उनसाठ बरस का कुंवारा वसंत… विनीता राहुरीकर

टैक्सी से उतरकर मीरा ने सामान के थैले बाहर निकाले और उसे किराया दिया। जब उसने गेट की तरफ देखा तो गार्ड नदारद था। ना जाने कहां चला गया। दो मिनट मीरा ने राह देखी फिर थैले उठाकर बिल्डिंग की तरफ चल दी। आज परिसर में भी कोई नहीं था। लिफ्ट तक पहुंची तो देखा वह बंद थी।

“उफ्फ! अब इसे क्या हुआ।” मीरा खीज गई  अब यह दो भारी थैले लेकर दो मंजिल चढ़े तो कैसे। दो घंटे से घर से निकली थी तो प्यास भी लग आई और चाय की तलब भी। गहरी सांस लेकर मीरा ने हिम्मत जुटाई और थैले उठाकर सीढ़ियां चढ़ने लगी। जैसे तैसे सात-आठ सीढ़ियां चढ़ी होगी कि सांस फूल गई और दोनों थैले रख कर वह खड़ी हो गई। हालांकि वह कम से कम सामान ही लेती है जो बहुत जरूरी हो, तब भी चाहे व्यक्ति अकेला ही क्यों ना हो गृहस्थी में क्या कुछ नहीं लगता। अभी वह सोच ही रही थी  कुछ सीढ़ियां और चढ़ने की कि तभी अचानक पीछे से कोई तेजी से आया और

“लाइए मैं ले चलता हूँ।” कहकर इससे पहले कि मीरा कुछ समझ पाती दोनों थैले उठाकर सीढ़ियां चढ़ने लगा। मीरा ने देखा वह श्रीनाथजी थे जो चौथी मंजिल पर रहते थे।

“अरे एक थैला तो मुझे दे दीजिए।” पीछे से सीढ़ियां चढ़ती मीरा ने संकोच से कहा।

“मुझे आदत है आप जरा भी संकोच ना करिए।” और श्रीनाथजी ने दो मंजिल ऊपर मीरा के फ्लैट के सामने दोनों थैले रख दिए।

तब तक मीरा भी पहुंच गई “बहुत-बहुत धन्यवाद आपका। लिफ्ट भी खराब थी, मेरी तो हालत ही खराब हो गई। आप ना आते तो…” मीरा ने आभार प्रकट किया।

“इसमें धन्यवाद की क्या बात है, यह तो मेरा कर्तव्य है।” श्रीनाथजी ने विनम्रता से कहा।

“आइए ना एक कप चाय पीते जाइए।” मीरा ने सौजन्यता वश कहा।

क्षण भर सोचने के बाद वे सहर्ष तैयार हो गए और पुनः थैले उठा लिए। मीरा ने ताला खोला और अंदर आ गई। श्रीनाथजी ने थैले लाकर अंदर डाइनिंग टेबल पर रख दिए। मीरा उन्हें बैठने का कह कर चाय बनाने रसोई घर में चली गई। दो कप चाय और एक प्लेट में कुछ नमकीन तथा बिस्किट लेकर वह ड्राइंग रूम में आई तो देखा श्रीनाथजी एक पुस्तक पढ़ने में मगन थे। मीरा की आहट पर उन्होंने सर उठाया और मुस्कुराकर ट्रे से चाय का एक कप उठा लिया। सामने वाले सोफे पर बैठी मीरा थोड़ी असहज थी। श्रीनाथजी से कोई आत्मीय परिचय नहीं था उसका। सीढ़ियों पर अथवा परिसर में नमस्कार का आदान-प्रदान भर हुआ था। उसने तो यूं ही चाय का पूछ लिया, अब मीरा क्या बातें करें उनसे कि तभी श्रीनाथ जी ने स्वयं ही उसे उहापोह वाली असहज स्थिति से उबार लिया।


“आपको भी पढ़ने का खासा शौक लगता है, बहुत अच्छा कलेक्शन है।” श्रीनाथजी ने सामने शेल्फ पर करीने से रखी पुस्तकों को देखते हुए कहा।

“हाँ बचपन से ही है। आपको भी पुस्तकें पढ़ना पसंद है क्या?” मीरा ने पूछा।

“पसंद की क्या पूछती है मैं तो दीवाना हूँ। पसंद की किताब मिल जाए तो खाना सोना सब भूल जाता हूं जब तक कि पूरा न पढ़ लूँ।” वे जोर से बोले और फिर उन्होंने ढेर सारे लेखकों के नाम गिना डाले उनकी पसंद के और उनकी किताबों के नाम।

इनमें से कई पुस्तकें मीरा को भी बहुत प पुस्तकों की चर्चा ने उसकी असहजता को शीघ्र ही दूर कर दिया। अब वह खुले मन से बल्कि थोड़े उत्साह से बातें करने लगी। बरसों से उसे कोई ऐसा मिला भी तो नहीं था जिनसे वह इस तरह की चर्चा कर पाती। आधे घंटे बाद श्रीनाथजी विदा लेकर चले गए और एक किताब ले जाते हुए मीरा के लिए कल एक अच्छी पुस्तक लाकर देने का वादा भी कर गए।

उनके जाने के बाद चाय के खाली कप ट्रे में रखती मीरा की दृष्टि उन शेल्फ में रखी पुस्तकों की ओर गई। कविता, कहानियां, उपन्यास, दर्शन क्या नहीं था उन पुस्तकों में। लेकिन प्रकाश को पुस्तकों से खासी चीढ़ थी। जब भी मीरा की कोई किताब उसे ड्राइंग रूम, डाइनिंग अथवा बेडरूम में कहीं दिख जाती वह झल्ला जाता  “यह फालतू का कचरा यहां मत रखा करो।” मीरा गहरे तक आहत हो जाती। भरसक वह प्रयत्न करती कि कोई किताब प्रकाश की दृष्टि में ना आ जाए। ना चोरी, ना झूठ, ना कोई बुरा काम तब भी मीरा को प्रकाश से छुपाकर किताबें पढ़नी पड़ती थी। पढ़ने की जितनी अदम्य लालसा मीरा को थी प्रकाश के मन में उतना ही गहन अंधकार था। ज्ञान की एक छोटी सी किरण तक नहीं थी वहां। दस से पाँच तक की नौकरी फिर दोस्तों के साथ गप्पबाजी। पुस्तकों पर खर्च उसे पैसे की बर्बादी लगती।

मीरा की शुरू से इच्छा थी कि सुबह शाम की चाय पीते हुए वह अपने साथी से रोज किताबों पर, उनके पात्रों पर चर्चा करे। वह रूमानी कहानियों को पढ़ती तो अनायास ही खुद को उनकी नायिका के रूप में डालकर प्रकाश के साथ उस कोमल दृश्य की कल्पना करती। किंतु प्रकाश को यह सब बचकाना लगता, हास्यास्पद, भावनात्मक कमजोरी लगती और वह चिढ़ जाता। धीरे-धीरे मीरा की भावनाएं भी शुष्क हो गई। मर गया किसी के साथ की इच्छा का वह कोमल सा अंकुर। अजीब रुखा शुष्क व्यक्ति था प्रकाश। भावना शून्य सा। एकांत में मीरा अक्सर अकेलेपन की त्रासदी से घबरा कर रोने लगती। जीवन एकदम नीरस हो गया था। बिना पढ़े उसका दिन नहीं कटता था और ब्याह के बाद वह अक्षरों को देखने को तरस जाती। अखबार भी कहां लेता था प्रकाश।

दो बेटियों के जन्म के बाद उनके पालन पोषण में ही खुद को व्यस्त कर लिया मीरा ने। एक बौद्धिक साथी के साथ बौद्धिक वार्तालाप कर मस्तिष्क को तरोताजा करने की इच्छा ग्रीष्म की लता समान मुरझा गई।

बेटियों के विवाह के बाद तो खाली समय काटने को दौड़ता और वह पगला जाती। दो वर्ष पहले जब प्रकाश अचानक ही नींद में ही चल बसे तो शोक के बाद भी अंतर में कहीं एक शांति सी अनुभव की थी उसने और बेटियों के बहुत आग्रह के बाद भी उनके पास न जाकर यही रहने का फैसला किया। और सबसे पहला काम किया एक बुक्शेल्फ और ढेर सारी किताबें खरीदने का। उम्र भर की प्यास घूँट-घूँट करके तृप्त होने लगी। नई पुरानी जो किताब मिलती वह खरीद लाती। अब ड्राइंग रूम से रसोई घर तक, घर में हर कहीं किताबे रहती कोई टोकने वाला नहीं। लेकिन कहीं किसी कहानी, परिस्थिति अथवा पात्र पर चर्चा करने को उसका बौद्धिक मन कुलबुला जाता।


दूसरे दिन शाम को श्रीनाथजी पुस्तक लेकर हाजिर हो गए “यह लीजिए स्त्री मन की भीतरी दुनिया से परिचित करवाती बहुत ही अद्भुत पुस्तक है। मुझे विश्वास है आपको अवश्य ही पसंद आएगी।” उन्होंने एक उपन्यास मीरा को थमा दिया।

मीरा ने उन्हें बिठाया और दो कप चाय बना लाई। फिर तो पुस्तकों पर जो चर्चा छिड़ी तो चाय के दूसरे कप तक चलती रही। मीरा बहुत सालों बाद जैसे मन से मुस्कुराई थी। मस्तिष्क को एक स्वस्थ पोषण जो मिल रहा था। शाम बहुत अच्छी गुजरी। बातों ही बातों में श्रीनाथजी ने बताया कि उनकी पत्नी को भी पढ़ने का बहुत शौक था। दोनों साथ ही एक ही किताब पढ़ते थे और फिर घंटो उस पर चर्चा करते। बताते हुए उनका स्वर भावुक हो गया और मीरा के मन में एक हल्की सी ईर्ष्या जनित कसक उठ आई “काश मेरा  जीवनसाथी भी ऐसा ही होता।”

तभी पत्नी के गुजर जाने और दोनों बच्चों के विदेश में बस जाने के बाद उन्होंने वह घर छोड़ दिया और यहां फ्लैट में रहने आ गए। अब अकेलेपन के साथी यह किताबें ही हैं।

श्रीनाथ जी की शाम की चाय अक्सर ही मीरा के ड्राइंग रूम में पुस्तक चर्चा के साथ बीतती थी। 4:00 बजे से ही मीरा की आंखें घड़ी की ओर उठने लगती जब तक श्रीनाथजी आ न जाते। ना आते तो वह दिन अधूरा सा लगता। ढूंढकर मीरा ने अपनी चाय की केतली निकाली और केतली में चाय बनाकर टिकोजी से ढक कर रख देती ताकि बीच में उठकर चाय बनाने के कारण चर्चा में व्यवधान ना पड़े।

कभी श्रीनाथ जी की बाई ना आने पर मीरा उन्हें रात के खाने पर रोक लेती या कभी वह अपने घर पर मीरा का भी खाना बनवा लेते। अब तो मीरा का पढ़ने में और भी मन लगने लगा था। वह गंभीरता से पढ़ते हुए चर्चा के बिंदु याद रखती थी। चर्चा के बीच जब मीरा की बौद्धिक क्षमता की श्रीनाथजी प्रशंसा करते तो मीरा का मन उत्साह से भर जाता।

एक दिन श्रीनाथ जी ने आकर बताया कि शहर में पुस्तक मेला लगा है। मीरा खुश हो गई। दोनों वहां पहुंचे। मीरा को लगा जैसे वह किताबों के महासागर में आ गई है। सैकड़ों लेखकों की हजारों किताबें थी वहां। मीरा कभी एक शेल्फ की ओर जाती तो कभी दूसरे। जीवन में पहली बार उसने मनचाही, ढेर सारी किताबें खरीदी। उसने और श्रीनाथजी ने अलग-अलग किताबें खरीदी ताकि अदल बदल कर पढ़ सकें।

श्रीनाथजी की हर विषय पर सूक्ष्म पकड़ थी। स्त्री मन की अनछुई भावनाओं पर तो उन्हें जैसे महारत हासिल थी। स्त्री की मनोदशा और परिस्थिति जन्य व्यवहार को भी बड़ी गहराई से समझते थे। इतना सब होने पर भी उनका व्यवहार इतना गंभीर और परिपक्व तथा मर्यादित रहता कि मीरा उनके साथ बहुत ही सहज और आश्वस्त अनुभव करने लगती।

एक सुबह मीरा चाय का कप लेकर गैलरी में खड़ी थी कि देखा नीचे परिसर में श्रीनाथजी बैडमिंटन खेल रहे थे। युवाओं वाला जोश और फुर्ती थी उनमें। उत्साह उमंग से भरा जिंदादिल व्यक्तित्व था उनका। जीवन को भरपूर जीना आता था उनको। उनकी खिलखिलाहटो को सुनते हुए मीरा के मन में फिर एक कसक उठी ‘काश प्रकाश भी ऐसे जिंदादिल होते तो जीवन का आनंद ही कुछ और होता’  प्रकाश के शुष्क नीरस व्यक्तित्व ने संपूर्ण जीवन यात्रा को ही शुष्क, रूखा, मुरझाया हुआ बना डाला था। ताजगी विहीन जीवन बस चलती सांसों का नाम रह गया था। रस तो उसमें कभी रहा ही नहीं।

चाय खत्म कर मीरा जब नहाने जाने लगी तो हाथ अनायसा एक खुश रंग साड़ी की ओर बढ़ गया जिस पर खिले खिले फूल बने थे। चोटी बनाने बैठी तो हाथ अपने आप ही बिखरी लटों को सँवारने लगे। इस बार घरेलू सामान में एक ब्यूटी क्रीम और मॉश्चराइजर भी जुड़ गया। अब व्यवस्थित रहना खुद को ही अच्छा लगने लगा। वर्षो से बंद पड़ा रेडियो श्रीनाथजी से ही कह कर ठीक करवाया और सुबह रसोई घर में पुराने गानों की मीठी धुन के साथ कुछ अच्छा पकने लगा। रेडियो के साथ ही मीरा भी गुनगुना लेती। चादर, सोफे के कवर भी खुशनुमा रंगों में सजने लगे। जिंदगी जैसे उबाऊ अंधेरे से खुली खुली हवादार भोर के उजाले में पहुंच गई थी।


एक दिन श्रीनाथजी आए तो हाथ में एक छोटा सा पैकेट थमा दिया।

“यह क्या है?” उत्सुकता से पूछते हुए मीरा ने पैकेट खोला तो उसमें ढेर सारे कढ़ाई के धागे थे। हरे, नीले, पीले, गुलाबी, नारंगी। कितने सारे रंग थे “यह किसलिए?” मीरा ने अचकचा कर पूछा।

“कढ़ाई के धागों से तो कढ़ाई ही होती है ना तो अब खाली समय में अक्षरों के अलावा थोड़ा रंगों का भी साथ हो जाएगा।” श्रीनाथ जी ने मुस्कुराते हुए कहा।

“लेकिन आपको कैसे पता कि मुझे कढ़ाई करना पसंद है? मैंने तो बरसों से धागों को छुआ भी नहीं।” मीरा घोर आश्चर्य से बोली।

“तो अब छुइये ना। उस दिन आपने टिकोजी रखी थी केतली पर उसे देखते ही मैं समझ गया था कि आपको कढ़ाई आती है और वह आपके ही हाथों से बनी हुई है।” वह मुस्कुरा कर बोले।

मीरा के मन की धरती कहीं भीग गई। ऐसा क्यों होता है कि जिस व्यक्ति से आपके जीवन की डोर, रिश्ते की डोर जुड़ी होती है उससे मन की डोर नहीं बंध पाती और वह आपको उम्र भर समझ ही नहीं पाता। और वहीं दूसरी और जिसके साथ रिश्ते की कोई डोर नहीं होती उसके साथ मन ना जाने किस अदृश्य डोर से जुड़ जाता है कि वह आपकी पसंद नापसंद सब बिना कहे ही समझ जाता है।

उस शाम मीरा ने उनके जाने के बाद एक कपड़ा लिया और देर रात तक अलग-अलग रंगों से विभिन्न तरीकों से कढ़ाई के छोटे-छोटे नमूने काढ़ती रही। कपड़े के साथ ही मन भी रंगों में रंग गया जैसे। होंठ गुनगुनाने लगे। हृदय में एक सुखद पुलक उठने लगी जो एकदम नवीन थी। मीरा चौक उठी इस उम्र में? किंतु क्या अब भी मन में कुछ जीवित बचा रह गया है क्या? वह तो सोच रही थी कि उस उम्र में आकर तो मन कब का ही मर चुका है।

तभी जैसे भीतर से कोई बोला ‘मन किसी भी उम्र में आकर कभी मर जाता है क्या? नहीं मन सदा जीवित रहता है अपनी समस्त भावनाओं के साथ। भावनाएं कभी खत्म नहीं होती। मनुष्य जीवन भर उन्हें पूरी करने का प्रयत्न करता रहता है और पूरी ना हो पाए तो दबा देता है मन की भीतरी परतों में लेकिन वह मरती नहीं है।  बीज जैसे प्रतिकूल परिस्थितियों में मिट्टी के भीतर सुप्त, दबा रहता है वैसे ही मन की कोमल भावनाएं मन की भीतरी परतों में सुप्त पड़ी रहती हैं। लेकिन उनके भीतर कामनाओं, इच्छाओं का एक अंकुर सदा जीवित रहता है। मीरा के भीतर भी एक सुप्त अंकुर था, एक स्नेहिल आत्मीय साथ की इच्छा का अंकुर। जो प्रकाश से विवाह के बाद ही सुप्त हो गया था और अब इस उम्र के इस पड़ाव पर अचानक अंकुरित हो रहा है। मानो कहीं बसंत ने मन की मुरझाई डाल को हौले से छू लिया है, और अरुणिम आभा लिए एक नन्हीं कोपल फूट रही हो। श्रीनाथजी से मिलने के बाद ऐसा लग रहा है जैसे वह अंकुर बसंत के आ जाने जैसा अंकुरित हो रहा है। प्रेम की यह भावना नितांत अपरिचित मगर कितनी सुखद है। अनछुई, कुंवारी। जैसे उनसाठवें बरस का बसंत, कुंवारा बसंत। जो श्रीनाथजी की स्वस्थ मित्रता के रूप में, आत्मीय साथी के रूप में मन की डाली पर उतरा था। प्रेम का एक रूप स्वस्थ मित्रता भी तो है। और मित्रता की अपनी एक सुंदर रुमानियत होती है।

मीरा मुस्कुरा दी। खिड़की से हरसिंगार और परिसर में लगी रातरानी की महक से भीगी सुहावनी हवा भीतर आ रही थी। दूर गगन में चांद झिलमिला रहा था। मीरा ने सारे रंगीन धागे समेटकर तकिए के पास रख लिए और लाइट बंद कर दी। उनसाठ बरस के कुंवारे वसंत के अनछुए एहसासों को मन की डाल पर जीती मीरा तकिए पर सर रखे लेट गई। अब कल सुबह जल्दी उठकर कुछ और फूल काढ़कर श्रीनाथजी को दिखाने भी तो हैं और उनसे दाद भी तो लेनी है एक कप गर्म चाय के साथ।

विनीता राहुरीकर

 

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