“तिरस्कार कब तक”? – प्रीती श्रीवास्तवा : Moral Stories in Hindi

समीरा का जन्म एक मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ था। वह अपने माता-पिता की पहली संतान थी, लेकिन बेटी होने के कारण उसका स्वागत खुशी से नहीं हुआ। जब वो पैदा हुई, दादी ने कहा, “लड़की हुई है? हाय राम! बेटा होता तो वंश चलता।” माँ की आँखों में भी एक अजीब सा खालीपन था, जैसे वो खुद को दोष दे रही हो।

बचपन से ही समीरा को यह अहसास कराया गया कि वह “बोझ” है। जब भी वह पढ़ाई में अव्वल आती, कोई तारीफ नहीं करता, उल्टा कहा जाता, “इतना पढ़-लिखकर क्या कर लेगी? आखिर में चूल्हा-चौका ही तो करना है।”

समीरा का भाई जब पैदा हुआ, तब घर में मिठाइयाँ बँटीं। समीरा को पहली बार लगा कि उसके होने या न होने से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। स्कूल में शिक्षक तारीफ करते, लेकिन घर में उसके हुनर की कोई कद्र नहीं थी।

उसका सपना था – एक स्वतंत्र जीवन। वह एक लेखिका बनना चाहती थी, लेकिन समीरा की माँ पुराने सोच की थी कहती, “लड़कियों के सपने नहीं होते, सिर्फ जिम्मेदारियाँ होती हैं।”

  ” ये सब सपने तो लड़के देखते हैं “। क्योंकि उन्हें बड़ा होकर पैसे कमाना होता है घर चलाना होता है।तू क्या करेगी ये सब करके?

समीरा को जैसे-तैसे ‘बीए’ तक ही पढाया गया। बीए के द्वितीय वर्ष आते-आते समीर के पिताजी उसकी शादी खोजने लगें। आखरी वर्ष पूरा होते ही ,समीरा की शादी तय कर दी गई। लड़का था – राहुल, एक बड़े बिज़नेस परिवार से। लड़के वाले दहेज की सीधी माँग नहीं करते, लेकिन इशारों में सब कुछ साफ था — “हमारी बहू को किसी चीज़ की कमी नहीं होनी चाहिए…”

 वक्त कहाँ ठहरता है – गोमती सिंह 

शादी भव्य हुई, लेकिन ससुराल में प्रवेश करते ही समीरा ने समझ लिया कि यहां भी उसे स्वीकार नहीं किया जाएगा । उसकी सास ने पहले ही दिन से उससे काम कराना शुरू करा दिया , छोटी सी भी गलती पर बहुत सारे नुक्स निकाले जाते थे । अंत में उसकी सास ने कह ही दिया , “हमने सोचा था कोई संस्कारी बहू आएगी, लेकिन ये तो पढ़ी-लिखी घमंडी निकली।”

समीरा हर दिन घर के कामों में लगी रहती, सबका ख्याल रखती, हर एक काम अच्छे ढंग से करती थोड़ा भी आराम नहीं करती, हमेशा सबको खुश करने की कोशिश में लगी रहती थी,फिर भी उसकी सास के हिसाब से कोई काम सही नहीं होता। उसकी शिक्षा, उसकी बातें, उसका पहनावा – सब उसके ससुराल वालों को गलत लगता था। पति राहुल शुरू में कुछ बोलता नहीं, लेकिन धीरे-धीरे वो भी माँ के प्रभाव में आ गया।

राहुल अक्सर ताना देता, “तुम्हारे जैसे खुले विचारों वाली लड़कियाँ घर नहीं संभाल सकतीं।” अगर कभी समीरा ने विरोध किया, तो जवाब मिलता — “ज्यादा मुँह मत चलाओ, बहुएं सेवा करती हैं, उपदेश नहीं देतीं।”

एक दिन समीरा बहुत बीमार हो गई। उसे बहुत तेज बुखार था। जैसे- तैसे करके समीर ने डॉक्टर को फोन करके घर पर बुलाया

डॉक्टर ने कहा, “अगर समय पर अस्पताल नहीं ले जाई जाएगी, तो कुछ भी हो सकता है।” लेकिन उस दिन भी कोई साथ नहीं दिया । राहुल ने बोला ऐसी छोटी-मोटी बीमारी तो होती रहती है। इसमें अस्पताल ले जाने वाली क्या बात है ?सास ने कहा, “ड्रामा मत करो, आराम कर लो ठीक हो जाओगी।”

समीरा खुद रिक्शा लेकर अस्पताल पहुँची। भर्ती हुई, इलाज हुआ — अकेले। माँ को फोन किया समीर की मां उसे देखने अस्पताल आई, समीर जब थोड़ी ठीक हुई तो उसने ससुराल की सारी बातें अपनी मां को बताई और कहा मां मैं अब अपने ससुराल में नहीं रहना चाहती। वहां मेरी सास मुझे हमेशा ताने मारती रहती है। और राहुल भी मेरा साथ नहीं देते हैं। वह भी हमें खरी खोटी सुनाते रहते हैं ।बीमारी में भी किसी ने मेरा साथ नहीं दिया। 

वक्त की लकीरें – भगवती सक्सेना

       समीरा को अपनी मां से जवाब मिला,” हमें बदनामी नहीं चाहिए।” तुम्हें अपनी बाकी की जिंदगी भी वही गुजरनी होगी। शादी के बाद ससुराल ही लड़कियों का घर होता है। अच्छा चाहे बुरा “अब वह ही तेरा घर है”। इतना कहकर समीर की मां अपने घर चली गई।

उस रात अस्पताल के कमरे में लेटी समीरा आंसुओं के साथ सोच रही थी “आखिर तिरस्कार कब तक” अब मैं और अपमान नहीं सह सकती , और उस दिन उसने अपने आप से एक वादा किया –अब मैं और नहीं सहुंगी ।

अगले ही महीने समीरा ने तलाक की प्रक्रिया शुरू की, नौकरी के लिए आवेदन दिया और एक किराये के घर में शिफ्ट हो गई। समाज की नजरों में वह “त्यागी हुई बहू” थी, लेकिन खुद की नजरों में वह एक पुनर्जन्मी औरत थी।

समीरा ने एक स्कूल में शिक्षक की नौकरी शुरू की, फिर लेखन में भी सक्रिय हो गई। उसकी कहानियाँ लोग पढ़ने लगे , उसकी आवाज़ सुनी जाने लगी।

उसने एक NGO शुरू किया – “स्वर” – जहाँ वह तिरस्कार सह चुकी महिलाओं को कानूनी, भावनात्मक और आर्थिक सहायता देती।

अब जब लोग उससे पूछते हैं, “क्या तुम अकेली हो?” तो वह मुस्कुरा कर कहती है —

“नहीं, मैं खुद के साथ हू — और इससे बड़ा कोई साथ नहीं होता।”

समीरा की कहानी एक आवाज़ है उन अनगिनत आवाज़ों की जो दबा दी जाती हैं – मायके में भी, ससुराल में भी।

वक्त ने आज फिर उसी मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया था !! – स्वाती जैंन

“तिरस्कार कब तक?”

जब तक हम चुप रहें।

जब तक हम खुद को दूसरों की नज़रों से तौलते रहें।

जब तक हम यह मानते रहें कि सहना ही नारी का धर्म है।

पर जिस दिन हम अपने लिए खड़े हो जाएँ — उस दिन से तिरस्कार का अंत शुरू हो जाता है।

प्रीती श्रीवास्तवा

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