टूटी हुई बांसुरी – देवेंद्र कुमार Moral Stories in Hindi

रामदेव व्यापारी थे। नंदनगर के बड़े बाजार में दुकान थी। मंडी में उनकी अच्छी साख थी। परिवार में पत्नी रेवती तथा दो बच्चे-अचल और जूही थे।सर्दियों का मौसम था। रामदेव रेवती और बच्चों के साथ मकान की छत पर बैठे थे। घर के सामने बगीचा था। देखा, वहाँ बैठा एक व्यक्ति बाँसुरी बजा रहा है। रामदेव ने नौकर से कहा, “बाग में जो आदमी बाँसुरी बजा रहा है, उसे बुला लाओ।”
थोड़ी देर में नौकर वापस आ गया। बोला, “उसने आने से मना कर दिया। कह रहा था, जिसे मेरी बाँसुरी सुननी हो यहीं आ जाए।” रामदेव बाग में जा पहुँचे। बाँसुरी वादक के निकट गए। वह तन्मय होकर बाँसुरी बजा रहा था। फिर उसने बाँसुरी रख दी। रामदेव से आँखें मिलीं तो हँस पड़ा।रामदेव ने अपना परिचय दिया। उसने अपना नाम अशोक बताया। अशोक का बाँसुरी वादन मशहूर था। रामदेव ने भी उसकी प्रशंसा सुनी थी।
अशोक ने पूछा, “क्या थोड़ी देर पहले मुझे आपने ही बुलाया था?”
रामदेव ने कहा, “हाँ।”
“मेरा इनकार सुनकर गुस्सा आया होगा।”
“अगर ऐसा होता तो मैं यहाँ कैसे आता। मैं समझ गया कि तुम्हारे इनकार में एक कलाकार का स्वाभिमान बोल रहा है। अगर बुरा न लगे तो अब चलो मेरे साथ।” रामदेव ने कहा।
रामदेव के इतना कहते ही अशोक उठकर उनके साथ चल दिया। छत पर रामदेव के परिवार के बीच बैठकर बातें करता रहा। रेवती और बच्चों के कहने पर उसने फिर बाँसुरी बजाई।
उस दिन से रामदेव और अशोक के बीच मैत्री के बीज पड़ गए। अशोक दूसरे शहर में रहता था लेकिन संगीत समारोहों के लिए अकसर यात्राएँ किया करता था। जब भी नंदनगर आता रामदेव से अवश्य मिलता।
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समय के साथ परिस्थितियाँ बदल गईं। रामदेव का व्यापार मँदा होने लगा। किसी के साथ मिलकर नई दुकान खोली थी। उसने धोखा दिया। गहरा घाटा हुआ। एक साथ काफी पैसा डूब गया। पुरानी दुकान पर भी इस घाटे की छाया पड़ने लगी। बाजार में रामदेव की साख पर उँगलियाँ उठने लगीं।
और फिर एक दिन ऐसा भी आया जब रामदेव का सब कुछ जाता रहा। लेने वालों ने घेर लिया। रामदेव ने संपत्ति बेचकर कर्ज चुकाया। आत्मसम्मान तो बच गया, पर पास में कुछ न बचा। आखिर रामदेव ने नंदनगर छोड़कर अपने गाँव जाने का निश्चय किया। गाँव में पुरखों का मकान और थोड़ी-सी जमीन थी।
आज नंदनगर में रामदेव का आखिरी दिन था। बैलगाड़ी वाले को सुबह बुलाया था। रेवती चाहती थी कि वे सूरज निकलने से पहले ही शहर छोड़कर चले जाएँ। रात को पूरा परिवार एक कमरे में बैठा था। यह हवेली भी बिक चुकी थी। बिक्री की शर्त के अनुसार उन्हें अगली सुबह तक मकान खाली कर देना था।
सब खामोश थे। रेवती की आँखों में आँसू थे। जूही और अचल भी सहमे हुए थे। रामदेव पत्नी को समझा रहे थे कि जल्दी ही सब ठीक हो जाएगा। लेकिन मन में खूब जानते कि ऐसा कुछ नहीं होने वाला था। रह-रहकर मन में एक बात आती, “बहुत दिनों से अशोक से भेंट नहीं हुई। कल के बाद न जाने क्या हो। उसे भला क्या पता होगा कुछ।‘’
लेकिन फिर लगता- वह भी औरों जैसा ही है। संकट में तो सभी मुँह फेर लेते हैं।पता नहीं क्यों अशोक के प्रति मन में गुस्सा था। सोच रहे थे -वह तो मुझे अपना गहरा मित्र कहा करता है। ऐसा नहीं हो सकता कि उसे मेरा हाल पता न हो। वह एक बार भी पूछने नहीं आया. | यही सब सोचते-सोचते नींद आ गई। फिर हड़बड़ाकर उठे तो रात बीत गई थी।
रेवती ने बताया, “बैलगाड़ी आ गई है।”
रामदेव चुपचाप आकर बैलगाड़ी मैं बैठ गए। बैलगाड़ी चर्र-चूँ करती हुई बढ़ चली। सबकी नजरें मकान के दरवाजे पर टिकी थीं। रामदेव सोच रहे थे, “यह आखिरी बार है। शहर और मकान सदा को छूटे जा रहे थे।”
दिन निकल आया। नंदनगर कब का पीछे छूट गया था। धूप तेज हुई, तो गरमी सताने लगी। गाड़ीवान ने घने पेड़ के नीचे बैलगाड़ी रोक दी।
पास में ही कुआँ था।सब एक चादर पर जा बैठे। रेवती ने कुछ खाने को कहा तो रामदेव ने मना कर दिया। मन बेचैन था। अपने को बहुत समझा रहे थे। पर भविष्य की चिंता पीछा नहीं छोड़ रही थी।
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रेवती पति के मन की पीड़ा खूब समझ रही थी। बोली, “आप इस तरह परेशान दिखाई देंगे तो बच्चे बहुत उदास हो जाएँगे।”एकाएक कहीं से बाँसुरी का सुर उभरने लगा।रेवती के मुँह से निकला, “सुना आपने।”
रामदेव ने इधर-उधर देखा, पर बोले कुछ नहीं।आवाज फिर आई। “ध्यान से सुनो।” रेवती ने कहा। रामदेव उठ खड़े हुए। उन्होंने रेवती की बात का कोई जवाब नहीं दिया। फिर बोले, “अब हमें चलना चाहिए। अगर ज्यादा देर रुकेंगे तो गाँव पहुँचने में आधी रात हो जाएगी।” उन्होंने गाड़ीवान को तुरंत चलने को कहा।
पति की हड़बड़ी देखकर रेवती को आश्चर्य हो रहा था। पर वह चुप रही। रेवती बैलगाड़ी में बैठने जा रही थी कि उसकी नजर एक छोटी-सी पोटली पर पड़ी। रेवती ने पोटली उठाकर खोल ली। उसमें से कुछ नोट जमीन पर गिर पड़े। “देखना, यह क्या है?” रेवती ने पति को पुकारा।
रामदेव बैलगाड़ी से उतर आए। उन्होंने जमीन पर बिखरे नोट देखे तो बोले, “होंगे किसी के। क्या तुम इन्हें लेना चाहती हो? इतनी जल्दी क्यों हिम्मत हार गईं। बुरे दिन आए हैं तो अच्छे भी आएँगे कभी।”
पति का उलाहना सुन, रेवती की आँखों में आँसू बह चले। बोली, “मैंने कब कहा कि ये रुपए हमें लेने चाहिए। मैं तो…मैं तो…तुम्हें बस देखने के लिए पुकार रही थी।”
सफर फिर से शुरू हुआ। दोपहरी ढल गई। बच्चे भूख-प्यास से परेशान थे। सुबह से कुछ खा नहीं सके थे। थोड़ी दूर पर एक झुरमुट में गाड़ीवान ठहर गया। बोला, “बैल थक गए हैं।”
फिर पास ही बाँसुरी का सुर सुनाई दिया। रेवती ने रामदेव की ओर देखा। उनके चेहरे पर गुस्सा झलक रहा था। चिल्लाकर बोले, “अब हम गाँव पहुँचकर ही आराम करेंगे। रास्ते में कहीं नहीं रुकेंगे।” उन्होंने गाड़ीवान को आवाज दी।
गाड़ीवान दौड़ता हुआ आ पहुँचा। उसने रामदेव के हाथों में कुछ थमा दिया। वह देखकर चौंक उठे। वह थी एक टूटी हुई बाँसुरी। उतावले स्वर में पूछने लगे, “यह टूटी बाँसुरी तुम्हें किसने दी, कहाँ से लाए?”
“जी, वहाँ एक आदमी खड़ा है, उसी ने दी है।” गाड़ीवान ने एक पेड़ की तरफ इशारा किया।
रामदेव टूटी बाँसुरी हाथ में लिए खड़े रहे, जैसे कोई गहरी बात सोच रहे हों। फिर धीरे-धीरे उस पेड़ की तरफ चल दिए। ऊँची आवाज में बोले, “आ जाओ, मैं हार मानता हूँ।मैंने तुम्हारे बारे में न जाने क्या क्या सोच लिया था। मैं गलत था।”
रामदेव के कहते ही पेड़ के पीछे से निकलकर एक आदमी उनसे लिपट गया। वह अशोक था।
रेवती बोली, “बाँसुरी की आवाज सुनकर मुझे आपका ख्याल आया था। वहीं रुपयों की पोटली मिली थी। न जाने किसकी थी।”
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“और किसकी होगी, इसी की थी। मैं रुपए देखते ही समझ गया था।” रामदेव ने हँसकर कहा। “मुझे यह समझते देर न लगी कि अशोक हमारे साथ-साथ चल रहा है।”
“अगर आप समझ गए थे तो रुके क्यों नहीं। मेरे पूछने पर कुछ बताया क्यों नहीं!” रेवती ने कहा।
अशोक बोला, “सबके साथ-साथ रामदेव मुझसे भी नाराज हैं। मैंने देख लिया था कि यह बाँसुरी की टेर सुनकर नहीं रुके। रुपयों की पोटली देखकर नाराज हुए तो फिर मैंने बाँसुरी तोड़कर भेज दी।”
“तोड़कर क्यों?” रेवती ने पूछा।
रामदेव ने कहा, “टूटी बाँसुरी भेजने का मतलब यही था कि अब भी अगर मुझसे नहीं मिले तो मैं बाँसुरी बजाना छोड़ दूँगा। इसके बाद तो मुझे अपनी भूल पता चल गई| ” और वह हँस दिए।
अशोक बोला, “मुझे आपकी सारी हालत मालूम थी। पर मैं समझ नहीं पा रहा था कि आपसे कैसे बात करूँ। इसीलिए छिपकर साथ-साथ चल रहा था। अब आपको मेरे साथ चलना होगा।”
“लेकिन कहाँ?” रेवती ने पूछा।
“मेरे घर। मैं गरीब बाँसुरी वादक सही लेकिन…” कहते-कहते अशोक की आँखों से आँसू बहने लगे।
रामदेव अशोक का कँधा थपथपाने लगे। बोले, “बाँसुरी बजाना छोड़ने की बात सपने में भी मत सोचना। तुम जैसा कहोगे, मैं करने को तैयार हूँ।”
कुछ देर बाद खुले आकाश के नीचे एक अनोखी संगीत सभा जुड़ी। दूर तक फैले हरे भरे खेत, पश्चिम में डूबता सूरज का लाल गोला और आँखें मूँदकर तन्मयता से बाँसुरी बजाता अशोक। रामदेव के साथ-साथ रेवती की आँखें भी गीली थीं।
(समाप्त )

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