उदार –  कंचन श्रीवास्तव 

अखबार के पन्ने पलटते पलटते ,रेखा की निगाह, ‘सामने बैठे चाय बिस्कुट का रहे रवि पर गई’।तो ,देखती रह गई,ऐसा लगा मानों मुद्दतो बाद देख हो,नहीं नहीं देखती तो रोज़ ही है पर शायद आज करीब से या ये कह लो मन की आंखों से देख रही है।

“चेहरे से बुढ़ापा झलकने लगा है।आंखें कुछ भीतर को धंस गई है बता रहे थे कि दांतों में दर्द रहता है”। पर उसने महसूस किया कि, अपनी तकलीफ़ कुछ बताते नहीं आजकल ,बताएं भी कैसे पहले से ही रोटीन दवा शुगर ,बीपी आदि की चल रही है ,ऐसे में अकसर वो देखती है नई बीमारियों की चर्चा नहीं करते , जब तक असहनीय न हो या खुद आकर वो न पूछे।

पहले से बहुत बदल भी गए हैं।हर वक्त छिड़कने वाले ,सबके सामने बेज्जत करने वाले ,बात बात पर मीन मेख निकालने वाले अब बहुत नरम हो गए हैं।

पहले तो घर से निकलने नहीं दिया, पर अपनी जिद्द वश जब वो घर से बाहर निकली तो धीरे धीरे जैसे जैसे उसने पूरा घर संभाला, वैसे वैसे उनके व्यवहार में भी परिवर्तन आ गया । अब जो भी करते ,बिना उसके राय मशवरा के न करते।वगैरा वगैरा, जैसी छोटी छोटी बातों से उसे ऐसा महसूस होता।

खैर  वजह कोई भी हो पर उसे उसका तबज्जों देना अच्छा लगता।

कहां उसकी कोई इज्जत नहीं थी, कहां अब उसी के सहारे पूरा घर चलने लगा। इसने भी अपने आप को काफी बदल लिया,भाई सारी जड़ पैसा था वो हल हो गया तो झगड़ा काहे का। घर में भी शांति रहने लगी । सब कुछ अच्छे से चलने लगा , वक्त के साथ बच्चे भी बड़े हो गए।




कहीं न कहीं ऐसे मोड़ पर है ,जहां  वे सब भी लग ही जाएंगे ।

पहले से बहुत बदल भी गए हैं।हर वक्त छिड़कने वाले ,सबके सामने बेज्जत करने वाले ,बात बात पर मीन मेख निकालने वाले अब बहुत नरम हो गए हैं।
पहले तो घर से निकलने नहीं दिया, पर अपनी जिद्द वश जब वो घर से बाहर निकली तो धीरे धीरे जैसे जैसे उसने पूरा घर संभाला, वैसे वैसे उनके व्यवहार में भी परिवर्तन आ गया । अब जो भी करते ,बिना उसके राय मशवरा के न करते।वगैरा वगैरा, जैसी छोटी छोटी बातों से उसे ऐसा महसूस होता।

वो सोचते हुए रसोई की तरफ जा रही थी कि डोर बेल बजी ,तो वो खोलने चली गई।

दरवाजा खोला तो सामने पड़ोस की अम्मा को मुस्कुराते पाया।

इस पर वो बोल पड़ी।

आइए आइए अम्मा पाय लागूं ,कैसी है कहते हुए झुकी और फिर उन्हें अंकवार करते हुए आइए आइए बैठक में ले गई।

और मुस्कुराने का कारण पूछा – तो वो बोली, कुछ नहीं बहुरिया ; तुम्हारे चेहरे पे ये सामंजस्य और संतोष देख के बड़ा अच्छा लगता है।

सच-मुच ,औरत वही जो दोनों कुल तारे।हमने तो तुम्हारे संघर्ष के दिनों को भी देखा है,जब तुम फटेहाल होकर भी   संतुष्ट रहती थी और आज जब भगवान की दया से अपने पैर पे खड़ी हो तब भी , पूरी गृहस्थी का बोझ अपने ऊपर ले लिया ।  वक्त के साथ कितनी गंभीर है गई हो।एक आवाज तक  सुनाई नहीं पड़ती।

इस पर ये बोली, हां अम्मा पहले जवानी थी तो उमंग था जोश था , शौक श्रंगार करने का ,तो पैसा नहीं था कमाई कम थी।




और अब पैसा है तो जिम्मेदारियां बहुत है।

फिर ढलते उम्र में क्या बोला जाए।

जब जवानी में नहीं समझे तो बुढ़ापे में क्या।

अब तो जिंदगी कट ही जाएंगी बस दोनों बच्चे दरे दामें लग जाए बस।

कहती हुई, चाय बिस्कुट खाकर अखबार का पन्ना पलटते हुए ,रवि को आवाज लगाकर बोली।

सुनते हैं अम्मा आई है , बुला रहीं आइए।

अम्मा ने महसूस किया ये वही रीना थी जिसने  वक्त के साथ खुद को कैसे बदल दिया, अपने आप को ,पति, बच्चे,घर परिवार के बीच  जहां आपस में जरूरत से ज्यादा वैमनस्य थी।

वही अपने पैर पर खड़ी होते ही सब कुछ संभाल ली।

उसका कहना है कि जब  जवानी में नहीं समझे तो बुढ़ापे में क्या कहें।

अब तो उम्र ढल गई।




ये सुन अम्मा ने दोनों हथेलियों में चेहरे को भर माथा चूम लिया।

और बोलीं – तुम्हें देख के लगा कैसे वक्त और  अपनों के साथ स्त्री खुद को ढाल लेती है।

पति कैसा भी हो निभा ही लेती है। भ्रार्या से कब मां का वात्सल्य आ जाता है ,उसमें पता ही नहीं चलता। देखते देखते ढलते उम्र के साथ उसके साथ उदार हो जाती है।

 कंचन श्रीवास्तव

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