठोर हृदय थी। छोटी छोटी ग़लती पर छात्राओ को पनिश करती थी। हमारी क्लास का अनुमान था, उनकी बेटी भी उन्ही की तरह घमंडी,अकड़ू होगी। पर हुआ इससे अलग ,प्रिया बहुत शान्त, संकोची, मितभाषी निकली। मेरे बगल की सीट खाली थी। वो चुपचाप आकर मेरे पास बैठ गई।



हमारे स्कूल का नियम था, नये प्रवेशी छात्राओं को प्रार्थना के समय  अपनी प्रतिभा का कोई न कोई परिचय देना पड़ता है। जैसे गीत सुनाना, वाद्ध्य बजाना, नृत्य, अभिनय आदि।

प्रभा ने सरस्वती वन्दना गायी हार्मोनियम के साथ। जैसे सरस्वती विराजी हों उसके गले में। पूरा प्रार्थना स्थल मंत्र मुग्ध हो गया था।

समय के साथ हमारी दोस्ती रंग लाने लगी। जैसे दो तन एक मन हो। वो मुझसे अपनी माँ की बातें बताती, बहुत डरती थी उनसे।उनकी प्रिंसपलशिप  घर में भी चलती थी। उसके पिताजी भी बोल नहीं पाते उनके सामने।

प्रिया की दिनचर्या घड़ी से बंधी हुई, सुबह एक गिलास दूध पीने के बाद म्युजिक  क्लास, उसके बाद संस्कृत ट्यूशन, अंग्रेज़ी और गणित क्लास। शाम को डान्स और सितार की क्लास।

प्रिया और मुझ में हर दृष्टि से ज़मीन आसमान का अंतर था। मैं साधारण रुप रंग की,पितृहीन , ग़रीब घर की, छोटी जाति की लड़की थी। हमारी प्रिन्सिपल मेम चाहे जितनी कड़क मिज़ाज रही, मेरी और प्रिया की दोस्ती में आंच नहीं आने दी। बल्कि आर्थिक रुप से मेरे घर की मदद भी कर देतीं थीं ।

धीरे धीरे दोस्ती के साथ हमारी उम्र भी आगे बढ़ने लगी। हायर सेकेंडरी की अर्धवार्षिक  एग्ज़ाम होने वाले थे। प्रिया के गणित के टीचर बीमार हो गये थे।

ऐसे में मेरी कालोनी के, जिन्हे मैं भाई कहती थी, हमारी ही बिरादरी  के थे। उन्होने हम दोनों को, गणित मेरे ही घर पढ़ाना शुरु किया।

हम दोनों ने ही हायर सेकेंडरी फस्ट प्रथम श्रेणी में पास की।



मुझे कॉलेज मे भेजने की हमारे घर के लोगो की हैसियत नहीं थी। पर प्रिन्सिपल मेम ने मेरा एडमिशन प्रिया के साथ करा दिया। कॉलेज को-एड था। यहाँ मेरे भाई जिनका नाम भास्कर था ,बी एस सी फायनल में थे। हम लोग रोज ही मिलते। मैं अक्सर पाती भाई प्रिया की ओर जब देखते, उनकी आँखो में चमक रहती ।

कॉलेज में एनुअल फंक्शन था। कालिदास का लिखा नाटक मे भाई ने दुष्यंत और प्रिया ने शकुन्तला का अभिनय  किया। प्रिया ने इतना जीवन्त अभिनय किया की तालियों की गड़गड़ाहट से सभागृह गूँज गया। भाई एकटक प्रिया को देख रहे थे,आँखो से प्रेम का अमृत बरस रहा था। और उनकी शकुन्तला, लाज से दुहरी हो जा रही थी।। मैंने अंदाज़ लगा लिया की इश्क की आग दोनो तरफ है,आँखों ही आँखों में । न कोई प्रेम पत्र न बातचीत ।प्रेम मे मौन की भी महत्व पूर्ण भूमिका होती है,उन दोनो को देखकर समझा मैने ।

अब दोनों की आँखें हर जगह एक दूसरे को ढूंढती। आँखें मिलती और झुक जाती। दोनों ही अपनी अपनी मर्यादा जानते थे। नया साल आया।शुभकामनाओं की आवा- जाही मची थी। उस दिन भाई हमारे घर आये। अक्सर आते थे हमारे घर। उनके हाथ में खुद का बनाया ग्रीटिँग कार्ड था।

यहाँ बता दूँ ,उनकी ड्रॉइंग ,पैंटिंग की प्रदर्शनी ने अनेक इनाम जीते थे। फोटोग्राफी में महारत हासिल थी। तो उन्होने वो खूबसूरत ग्रीटिंग मेरे हाथ में रख दिया और  बोले–“अपनी सहेली को देना” बस इतना कहते ही उनका चेहरा शर्म से लाल हो गया। मुझे बहुत हँसी आई। अनोखा प्यार है ये। मोहब्बत है पर कैद है आँखो में।



मैंने ग्रीटिग सही जगह पहुंचा दी। यहाँ भी वही हाल था, जो वहाँ था।

भाई ने मुझसे पूछा था–“कुछ कहा उन्होने।” मैंने कहा “आप कुछ बोले जो वो बोलती।”

अब मेरी और प्रिया की बातें भास्कर भाई पर ही केन्द्रित रहती। वो बताती आज मार्किट में तुम्हारे भाई दिखे  थे। “फिर बात आगे बढ़ी?” मैं पूछती। वो हँस कर कहती “उन्होने मुझे देखा और मैंने उन्हे।”इसके आगे और हो भी क्या सकता था।

बहुत दिन हो गये, भाई दिखे नहीं, घर भी नहीं आये। प्रिया ने बताया उसके घर के सामने जो सुबह शाम जोगिया फेरा लगता था। कई दिनो से नहीं लगा, बहुत चिंतित थी प्रिया।

अब भाई की खैर खबर लेनी पड़ेगी, प्रिया की ख़ातिर, इत्तिफाक से मौसी(भाई की माँ ,मैं उन्हे मौसी कहती थी) मिल गई, पता चला भाई तो पन्द्रह दिन से बुखार में है।

प्रिया को लेकर मैं भाई के घर गई। बहाना था, बहन भाई की तबियत का हाल लेने आई है। साथ में सहेली है। हालाँकि प्रिया के पसीने छूट रहे थे। अगर माँ को पता चल गया तो, वो कहेंगी—“तुम्हें जाने की क्या जरुरत थी। निधि (मेरा नाम) का रिश्तेदार है वो जाए।”



और भी बहुत कुछ बातें उसे डरा रही थी। खैर मेरे साथ वो ऐसे गई जैसे कोई जान हथेली पर लेकर चले। भाई ने जैसे ही मुझे देखा बिस्तर से उठे ,थोड़ा मुस्कराये, इधर उधर देखा, साफ लग रहा था आँखें किसी को खोज रही हो। जैसे ही मेरे पीछे प्रिया को देखा, मानो मरते को जीवन दान मिला हो। मैंने महसूस किया उनकी समस्त चेतना मेरे प्रति कृतज्ञ हो गई हो। वे बिस्तर पर लेट गये। मैंने बीमारी  से सम्बंधित हालचाल पूछे। उन्होने निराकरण किया ।

आँखें प्रिया पर , प्रिया की आँखें ज़मीन पर, वे बातें मुझसे करते रहे। मौसी चाय ले आई, सिर्फ मैंने चाय ली, प्रिया ने कभी चाय पी ही नहीं, करीब बीस मिनिट बीते, अब चलना चाहिये,ये मैं ही नहीं प्रिया भी सोच रही थी। मैं जानती थी की भाई चाह रहे हैं कि  उनकी प्रियतमा कुछ और रुके। बोल नहीं पाये।

हम दोनों उठ के खड़े हुए, जाने के लिये कदम बढ़ाया ही था, की दूसरे कमरे से विविध भारती प्रोग्राम से रेडियो में, फिल्म हम दोनो का गाना बज उठा

“अभी न जाओ छोड़ के,कि दिल अभी——–“

हम तीनों ही हँस पड़े। क्या सही मौके पर  गीत भी बोल पड़े। आखिर किसी न किसी को दिल की बात खोलनी थी, रेडियो का गाना ही सही।

मैंने प्रिया को भाई से मिलवाया मुझे अच्छा लगा। भाई का फायनल हो गया उन्हें इन्जियरिंग में एडमिशन  मिल गया हम लोग बी एस सी फायनल में आ गये।

प्रिया और भास्कर का प्रेम आत्मिक प्रेम की तरह यथावत था। एक बार मैंने प्रिया से पूछ लिया–“भाई तुम्हारे घर के जोगिया फेरे ही लगाता है या कभी आय लव यू भी बोला।”



प्रिया बोली “जैसे तुम अपने भाई को जानती ही नहीं, गूँगा भाई है तुम्हारा।”

मैंने पूछा–भविष्य के बारे में सोचा है ?”

लम्बी सांस ले प्रिया बोली–“राह बहुत कठिन है सबसे पहले तो जाति ही रास्ता रोक देगी।”

“फिर यहीं रुक जाओ प्रिया।” मैं बोली।

“मैं तो रुक जाऊँ मन का क्या करूँ। “प्रिया ने आगे कहा –“हम आज आई हुई खुशी का ख्याल रखे।कल जो होगा देखेंगे।”

सच है कल किसने देखा। अचानक प्रिया के पिताजी का हृदयाघात से देहांत हो गया।

प्रिन्सिपल मेम और प्रिया एकदम अनाथ हो गये। मेम को अब हर समय यही चिंता रहती किसी तरह प्रिया का विवाह हो जाए , उस आदमी से, जिसे प्रिया के लिये उनके पति पसंद कर गये थे। कहीं वो लोग इस रिश्ते को अमान्य, न कर दे। मेम के मन मे असुरक्षा की भावना भर गई थी।

प्रिया के विवाह की तिथि तय हो गई ।

मैंने मेम से कहा-“माँ (मैं उन्हे माँ कहने लगी थी) प्रिया को ग्रेजुएशन कर लेने दे। उसकी पढ़ने की इच्छा है।” उन्होने कहा–“ये शादी के बाद भी हो सकता है। प्रिया के लिये ये घर और वर उसके पिता ही पसंद कर गये थे।”

प्रिया ने मुझे बताया था, पिताजी ने केवल देखा था, तय नहीं किया था।

संजीव की उम्र प्रिया से दस वर्ष बड़ी थी। शिक्षा विभाग में ऊँचे ओहदे पर थे, एकलौते बेटे थे। विवाह ही नहीं करना चाहते थे।बड़ी मुश्किल से अब राजी हुए थे । मैंने संजीव को देखा, उम्र ही नहीं , रुप रंग में भी प्रिया के संग नहीं बैठते थे। आदमी की उम्र, रूपरंग नहीं कमाई देखी जाती है।

प्रिया का विवाह बहुत धूमधाम से हुआ। रोज रोने के कारण प्रिया की आँखें सूज गई थी। बेहद कमजोर हो गई थी । बावजूद इसके दुल्हन के रूप में प्रिया अप्सरा सी लग रही थी। जिसने भी उसे देखा उसने यही कहा–इतनी रूपसी, गुणवंती लड़की की किस्मत में ये वर। कई मनचले तो पीठ पीछे बोल पड़े–पहलुए हूर में लँगूर,ख़ुदा की कुदरत।

भाई के कई दिनो से तो दर्शन ही नहीं हुए। मैं ही उनके घर गई, पहचान करना मुश्किल कि ये भास्कर,वही  सुदर्शन युवक है। बिल्कुल बीमार जिन्दगी से उदास।

लेकिन वक्त सब घावों पर मरहम रख देता है। कुछ समय बाद मेरी भी शादी हो गई। अपनी गृहस्थी में रम गई मैं।

बहुत दिनो बाद उसका वो पत्र मिला, कहाँ जा पाई उसके पास मैं।

समय बढ़ता रहा और समय के साथ हम सभी। बच्चे बड़े हो पिंजरे से उड़ गये। उनका अपना परिवार हो गया। पति रिटायर होने के बाद अपने गृह नगर में बस गये। सुना प्रिया भी इसी शहर में है। मैं उससे मिलने पहुंची।

ओह वही प्रिया का रुप, वैसी ही शान्त,गुमसुम सी। गले लग गये एक दूसरे के। प्रिया ने बताया उसके दोनो बच्चे विदेश में सेटल है। खुश हैं ।

मैंने पत्र का ज़िक्र किया कहा—चाहकर भी तेरे पास न आ पाई, मुझे माफ़ कर दे।”

उसी मासूम, मधुर मुसकान से बोली–“अरे अब जिन्दगी कट गई निधि। पूरी जिन्दगी में न पत्नी का सम्मान मिला। न ही बहू के रुप में ससुराल में प्यार मिला। उम्र का ही अंतर था या इनकी कुण्ठा। “थोड़ा ठहर कर फिर बोली—-

“हमेशा मुझे शक के दायरे में रखा। पूरा पहरा रहता था, किसी से मिलने नहीं देते थे। यहाँ तक कि माँ के पास भी नहीं भेजते थे। माँ मुझसे मिले बिना ही इस दुनियाँ से विदा हो गई।” आँसू छलक पड़े प्रिया के।

बातों का अन्तहीन सिलसिला शुरु हुआ। पुरानी यादें नसों में ताजे खून की तरह बहने लगी, कभी हँसते कभी रोते, यादें —-और—बातें ।

मैंने पूछा–“प्रिया तुझे भास्कर भाई की याद आती है ?”

वो बोली—“उन्ही मीठी यादों के सहारे ही तो जिन्दगी के पचास साल काट लिये। वरना कब की मर गई होती।”

“भाई इसी शहर में है। उसके भी बच्चे बाहर है। भाभी और भाई  ही यहाँ  हैं । मिलना चाहेगी उससे।”

“नहीं ,अब मिलना नहीं चाहती।”हल्के से हँस दी प्रिया। “बस उन  यादों को अपने साथ, अन्त समय तक सहेज कर रखना चाहती हूँ। “

सुनीता मिश्रा

 

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