वसीयत –  शम्मी श्रीवास्तव

टेलीफोन की घंटी जैसेही बजी मैंने लगभग दौड़तेहुये रिसीवर उठाया – “हैळो! अरे कुसुम तुम! क्या हाल है? यहाँ सब ठीक है ना”| “हाँ, तुम बताओ तुम्हारा दिल्ली भ्रमण कैसा रहा ?” – कुसुम ने पूछा  “ हाँ ! सब ठीक रहा| सब की सहमति से घर का बटवारा हो गया| पापा की प्राँपर्टी में से सब को उचित हिस्सा मिल गया”-मैंने एक गहरी साँस छोड़ते हुए उसे बताया | 

      कुसुम मुझे समझाने के अंदाज में कहने लगी – “ देखो इसमें इतना दुखी होने की क्या बात है , हर घर में ऐसा ही होता है आखिर कोई अपना हिस्सा क्यों 

छोड़े ? है ना “ 

       आज ही हम दोनों दिल्ली से लौट कर आयें हैं|चाय की प्याली पकड़े हुए मैं धम से सोफे पर बैठ गयी| कभी कभी दिल कुछ पल के लिए एकांत चाहता है शायद | दिल्ली के व्यस्त लोगों के बीच अपने को एडजस् करना कम से कम मेरे लिए मुश्किल हो जाता है | सच कहूँ तो हर बार दिल्ली जाने का उत्साह कुछ और ही होता था पर इस बार का जाना मुझे कुछ अच्छा नहीं लगा |

       दरअसल मेरे ससुर जी ने दिल्ली में एक प्लाट ख़रीदा था| जब उसे ख़रीदा था तब वहाँ डेवळपमेंट के नाम पर कुछ नहीं था| एक तरह से वहाँ जंगल ही जंगल था| पापाजी का बडा और भरा पूरा परिवार था| उनके चार बेटे थे जिन्हें वो डायमंड कहा करते थे और सच पूछा जाये तो उनके बेटे डायमंड से बढ कर थे| पापा ने अपने जीवन में बडा ही उतार चढाव देखा था|

पूरी जिंदगी स्ट्रगल किया तब कहीं जा कर उस ऊंचाई को छू सके जिसके वह हक़दार थे | हमारी मम्मीजी ने भी उनके हर कठिन समय में उनका साथ दिया| मम्मी जी के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं जिससे मैं उनकी तारीफ़ कर सकूँ| उनका स्वभाव कुछ ऐसा था कि उन्हें सास कहना अनुचित ही होगा | सासपना तो उनके अंदर था नहीं, था तो सिर्फ प्यार भरा दिल| हम बहुओं पर पूरा लाड छलकाया करतीं थीं| उनका साथ छूटना पापा के लिए एक बड़ा झटका था| उनके जाने के बाद ही उन्होंने दिल्ली की जमीन पर मकान बनवाने का फैसला किया|




         मकान नहीं बने इसके लिए बेटों ने पहले तो मना किया और हर तरह से पापा को समझाया पर उन्होंने मकान बनाने के लिए जैसे ठान लिया था| दरअसल उन्हें घर की प्रोपर्टी से कुछ नहीं मिला था, इसका उन्हें हमेशा दुःख रहता था| दूसरी सब से बड़ी वजह मकान बंनाने की यह थी कि बेटों के घर को कभी वो अपना नहीं समझ पाए| वहाँ उन्होंने अपने आप को हमेशा एक मेहमान ही समझा|

उनके मन में हमेशा से यह मलाल था कि अपने बच्चों के लिए कोई प्रोपर्टी क्रियेट नहीं कर पाए| इसलिए घर बनाने के फैसले से उन्हें कोई हिला न सका, और अब तो भगवान भी उनके इस फैसले में शामिल थे| मेरे देवर जो पापा के तीसरे बेटे हैं उनका ट्रान्सफर दिल्ली हो गया, फिर क्या था पापा जी ने अपनी फिक्स्ड डिपोजिट के अगेंस्ट लोन लिया और जीजान से मकान बनाने में लग गए| यहाँ भी उनके बेटों ने हर तरह से मदद की|

       १९८५ में पापा का सबसे बड़ा सपना साकार हुआ| उनका घर बन कर तैयार हो गया था| अपने घर को वो हर तरह से सजाने में लगे हुए थ| घर के सामने थोडा सा प्लाट उन्होंने पेड-पौधों के लिए रख छोड़ा था, जिसमे वे अपने हांथो से हर मौसम के रंग-बिरंगे फूलों वाले पौधे लगाया करते थे|बैठक में परदे अपनी पसंद के लगा रखे थे| मुझे जब भी उनके पास दिल्ली जाने का मौका मिला, बहुत खुशी होती थी| वे हर तरह से हमलोगों के आव भगत में लग जाते थे| एक तो उन्हें यह सुकून देता कि यह घर उनका है, यहाँ जो भी आता है उनके पास आता है| दूसरा मम्मी के हिस्से का प्यार भी वे अपनी सारी बहुओं को देना चाहते थे|




        अब तो देवर की फैमिली भी वहाँ रह रही थी इसलिए पापा अब अकेले नहीं थे| इस घर से उन्होंने तीन तीन बच्चों की शादियाँ भी की| शादी भी किसकी अपने पोते की! कहते हैं मूल से ज्यादा सूद प्यारा होता है इसलिए पोते की बारात जब उनके घर से निकल रही थी तब उनके चेहरे की चमक देखने लायक थी, जिसका वर्णन करना मुश्किल है |

        पापा अपनी कोलोनी में इतने मशहूर हो गए थे कि उनके ढेर सारे दोस्त बन गए थे| उनकी इस दोस्त मंडली को मेरे देवर ने “छड़ी यूनियन” का नाम दे रखा था| उनकी लीडर-शिप में सारे लोग घूमने जाते| धीरे धीरे उनकी धाक पूरी सोसायटी में हो गयी| इसके फलस्वरूप वे सोसायटी के प्रेसिडेंट चुन लिए गए | अब क्या था पापाजी की व्यस्तता तो और भी बढ गयी| सोसायटी की मेन्टे्न्नस 

के पैसे की देख रेख, डेवलपमेंट कैसे होगा, सब की जिम्मेदारी स्वेच्छा से पापा ने अपने उपर ले ली| वाकयी ठीक ढंग से देख भाल होने के कारण सोसायटी चमक उठी| अब तो बकायदा हर साल प्रेसिडेंट सेक्रेट्री का चुनाव भी होने लगा | सोसायटी के अंदर राम मंदिर भी बन गया | मंदिर बना तो आस पास दुकाने भी खुल गयीं| मंदिर में आये दिन सप्ताह परायण और सुंदर कांड का पाठ भी होने लगा|

पापाजी को रामायण से विशेष लगाव था इसलिए अगर मंदिर में सुंदर कांड का पाठ होता तो पंडित उन्हें बड़े मान सम्मान से बुला कर ले जाते| मुझे आज भी वो दिन याद है जब पापा मेरे पास छुटियाँ बिताने आये थे, पूजा करते समय उन्होंने मुझसे से रामायण मांगी जो मेरे पास नहीं थी, मैंने न में अपनी गर्दन हिला दी| शाम को जब पापाजी घूम कर आये तो उन्होंने मुझे रामायण की एक प्रति पकडाते हुए हिदायत दी कि “यह हर हिंदू के घर में होनी चाहिए, इसे मंदिर में रख दो”|




         अभी कुछ साल पहले अपने चारों बेटों को पापा ने दीवाली में दिल्ली अपने पास बुलाया| उस साल दीवाली में अच्छी खासी रौनक हुई तभी एक शाम जब वे अपने बेटों के साथ चाय का मज़ा ले रहे थे, उन्होंने अपने तरफ से यह प्रस्ताव रखा कि मैं यह चाहता हूँ कि मेरे चारों बेटे अपनी पसंद से यहां फ्लैट बना लें और सभी साथ रहें | इस प्रस्ताव पर उनके चारों डायमंड बेटे बिफर पड़े “नहीं पापा हम साथ रहने कि गलती नहीं करेंगे| साथ रहने से हमारे सम्बन्ध में दरार आ जायेगी”|

पापाजी को फिर जबरदस्त झटका लगा| उन्हें लगा था कि उनका यह प्रस्ताव सर्वसम्मत से पास हो जायेगा| वैसे उन्होंने अपनी तरफ से हर तरह से समझाने कि कोशिश की—“अरे जौहरी साहेब के बच्चे फ्लैट बनवा कर साथ रह रहें हैं फिर तुम लोग क्यों नहीं रह सकते”| पर बड़े भईया ने इस प्रस्ताव का साफ खंडन किया—“क्यूँ आप चारों के बीच मन मुटाव पैदा करना चाहते हैं?हम सबों ने अपना मकान बनवा रखा है| दूर दूर रहने से आपस में प्यार बना रहेगा पापा”| भईया की इस बात का समर्थन सबों ने किया| पापाजी के चेहरे पर निराशा साफ झलक रही थी|

इसी फैसले ने उन्हें अपनी वसीयत बनाने पर मजबूर किया| वसीयत के अनुसार उन्होंने अपने घर को चार फ्लोर में अपने चारों बेटों के नाम कर दिया|अब ये उनके बेटों के ऊपर था कि वे वहाँ फ्लैट बना कर रहना जाहते हैं या उसे बेच कर कहीं और जाना चाहते हैं| बड़े भईया की बात में बड़ा दम था| वैसे चारों भाइयों में काफी प्यार और दोस्ताना व्यवहार रहा है लेकिन जहाँ तक साथ रहने का सवाल था उसमे खट-पट की सम्भावना ज्यादा थी क्योंकि एक तो इनकम की असमानता और लिविंग स्टाईल अलग होने के कारण चाह कर भी कोई साथ, ऊपर नीचे फ्लैट में नहीं रह सकता था इसलिए हर हाल में एक दूसरे से दूर रहना ही ठीक था| 




       खैर पापाजी जब तक रहे तब तक उस घर में काफी रौनक रहती थी| चारों बेटे और उनका पूरा परिवार जब कभी वहाँ इकठा हो जाता तो किसी त्यौहार से कम नहीं लगता था| उनके नहीं रहने के बाद उनकी इच्छा अनुसार घर का बटवारा हो गया | भाइयों का प्यार ही था जो बटवारा जैसे कठिन काम को भी बड़े शांतिपूर्ण ढंग से सम्पन्न कर दिया| सबों ने अपना हिस्सा ले लिया और खुश थे| 

         मुझे दुःख बस इस बात का है कि हमारा ससुराल सही मायने में पापाजी का घर था जहां जिंदगी के तीस साल हमने हँसते खेलते बिताए थे, अब वह घर हमारा नहीं रहा| हमारा दिल्ली जाना अब भी होगा क्योंकि मेरे बेटे का घर भी दिल्ली में है, पर उसके घर जाने का रास्ता दूसरा मोड ले चुका है| 

#परिवार 

 शम्मी श्रीवास्तव

1 thought on “वसीयत –  शम्मी श्रीवास्तव”

  1. घर घर की यही कहानी,
    अब परिवार के माइन् बदल गये हैं!

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