त्याग की मूर्ति  – कमलेश राणा

 बड़ी खूबसूरत थी वो,, रंग एकदम गोरा, तीखे नैन नक्श, बड़ी_ बड़ी आँखें, नाज़ुक सी देहयष्टि , हर दम होठों पर विराजमान मोहक मुस्कान, भोली भाली, वंदना नाम था उसका,,

जो भी एक बार देख ले उसे ,भूल ही नहीं सकता,, ऐसा कुछ था उसके व्यकित्व में,, लड़के आहें भरते कि एक नज़र तो देख ले जालिम,, पर वो इस सबसे बेपरवाह अपने में ही मस्त रहती,,

मेरा नया_ नया एडमिशन हुआ था कॉलेज में,, 2 -3 दिन में ही कई लड़कियों से परिचय हो गया,, मेरी क्लास फेलो थी रेणु,, उसी के पड़ोस में रहती थी वंदना,, हमारी जूनियर थी वो,,

रेणु का घर कॉलेज के रास्ते में पड़ता था,, अत: वो मेरे आने का इंतज़ार करती और फिर हम तीनों साथ साथ कॉलेज जाते,, इस तरह वंदना भी मेरी अच्छी सखी बन गयी,,

मेरे पापा का ट्रांसफ़र हो गया और हम दूसरे शहर चले गए,, उस समय फोन की सुविधा नहीं थी तो संपर्क पूरी तरह से टूट गया और सब अपनी दुनियां में खो गये,,

कई साल बाद वो अचानक बाजार में मिल गयी,, मेरा नाम ले कर आवाज़ दी उसने तो चौँक कर देखा मैंने,, ओह!! वंदना,, कितना सुखद आश्चर्य है यार,, तुम यहाँ कैसे,, माँग का सुर्ख सिंदूर उसकी खूबसूरती में चार चाँद लगा रहा था,,

अच्छा ये बता,, तू कहाँ रहती है,,

मैंने कहा,, यहीं पास में,, वो बोली ,, तो फिर शाम को पार्क में मिलते हैं,, मैं रोज शाम को बच्चों को पार्क में ले कर आती हूँ,, वहीं ढेर सारी बातें करेंगे,,



मन में ढेर सारी बातें कुलबुला रही थी,, बहुत कुछ कहना सुनना था एक दूसरे से,, लग रहा था कब शाम हो और कब मिलें,,

शाम को वंदना इंतज़ार करती मिली,, शायद दोनों का ही हाले दिल एक जैसा ही था,, दौड़ कर गले लग गई वो,, पास में ही दो छोटे छोटे बच्चे खेल रहे थे,, बड़े प्यारे बच्चे हैं, मैंने उनकी ओर देखते हुए कहा,,

काफी लेट हुए हैं क्या तुम्हें बच्चे,, बोली,, मेरे पोते हैं ये,, क्या,, ये क्या कह रही हो वंदना,, 38 की उम्र में,, पोते,, हाँ,, सच कह रही हूँ,,

आगे जो उसने बताया,, सुनकर सुन्न हो गयी मैं,, विधाता किसी की किस्मत लिखते हुए, इतना क्रूर कैसे हो सकता है,,

उसके पापा की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी,, उसकी शादी के लिए बहुत चिंतित थे वो,, तभी किसी ने बताया कि डॉक्टर रवि, जो कि विधुर थे,, दूसरी शादी के इच्छुक थे,, उन्हें ऐसी लड़की की तलाश थी जो उनका घर संभाल ले,, उनके तीन बच्चे थे जिनकी उम्र क्रमश:22,20 और18 sal थी,, और डॉक्टर साहब की 50 साल,, एक अल्हड़ नवयुवती तीन समवयस्क बच्चों की माँ बन गई,, हर कोई उससे यही उम्मीद करता कि वह बच्चों से माँ जैसा बर्ताव करे,, पर उसके लिए तो वे सखा समान ही थे,, हालात ने उसे 25 साल की उम्र में ही प्रौढ़ बनने पर मजबूर कर दिया था,,

उसके अरमान, शौक, सपने सब जिम्मेदारियों की भेंट चढ़ा दिये गये,, पति को बस परिवार संभालने वाली की जरूरत थी,, शौक तो सब पहले ही पूरे हो चुके थे उनके,, जब उसने अपने बच्चे के लिए कहा एक दिन तो वो बोले,, तुम्हारे घरवालों ने बताया नहीं तुम्हें,, मेरी तो पहले ही नसबंदी हो चुकी है,, सब कुछ पहले ही क्लीयर कर दिया था मैंने तो,,

तब से गीली लकड़ी की तरह सुलग रही हूँ,, आज पहली बार तुम्हारे सामने दिल की बात कह पाई हूँ,,कहूं भी तो किससे उन माता पिता से जिन्होंने जीते जी मुझे त्याग की मूर्ति बनाकर महिमा मंडित कर दिया या उस पति से जिसके लिए मैं सिर्फ और सिर्फ एक नारी देह मात्र हूँ,, 

मैं नि:शब्द थी,, उसको ढाढस बंधाने के लिए क्या कहूँ, समझ नहीं पा रही थी,, बस मेरे गालों पर लुढ़कते हुए आँसू उसके प्रति मेरी संवेदना जाहिर कर रहे थे,, पर क्या सचमुच यह पर्याप्त था उसके लिये या यह उस मानसिकता पर बेबसी के परिचायक थे,, जहाँ इंसान स्वार्थपूर्ति के लिए दूसरे को त्याग करने के लिए बाध्य करता है,,

 #त्याग  

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