“जब तक जिंदा रहेगी,तब तक बुढ़ियाॅं छाती पर मूॅंग दलती रहेगी!”
बहू सोमा की कर्कश आवाजें सास दयावती के कमरे की सूनेपन में प्रतिध्वनित हो रहीं थीं। तिरस्कार की चादर में लिपटी दयावती ग़लती का कारण खुद को मान रही थी।अस्सी वर्षीया अशक्त और कमजोर दयावती आत्मग्लानि महसूस कर रही थी। कमजोर शरीर को लाठी रूपी सहारा जल्द न मिलने के कारण आज भी बिस्तर गन्दा हो गया था, किन्तु बहू को उसकी इस मजबूरी का कहाॅं एहसास था?अनजाने में बिस्तर गंदा हो जाने के कारण घर में मचे कोहराम ने उसके अंतर्मन को बेधकर रख दिया था।अस्सी वर्ष में भले ही उसके शरीर ने जबाव दे दिया था, परन्तु उसकी देखने और सुनने की शक्ति अभी भी कायम थी।
बहू सोमा की तिरस्कृत वाणी अभी भी उसके कानों में पिघले शीशे के समान महसूस हो रही थीं।बहू सोमा का गुस्सा अभी तक शांत नहीं हुआ था।वह जोर-जोर से पति को सुनाते हुए बोल रही थी -“तुम्हारी माॅं ने इस ठंढ़ी में फिर से बिस्तर गंदा कर दिया है। लगता है खुद तो अमृत पीकर आई है, मैं ही इसकी सेवा करते-करते मर जाऊॅंगी!”
दयावती का बेटा अजय भी पत्नी की सुर-में-सुर मिलाते हुए कहता है-“रोज की किच-किच से मैं तंग आ गया हूॅं। बुढ़ियाॅं कब मरेगी कि इससे हमारा पिंड छूटेगा?”
बेटा-बहू की प्रताड़ना भरी बातें सुनकर दयावती की रीढ़ की हड्डी में मानो झुरझुरी-सी दौड़ गई।बहू तो पराई जाई है, परन्तु बेटा तो उसके दिल का टुकड़ा है,उसने ऐसी बात कैसे अपनी जुबान से निकाली?उसके मरने की बात तक कह दी!उसके अथक परिश्रम से सुवासित घर-परिवार अशक्त होने पर उसी के खिलाफ उठ खड़ा हो गया है। उसका बेटा और पोता अपने काम में देरी होने के बहाने चुप-चाप घर से खिसक लिए।पोती रीना कभी भी दादी के कमरे तक नहीं फटकती।दूर से ही गंध से नाक-भौंह सिकोड़ते हुए कहा -“माॅं! जल्दी कुछ करो।कमरे के बाहर तक दुर्गंध आ रही है।मेरा सर फटा जा रहा है।इस घर में पल भर भी सुकून से रहना दूभर होता जा रहा है!”
सोमा एक तो पति और बेटे के पल्ला झाड़कर निकल जाने से नाराज़ थी,अब बेटी की बात सुनते ही उसके गुस्से का पारा सातवें आसमान तक पहुॅंच गया।वह बड़बड़ाते हुए नाक पर कपड़े रखकर सास के कमरे में पहुॅंच गई।सास को कोसते हुए उसने कहना शुरू किया-“बुढ़ियाॅं के खाने में थोड़ी -सी भी देरी हो जाऍं,तो सबसे शिकायत करती रहती है कि बहू मुझे समय पर खाना नहीं देती है!इतनी उम्र हो गई है, परन्तु जीभ का चटोरापन नहीं गया है।खुद तो आराम से बिस्तर पर पड़ी रहती है और मैं इसके मल-मूत्र साफ करती रहूॅं।कब इसके प्राण छूटेंगे कि मुझे छुटकारा मिलेगा?”
बहू के तिरस्कार से दयावती की ऑंखों के कोर भींगकर झर-झर बहने लगें।उसका हृदय क्षोभ से लहू-लुहान हो उठा।वह चुप-चाप तिरस्कार की चादर ओढ़े खामोशी से सोच रही है-“आजकल जब लोग बेकार हुई गाय माता को भी कसाई के हाथों बेचने में जरा भी नहीं हिचकते हैं,तो बूढ़ी बेकार माॅं किस खेत की मूली हैं?”
बहू सोमा ने गाली के उपहारों के साथ सास का बिस्तर साफ किया। गुस्से से उसकी ऑंखें अंगारे सदृश्य आग उगल रहीं थीं,जिसे देखकर दयावती ने कबूतर के सदृश्य भयभीत होकर ऑंखें बंद कर ली।।बहू ने इस ठंढ़ी में भी पानी गर्म करने की जहमत नहीं उठाई।उसे घसीटते हुए वाॅशरूम में ले जाकर उस पर ठंढ़ा पानी उड़ेल दिया।ठंढ़ी से कंपकंपाती दयावती किसी तरह लाठी के सहारे कपड़े समेटती हुई अपने कमरे की ओर बढ़ चली।उसी समय बहू की कर्कश और कठोर आवाजें गूॅंज उठीं -“आज से रात का खाना नहीं मिलेगा। चुप-चाप अपने कमरे में पड़ी रहो।”
बहू के तिरस्कृत आदेश को सुनकर उसका सर्वांग झनझना उठा।उसकी आहत भावनाऍं बेकाबू हो उठीं। विववशता की नदी उम्र के इस मुहाने तक आते-आते तिरस्कार से बेकाबू हो उठीं।उसने साड़ी के पल्ले को मुॅंह में दबा लिया। बरसों से दरक रही वेदना का बाॅंध आज ध्वस्त हो गया। उसका दिल तड़प उठा।बहू की कठोर वाणी से उसे ऐसा प्रतीत हो रहा था ,मानो उसके अंदर हजारों शूल चुभ रहें हों। तिरस्कार का अपदंश उसके हृदय को बेधकर मानो पूछ रहा था कि तिरस्कार कब तक?अपने अस्थिपंजर सदृश्य शरीर को लेकर बिस्तर पर लेट गई।
बिस्तर पर लेटे-लेटे यादों का उफान दयावती के मन में उमड़ने लगा।अतीत चलचित्र की भाॅंति उसकी ऑंखों के सामने सजीव हो उठा।उसने पति के साथ मिलकर कितने जतन से इस आशियाने को सॅंवारा था?जो अर्थाभाव उसने झेले थे,वो उनके बच्चों को न झेलना पड़े,यही सोचकर उसके पति ने बड़ी मेहनत और लगन से एक छोटी-सी कपड़े की दुकान को शहर के प्रतिष्ठित वस्त्रालय में स्थापित कर दिया।बेटी शादी होकर विदेश बस गई।
उसके पति की मृत्यु के बाद बेटा संपत्ति का मालिक बन बैठा।बहू घर की मालकिन बन गई।शनै:शनै: उसके अधिकार सीमित होते गए और अंततः एक छोटी-सी कोठरी में वह सिमटकर रह गई।उसका समर्पण और त्याग इस घर के कोने-कोने से झलकता है।इस घर की प्रत्येक वस्तु में उसके और उसके पति के स्पर्श की छुअन आज भी मौजूद है, परन्तु अधिकार सारे समाप्त हो चुके हैं।आज बस तिरस्कृत आवाजें ही उसके कमरे की दीवारों से टकराकर वापस लौट आती हैं।
दयावती की जिंदगी आशाविहीन हो उठी है। आशाओं के अभाव में जीवन शून्य हो जाता है।जब आशाऍं टूटतीं हैं,तो मनुष्य का दिल जार-जार रो उठता है।उसके द्वारा अर्जित संपत्ति का उसके जीवन की सांध्य -वेला में कोई मोल नहीं रह गया है।आज बहू द्वारा शरीर पर ठंढ़े पानी उड़ेल दिऍं जाने के कारण उसके कलेजे में रह-रहकर एक हूक-सी उठ रही थी और ऑंखों से अविरल अश्रुधारा निकल रही थी। परिवार का तिरस्कृत व्यवहार उसे मर्माहत कर रहा था।
उसे ऐसा महसूस होने लगा था मानो वह जिंदा लाश बनकर रह गई हो।एक चेतनाशून्य देह!उसके लिए परिवार में किसी के दिल में कोई भावनाऍं शेष नहीं रह गई ं हैं।बहू के मुॅंह से निकला हुआ एक-एक शब्द नागफनी के काॅंटों की तरह उसका दिल छलनी कर रहा था। बेटा भी उसे बोझ समझ रहा था।दर्द की लकीरें ऑंसुओं की लड़ियाॅं बनकर उसकी ऑंखों में तैर रहीं थीं।वह खुद से पूछ रही थी कि ऐसी तिरस्कृत जिंदगी कब तक ढ़ोल पाऊॅंगी?
सुबह की सारी दिल दहलाने वाली बातें उसके अंतस में बहुत दूर तक जाकर धॅंस चुकीं थीं। क्यों रिश्तों की गर्माहट खत्म हो चुकी है,उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था! जिस घर को उसने अपनी अनगिनत पवित्र भावनाओं से सींचा था,वही स्नेह रूपी इमारत आज की घटना से एक ही झटके में धाराशायी हो गई ।खून के रिश्ते देखते-देखते कब हाशिए पर चले गए,उसे पता ही नहीं चला!उसने ईश्वर से फरियाद करते हुए कहा -“हे प्रभु! रिश्तों की चादर अब तार-तार हो चुकी है। अपनों का तिरस्कार अब बर्दाश्त नहीं होता है।अब इस तन्हाई और असह्य पीड़ा से मुझे मुक्ति दे दो।”
प्रभु से फरियाद करते-करते अचानक से उसका चेहरा सख्त हो उठा।उसकी ऑंखों में बेगानेपन का ऐसा मंजर उपस्थित हो गया , जहाॅं मोह-माया,वेदना-संवेदना, मान-अपमान के न तो झाड़ -झंकाड़ थे,न ही ऑंसू -अवसाद का कोई अस्तित्व। तिरस्कार की ज्वाला से वह भयभीत हो पसीने से भींग उठी।पल भर में ईश्वर के एक निर्णय ने उसके सारे दुखों के द्वार बंद कर दिए। ईश्वर ने उसे इन तमाम पीड़ाओं से मुक्ति दिलाते हुए अपने आगोश में समेट लिया।
अगली सुबह बहू जोर-जोर से करुण विलाप कर लोगों के सामने मगरमच्छी ऑंसू बहाते हुए कहती है-“माॅं जी!आप हमें अनाथ कर क्यों चलीं गईं?हम खुशकिस्मत थे कि आप बुजुर्ग का साया हमारे सर पर बना हुआ था।आपके वगैर पूरा परिवार अनाथ हो गया!”
पूरा समाज उस परिवार के दोहरे चरित्र को भली-भांति जानता था, परन्तु समाज का यह रुप अब खास न होकर आम रह गया है।इस कारण सभी के लब खामोश हैं, परन्तु दिल में एक तसल्ली भी थी कि तिरस्कार से दयावती को मुक्ति मिल चुकी है।
समाप्त।
लेखिका -डाॅ संजु झा। स्वरचित।