तिरस्कृत कौन – ऋतु अग्रवाल 

   “रोज रोज एक ही बात! थक गया हूँ तुम्हारी बकवास सुनकर। तुम समझती क्यों नहीं? जितनी मेरी आमदनी है उतना ही तो खर्च करने के लिए दे सकता हूँ।

तुम्हें मेरी आमदनी के हिसाब से ही खर्च करना चाहिए।” रोज रोज की किचकिच से अभिषेक परेशान हो चुका था।

       “अभिषेक! तुम्हारा तो रोज का रोना है। जितना घर खर्च तुम मुझे देते हो, उतने में सिर्फ रसोई का खर्च और बच्चों की फीस का ही पूरा पड़ता है। इसके अलावा और भी खर्चे होते है। तुम्हें पता भी है! मैंने पिछले कई महीनों से ना कोई नई साड़ी खरीदी है और ना ही कोई सजावटी सामान। यहाँ तक कि अब तो मेरी किटी की सहेलियाँ भी कहने लगी हैं कि शेफाली, तुम अपनी साड़ियाँ रिपीट क्यों करती हो। तुम सोच भी नहीं सकते कि मुझे कितनी शर्मिंदगी झेलनी पड़ती है और तुम्हें याद भी है कि हम पिछली बार डिनर के लिए बाहर कब गए थे?” शेफाली का गुस्सा सिर चढ़कर बोल रहा था।

      “देखो, शेफाली! मैं मानता हूँ कि जितना तुम चाहती हो मैं उतना नहीं कमा पाता पर इसके लिए हमारी जीवनशैली जिम्मेदार है। इतना बड़ा फ्लैट और सुख-सुविधाओं की ईएमआई चुकाने में ही मेरी तनख्वाह का एक बड़ा हिस्सा चला जाता है। तुम हर चौथे दिन शॉपिंग करना चाहती हो, वह कोई जरूरी नहीं है। शेफाली, मेरी आमदनी इतनी भी कम नहीं है कि चार जनों का खर्च आराम से ना चल सके। तुम्हारे अनाप-शनाप के खर्चे और अपनी सहेलियों के साथ दिखावे की होड़ हमें बर्बाद कर देगी। अपने खर्चों पर नियंत्रण रखो।” अभिषेक ने शेफाली को समझाना चाहा।

      “ये कहो ना कि तुम्हारे बस का नहीं है हमारी जरूरतें पूरी करना। तुम इतने बड़े नाकारा हो, मुझे नहीं पता था। तुम जैसे निकम्मे इंसान को शादी करने का कोई हक नहीं। तुमसे शादी करना मेरी बहुत बड़ी भूल थी।” शेफाली क्रोध में अभिषेक को तिरस्कृत करने पर उतर आई।



       “बस शेफाली, अगर मैं निकम्मा हूँ और तुम्हारी जरूरतें पूरी कर नहीं कर सकता तो तुम मुझे छोड़ सकती हो। मैं तुम्हें स्वतंत्रता देता हूँ। तुम अपने माता-पिता के पास जा सकती हो या फिर मैं ही यह घर छोड़कर चला जाता हूँ।”कहकर अभिषेक घर के बाहर निकल गया।

         क्रोध में शेफाली अपना बैग पैक करके अपने माता-पिता के घर चली गई। शेफाली के माता-पिता ने उसे बहुत समझाया, बच्चों का हवाला दिया पर शेफाली जिद पर अड़ी रही। जब भी अभिषेक उसे फोन करता, वह कटु शब्दों से अभिषेक का तिरस्कार करती।अभिषेक घर, बच्चों, ऑफिस को सँभालते सँभालते थक चुका था। आखिरकार अभिषेक ने थककर शेफाली को तलाक के कागजात भेज दिए। शेफाली अचंभित रह गई। उसने अभिषेक को अदालत में घसीट लिया। तरह तरह के आरोप दोनों पक्षों पर लगे। अंततः एक भारी रकम लेकर शेफाली ने अभिषेक को तलाक दे दिया। बच्चों की कस्टडी अभिषेक को मिली।

       शेफाली बहुत खुश थी। अब वह अपनी मर्जी से जी सकती थी, खर्च कर सकती थी, घूम फिर सकती थी,ऐश कर सकती थी  शेफाली ने अपनी सहेलियों से संपर्क किया तो सभी ने उस से कन्नी काट ली थी। जब भी वह अपने बच्चों से मिलना चाहती तो बच्चे उससे मिलने से मना कर देते। रिश्तेदारों, पड़ोसियों ने शेफाली से बात करना बंद कर दिया।

     “मम्मी,आखिर मैंने ऐसा क्या किया है कि हर कोई मुझे तिरस्कृत और अपमानजनक दृष्टि से देखता है?”

शेफाली रो पड़ी।

       “बेटा, स्त्री घर को जोड़ती है पर तूने क्षणिक सुख के लालच में अपना घर खुद ही तोड़ दिया। अभिषेक की गलती होती तो हम खुद उसे सजा देते पर यहाँ गलती तुम्हारी थी। तुम बार-बार अभिषेक का तिरस्कार कर रही थीं। वह सहता रहा पर अब जब समाज तुम्हारा तिरस्कार कर रहा है तो उसे सहो। यही तुम्हारा प्रारब्ध है क्योंकि जो दोगे वही तुम्हें मिलेगा।” माँ ने तिरस्कार भरी दृष्टि से शेफाली की और देखा तो उसकी रुलाई छूट गई। 

 

मौलिक सृजन 

ऋतु अग्रवाल 

मेरठ

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