वो सत्ताईस दिन – जयसिंह भारद्वाज : Moral Stories in Hindi

Moral Stories in Hindi : सुबह के सात बजे थे कि मैसेज नोटिफिकेशन की ट्यून सुन कर मोबाइल देखा तो उसका मेसेज आया था, “राम राम जी! कइसन हौ बबुआ..”

रविवार का दिन था अतः मुझे देर तक सोने का मन था। पलट कर देखा तो रूममेट भी चादर ताने सो रहा था। बिना कोई उत्तर दिए.. मोबाइल को साइलेन्ट में लगाकर मैं फिर से सो गया।

दरवाजे पर ठक-ठक की आवाज सुनकर घड़ी देखा.. साढ़े आठ बजे थे। यह पी जी वाली आन्टी थीं शायद जो नाश्ते के लिए बुलाने आयी होंगी।

पलट कर देखा तो रूममेट अभी भी खर्राटे ले रहा था। उठकर दरवाजा खोला। सामने आन्टी ही थीं।

“ओए पुत्तर! देर कर दी जगने में। तबियत तो ठीक है।”

“जी आन्टी, ठीक हूँ। आज सन्डे है न.. इसलिए सो गए हम।”

“चल जल्दी से आजा तैयार होकर। नाश्ता ठण्डा हो रहा है। और इस कुंभकरण को भी लेते आइयो। इसबार इसके पापा के आने पर शिकायत करूँगी कि सोता ही रहता है दिनभर।” बड़बड़ाती हुए वे सीढियाँ उतरने लगीं।

नाश्ता फिनिश करके आया और मोबाइल देखा तो मैंने अपना माथा पीट लिया। उसके इक्यावन मेसेज आ चुके थे और अभी भी typing… दिख रहा था।

मैंने झटपट लिखा, “राम राम जी।”

“ओए चश्मिश! किधर चला गया था तू? रिप्लाई क्यों नहीं कर रहा था मेरे मेसेज का? मैं आ रही हूँ तेरे पीजी के पास.. ठहर तू।”

“सुनिए प्लीज.. मैं सो गया था। आज सन्डे है न!”




“एक्जाम सिर पर हैं और सोने के लिए सन्डे मन्डे सूझ रहा है तेरे को। ये फाइनल ईयर है.. तेरे को यूनिवर्सिटी टॉप करना है.. चाहे तू सो ले या फिर पढ़ ले।”

“तुम्हें क्यों नहीं करनी यूनिवर्सिटी टॉप?”

“वो.. मेरी बात छोड़ दो आप। मैं लड़की हूँ। आप की सफलता को मैं अपनी सक्सेज मान लूँगी.. सच्ची में.. बाय गॉड”

“नाश्ता कर लिया?” मैंने विषय बदल दिया था।

“क्या खाक कर लिया। चार बार मम्मी बुला गयीं लेकिन मैसेज की रिप्लाई न मिलने से मुझे उलझन होने लगी थी.. “

“ठीक है… अब नाश्ता कर लो।”

“हाँ ठीक है। आज का लन्च मैं तुम्हें गोविंदनगर के नए खुले वैष्णव रेस्टोरेंट में कराऊँगी। ठीक एक बजे आ जाना। पीजी वाली आन्टी को लन्च के लिए मना कर देना। ओके.. बाय।”

“बाय”

लन्च करते करते उसने कहा, “याद है.. हमें मिले हुए कितने दिन हो गए”

“दो साल से अधिक हो गए.. है न!”




“हाँ.. यह पच्चीसवाँ महीना है। अच्छा यह बताओ कि आपको हमारी पहली मुलाकात याद है।”

“हाँ.. बता तो चुका हूँ कईबार। मगर बार बार क्यों पूछ रही हो?”

“अरे बस ऐसे ही। अच्छा लगता है उस दिन की बात को रिवाइंड करके सुनना। बताओ न प्लीज..” पलकें झपका कर मनुहार करती हुई वह बोली।

मैं सोचने लगा कि कैसे मैं राधामाधव मन्दिर के परिसर में एक बड़े पेड़ के नीचे बनी बेंच पर बैठा अपनी धुन में गुमसुम था। तभी मैंने अपनी बगल में उसे बैठा पाया। कुछ समझ पाता कि अचानक वह मेरी गोद में अचेतन हो कर गिर गई थी। मैंने अपने पिट्ठू बैग से बोतल निकाल कर उसके चेहरे पर पानी छिड़का तो उसकी चेतना लौटी। मैं कुछ पूछता इसके पहले वह बोल पड़ीं, “अभी तीन दिन पहले ही मेरे हार्ट में बड़ा सा छेद डायग्नोस हुआ है। लाखों का खर्च है और पापा एक फैक्ट्री के कर्मचारी हैं। रोग की अवस्था इतनी घातक है कि डॉक्टर ने मेरा शेष जीवन आगामी तीस दिनों के लिए घोषित किया है। मैं इन शेष सत्ताईस दिनों में प्रसन्न रहना चाहती हूँ। आप मुझे अत्यंत उदास दिख रहे हैं। जैसे डबल निगेटिव मेक्स असर्टिव उसी प्रकार दो उदास लोग मिलकर प्रसन्न हो सकते हैं।” कह कर उसने अपना दाहिना हाथ आगे बढ़ा दिया।

एक सुंदर लड़की को ऐसी गम्भीर बीमारी से ग्रस्त देखकर मैं दुःखी हुआ। मैंने उसके बढ़े हुए हाथ मे अपना हाथ देकर कहा, “ठीक है, प्रयास करने में कोई हानि नहीं है।”

तभी वह खिलखिला पड़ी, “अब तो आपने मेरे हाथों में अपना हाथ दे दिया है.. जीवन भर मेरा साथ न छोड़ने दूँगी आपको।”

“जी ठीक है। अब मैं आपका ही हुआ।” मुझे लगा कि अगले सताइस-तीस दिनों की ही तो बात है। इसे प्रसन्न हो लेने दीजिये।




मोबाइल नम्बर के आदानप्रदान करते समय उसके भइया-भाभी मंदिर से पूजा करके आ गए और वह उनके संग चली गई।

बाद में हुई टेलिफ़ोनिक बातचीत से हमारे स्कूल अगल बगल के निकले। मैं बी एन डी का छात्र और वह सेन कॉलेज की छात्रा। आते जाते मिलने लगे। बहुत सारी बातों पर डिस्कशन होता। वह बहुत केयरिंग थी। कई बार लगता कि वह एक दकियानूस किन्तु कड़क थानेदार सी लड़की है। और कभी लगता कि वह बहुत अधिक खुले विचारों वाली बिंदास बाला है.. तब डर लगता था मुझे उसके व्यवहार, बर्ताव और बातचीत से। कभी भी कहीं बुला लेती और घण्टों हम बात करते। न जाओ या देर हो जाये तो एकपल में मेरी तुरपाई उधेड़ देती। इस प्रकार खट्टे-मीठे-चटपटे अनुभवों के मध्य हमें पता ही नहीं चला कि वो कठिन सत्ताईस दिन कब के बीत गए!

कई बार वह बीमार पड़ जाती फिर हफ्ते भर बाद उसी तरह चहकती हुई सामने आती और कहती, “लो, मैं फिर से यमराज को धक्का देकर तुम्हारे पास चली आयी। मुझे छुपा लो अपनी बाहों में।” और दुबक जाती मेरे सीने से किसी डरे हुए छोटे बच्चे की तरह। यूँ ही दिन गुजरते जा रहे हैं अभी तक पिछले पच्चीस महीनों से।

अब तक हम लन्च फिनिश कर चुके थे। उसने बिल पे किया और बाहर आकर एक ऑटो को हाथ दिया। रास्ते में उसने कहा,”सुनो! मेरी प्रॉब्लम अब बढ़ती ही जा रही है। दर्द और साँस लेने में तकलीफ लगातार बढ़ रही है। यदि मैं बीमार हो जाऊँ और अस्पताल से न लौटूँ….” मैं उसकी हथेली को अपनी हथेली से दबाकर ऑटो से बाहर देखने लगा। मेरा चेहरा कड़ा था किंतु शरीर थरथरा रहा था।  मेरी पीठ सहलाते हुए उसने कहा, “स्वयं को रोने से मत रोको ‘जय’। जी भर कर रो लीजिये। मन हलका हो जाएगा। सच का सामना करना ही पड़ेगा। ईश्वर का आभार कि हमें एक माह के बजाय दो सुखद साल दिए साथ रहने के लिए.. है कि नहीं।”




बिना उसे देखे मैं चौराहे पर उतर कर अपने आँसू पोछते हुए घर की तरफ चल पड़ा।

पीछे से उसका स्वर सुनाई पड़ा, “टेक केयर बबुआ”

(कहानी की तारतम्यता के लिए कृपया इससे पहले की दो कहानियों क्रमशः “ब्रेकअप”  एवं “आइसक्रीम” को अवश्य पढ़ें।)

    -/आसन्न संकट/-

स्वरचित:©जयसिंह भारद्वाज, फतेहपुर (उ.प्र.)

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