” स्वार्थी औलाद ” – सरोज माहेश्वरी

औलाद मनुष्य की सच्ची संपत्ति होती है। मनुष्य अपनी इस संपत्ति को संवारने, तरासने में तन, मन,धन की समग्र शक्ति को लगा देता है । वह संतान के लिए दुनियां और विपरीत परिस्थितियों से भी लड़ने की ताकत रखता है, परंतु जब स्वार्थी औलाद सालों की कठिन परवरिश को नकार माता पिता के सपनों को धराशायी कर बुढ़ापे को रसातल के गर्त में फैंक देती है और फिर  बुढ़ापे में उड़ने की ताकत भी सपने बनकर रह जाती है तब माता बाप की पीड़ा असहनीय, हृदय विदारक होती है परंतु माता पिता का सही निर्णय स्वार्थी औलाद के मुख पर थप्पड़ का काम करता है… इसी विषय पर एक कहानी ….

      प्रसूति गृह के वार्ड में खड़े मोहन बाबू कभी  राधिका को देखते तो कभी नवजात शिशु को… आज पति पत्नी की खुशी का कोई ठिकाना न था … वर्षों की तमन्ना पूरी हुई आज शादी के पूरे पंद्रह वर्ष बाद उन्हें माता पिता बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था…. यह खुशी राधिका और मोहन बाबू के जीवन में अधिक दिन तक न रह सकी क्योंकि बच्चे के दोनों पैर गर्भवास्था में ही पूरी तरह से विकसित न हो सके थे। डाक्टर ने बताया कि भविष्य में उनका लाडला अपने पैरों पर चलने में असमर्थ रहेगा। यदि बच्चे को सही उपचार और देखभाल मिले तो शायद उसके पैरों में जान वापस आ सकती है। पति पत्नी के पैरों तले मानो ज़मीन खिसक गई….  किसी तरह साहस बटोर कर राधिका ने पति मोहन से कहा….”मोहन! तुम चिंता मत करो ” मैंने निश्चय किया है कि मैं अपने लाडले की देखभाल के लिए दिनरात एक कर दूंगी। मैंने अपनी सरकारी नौकरी छोड़ने का भी निश्चय कर लिया हैं…. फिर क्या था?नौकरी से त्यागपत्र देकर राधिका दिन रात एक करके पूरी लगन के साथ नन्हें राहुल की देख भाल में जुट गई। देशभर के कई प्रसिद्ध चिकित्सकों को दिखाया गया।




        दवाओं के असर ,ईश्वर की कृपा और मां की तपस्या अर्थात् दिन रात देखभाल और सेवा से कुछ सालों में ही नन्हे राहुल के पैरों में जान आना शुरू हो गई… आशा की किरण भोर के उजाले में बदल गई  … अब राहुल अपने पैरों पर चलने में समर्थ हो गया था। माता पिता को मानों दुनिया की अपार संपत्ति मिल गई… राहुल कुशाग्रबुद्धि निकला । मोहन बाबू और राधिका दोनों ने बच्चे के स्वास्थ्य एवं पढ़ाई पर अपनी सारी खुशियां न्यौछावर कर दीं ।राहुल भारत में इंजीनियरिग की शिक्षा ग्रहण कर, कुछ वर्ष भारत में नौकरी करने के उपरांत विदेश उच्च शिक्षा के लिए चला गया। माता पिता ने अपनी भविष्य निधि को भी बेटे की उच्च शिक्षा की पढ़ाई में खर्च कर दिया… पति पत्नी की मेहनत रंग लाई बेटा अब अपने पैरों पर खड़े रहने में सक्षम तो हो ही गया था साथ में उसने मन चाही मंज़िल भी पा ली थी। कुछ सालों बाद राहुल का विवाह एक संपन्न परिवार की लड़की से हो गया…अमेरिका में रहकर राहुल अपनी पत्नी के साथ खुश था…

              विदेश में रहकर नौकरी करते हुए राहुल  दो तीन साल में ही भारत आ पाता था । अब राधिका और मोहन बाबू भी वृद्ध हो चुके थे , जीवन की जिम्मेदारियों को ढोते ढोते दोनों के शरीर भी बहुत शिथिल हो चुके थे…. भारत में वे दोनों अकेले रहते थे। एक दिन राधिका को चक्कर आया और सीढ़ियों से गिर गई। सिर में गहरी चोट आ जाने से शरीर का एक भाग निर्जीव हो गया। पिता ने तुरंत राहुल को फोन करके मां की हालत से अवगत कराया। छुट्टी न मिल पाने के कारण राहुल तुरंत मां को देखने भारत न आ सका…. जीवन के अंतिम पड़ाव में मोहनबाबू अकेले ही जैसे तैसे पत्नी की सेवा में जुटे रहे ….जो कुछ थोड़ी जमा पूंजी थी वह बेटे के इलाज़, पढ़ाई और पत्नी को बीमारी में लग चुकी थी।




           कुछ महीने बाद ही राहुल मां को देखने भारत आ सका …एक दिन  रात को भोजन की मेज पर खाना खाते समय मोहन बाबू ने बेटे राहुल से कहा … बेटा! तुम्हारी मां की हालत ठीक नहीं है । मैं भी अब तन, मन, धन से शिथिल हो चुका हूं। रोहन बीच में ही बोला … पापा ! मैं आप और मां  को अमेरिका नहीं ले जा सकता। इस उम्र में आप अमेरिका के वातावरण में अपने आप को सहज महसूस नहीं कर पाएंगे और फिर आपकी बहू पर भी काम का भार बढ़ जाएगा क्योंकि अमेरिका में घरेलू काम के लिए कर्मचारी भी नहीं मिलते …..मोहन बाबू बोले….बेटा! 

जैसा कि तुमने बताया है कि तुम्हें भारत में एक अच्छी कंपनी में अच्छी नौकरी का प्रस्ताव आया है ….मेरा विचार है कि अब तुम भारत आ जाओ यह नौकरी तुम्हारे पद और शिक्षा के अनुरूप भी है और कंपनी अच्छी तनख्वाह भी दे रही है यहीं आकर सर्विस कर लो ….सब साथ रहेंगे तो कष्ट के दिन आसानी से कट जायेंगे । कुछ देर चुप रहने के उपरांत राहुल ने कहा .. “पिताजी !  एक मां के लिए में अपनी जिंदगी को नहीं रोक सकता।

 मैं अमेरिका की सुख सुविधाओं को नहीं छोड़ सकता हूं किसी एक के लिए तो जिन्दगी नहीं रूक सकती है।” मोहनबाबू अवाक बेटे को देखते रह गए, सोचने लगे …..इसी बेटे की खातिर राधिका ने अपनी सरकारी नौकरी छोड़ दी थी, दिन रात देखभाल की एवं  अपने सभी अरमानों का गला घोंटकर अपनी चलती  जिन्दगी रोककर बेटे की रुकी ज़िंदगी को रफ्तार  दी थी। 




आज यही बेटा भारत आकर बसने पर ज़िन्दगी रुकने को बात कर रहा है । राहुल को अपनी चलती हुई सुख सुविधाओं से परिपूर्ण ज़िन्दगी मां की तपस्या से ही मिली थी। बच्चों के लिए अपनी ज़िंदगी रोकना  माता पिता का कर्तव्य है पर माता पिता के लिए विदेश का मोह छोड़ कर अपने देश में आकर काम करना क्या ज़िन्दगी रुकना है? बेटे राहुल के विचारों को सुनकर मोहन बाबू सोचने लगे कि इसी दिन को देखने के लिए क्या हमने ईश्वर के सम्मुख झोली फैलाकर औलाद की मन्नत मांगी थी? 

यह कैसी विडंबना है? क्या यही औलाद का दायित्व है?क्या आज की औलाद इतनी स्वार्थी हो गई है?….फिर अपने आपको सम्हालते हुए मोहनबाबू ने मन ही मन कुछ निश्चय किया…. बेटे के सामने गिड़गिड़ाने अपेक्षा अपने बुढ़ापे और बीमार पत्नी की देखभाल के लिए अपना घर गिरवी रखकर एक केयर टेकर रखना उन्हें उचित लगा….  

स्व रचित मौलिक रचना

सरोज माहेश्वरी पुणे (महाराष्ट्र )

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