“तू मेरा सहारा और मैं तेरा” – ऋतु अग्रवाल

     “सुभीत! आप समझ नहीं रहे। नौकरी करने का उद्देश्य एकमात्र पैसे कमाना नहीं होता। हम काम इसलिए भी तो करते हैं ताकि आत्मनिर्भर बन सकें, कुछ नया सीख सकें, स्वयं को व्यस्त रख व्यर्थ की बातों और उधेड़बुन से दूर रह सकें।” मालिनी अपना पक्ष रख रही थी।

       “मालिनी! मैं तुम्हारी बातों से सहमत हूँ पर माँ- बाबूजी का क्या करूँ? वह कभी राजी नहीं होंगे। फिर संयुक्त परिवार की जिम्मेदारी, बच्चों की परवरिश इन सब पर भी तो असर पड़ेगा।” सुमित ना चाहते हुए भी परिवार के दबावस्वरुप अपनी काबिल पत्नी को नौकरी करने से रोकने को मजबूर था।

       “सुभीत! आप पहले आराम से बैठिए और फिर मेरी बात ध्यान से सुनिए। देखिए, बच्चे अब बड़े हो रहे हैं। अपने अधिकतर कार्य वे स्वयं कर लेते हैं।

यहाँ तक कि अपनी पढ़ाई के लिए भी अब वे मुझ पर ज्यादा आश्रित नहीं रहते और रही बात संयुक्त परिवार की जिम्मेदारियों की तो सुभीत, संयुक्त परिवार का अर्थ होता है कि सभी दायित्वों का पालन संयुक्त रूप से सभी करें। जेठानीजी तो अपनी उम्र का हवाला देकर चुटपुट काम निपटाकर आराम करने चली जाती है या फिर दोपहर में पड़ोसियों के साथ बैठकर गपशप करती हैं पर आप जानते हैं कि मुझे यह सब पसंद नहीं है। मैं अपने समय का सदुपयोग करना चाहती हूँ। शादी से पहले और बाद भी तो मैं नौकरी करती रही थी पर फिर अंशुल के जन्म के पहले बच्चे की परवरिश के नाम पर आपने मेरी नौकरी छुड़वा दी थी। मैं भी चाहती थी कि मेरे बच्चों की परवरिश के आड़े मेरी नौकरी न आए इसीलिए मैंने भी आपकी बात को मान देते हुए स्वेच्छापूर्वक त्यागपत्र दे दिया था पर सुभीत, अब मैं फिर से काम करना चाहती हूँ और माँ-बाबू जी से आप बात करो। मैं घर की जिम्मेदारियों से मुँह नहीं मोड़ूँगी। सुबह का काम भाभी और मैं मिल बाँटकर कर लेंगे। दोपहर का काम भाभी सँभाल लें और शाम का काम मैं ऑफिस से आकर सँभाल लूँगी पर इसमें मुझे आपका साथ चाहिए घरवालों की स्वीकृति पाने के लिए।” मालिनी हसरत भरी निगाहों से सुभीत को देखने लगी।




         “ठीक है, मैं बात करता हूँ।” सुमित ने मालिनी के हाथ पर हाथ रख भरोसा दिलाया।

     पता नहीं सुमित ने क्या जादू चलाया कि मालिनी को नौकरी करने की अनुमति मिल गई। घर बाहर की दोहरी जिम्मेदारियों को सँभालते सँभालते कभी-कभी मालिनी थकने लगती थी पर कुछ कर गुजरने का जज़्बा फिर से उसमें हौंसला भर देता था। मालिनी और सुमित की संयुक्त आमदनी की वजह से बच्चे अपनी मनपसंद शिक्षा की डिग्रियाँ लेकर अच्छे पदों पर कार्यरत हो गए।

        जीवन के पचास वसंतों के खुशनुमा बयारों को पार करने वाले सुभीत को अचानक एक रात दिल का दौरा पड़ा। अपनी जिजीविषा और मालिनी की सेवा के फलस्वरुप सुधीर मौत के मुँह से तो बच गए पर कमजोरी इतनी आ गई कि हर कार्य को करते हुए घबराने लगे। मालिनी ने उनसे जबरदस्ती त्यागपत्र लिखवाया। वह नहीं चाहती थी कि घबराहट और काम के बोझ तले दबकर सुभीत की हालत ज्यादा खराब हो जाए।

      “मालिनी! मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता कि मैं नौकरी छोड़ घर बैठा हूँ और तुम घर बाहर दोनों जगह पिस रही हो।” सुभीत बहुत उदास और खिन्न थे।

       “आप ऐसा क्यों सोचते हैं,सुभीत? जीवन की इस बेला में हम दोनों ही एक दूसरे का सहारा है। जब आप काम करते थे तो मैंने तो कभी नहीं सोचा कि मैं बैठ कर खा रही हूँ। पति पत्नी के बीच मेरा तेरा कुछ नहीं होता। आप प्लीज, ऐसा वैसा कुछ मत सोचिए। मेरे लिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण आप हैं और कुछ नहीं।” मालिनी ने सुधीर का सिर सहलाते हुए कहा।

      “हाँ! मालिनी, तुम सही कहती हो। अब तुम मेरा सहारा हो और मैं तुम्हारा सहारा।” कहकर सुभीत ने मालिनी की गोद में सिर छुपा लिया।

 

मौलिक सृजन 

ऋतु अग्रवाल 

मेरठ

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