सुनो न: – मुकेश कुमार (अनजान लेखक)

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सुनो न, हाँ तुमसे ही बोल रहा हूँ, सुनो न!

क्या? बोलो न, सुन रही हूँ।

वो मैं बोल रहा था न!

क्या?

याद आती है मेरी?

बुद्धु, ये भी पुछने वाली बात है क्या?

हाँ, जब बोलती हो न, तब दिल ज़ोर से धड़कने लगता है।

कुछ भी।

नहीं, सच में।

तो सुनो, तुम बहुत याद आते हो।

मुझे भी तुम बहुत याद आती हो, ख़ासकर अकेले में।

अकेले में क्यों?

वो, मैं न, तुम्हारी याद को किसी से बाँटना नहीं चाहता।

अच्छा जी?

हाँ, और नहीं तो क्या?

अच्छा चलो अब मैं काम निपटा लेती हूँ, बहुत सारा काम पड़ा हुआ है। तुमसे बाद में बात करूँगी।

सुमन बाय बोल कर फ़ोन नहीं काटती, फ़ोन काटने का मन तो योगेश का भी नहीं रहता। दोनों कम से कम तीन-चार बार बाय बोलते हैं। कभी योगेश बोलता है आज तुम पहले फ़ोन काटो तो कभी सुमन बोलती है आज तुम पहले फ़ोन काटो। योगेश की बात सुमन से हो जाने के बाद वो पुरा दिन ख़ुशनुमा रहता है। और अगर कभी ग़ुस्सा भी हो गया तो दुसरी कॉल में सुमन पर ही ग़ुस्सा होता है।

योगेश हक़ से ग़ुस्सा होता है। वो जानता है पुरी दुनिया उसके ग़ुस्से से ग़ुस्सा हो जाएगी लेकिन सुमन नहीं।और अगर सुमन ग़ुस्सा भी हो जाएगी तो बोलते-बोलते रोने लगेगी।



सुमन का रोना भी योगेश को बूरा नहीं लगता। जब सुमन रोती है न तब बहुत सारा बात बोलते रहती है। रोते-रोते दिल में दबी खीज निकल जाती है।

कुछ देर के लिए उदास ज़रूर हो जाती है लेकिन सुना है रोने से मन हल्का हो जाता है। इसलिए योगेश भी सुमन को बीच में चुप नहीं कराता। ये अलग बात है की सुमन के आँखों से वो एक कतरा भी आँसू बहने नहीं देना चाहता। लेकिन क्या करे सुमन की ज़िंदगी और ज़िम्मेदारी आसान कहाँ है। वो तो चारों तरफ़ से मुसीबत में घिरी रहती है। एक मुसीबत ख़त्म नहीं हुई की दूसरी राह देखते रहती है।

योगेश कोशिश करता है कैसे वो सुमन का मन हल्का कर सके। कभी-कभी तो समझाते-समझाते वो बहुत सारी ऐसी बातें भी बोल जाता है जो बाद में एहसास होता है की उतना भी ज़्यादा हक़ नहीं है की सुमन को उन सब बातों पर राय दे। लेकिन मजाल है सुमन कभी टोक दे की तुम्हारा हक़ नहीं है उन बातों को बोलने का।

चुपचाप सुनते रहती है। बातें तब ही रुकती हैं जब या तो सुमन हँस दे या शरमा जाए।

अब आज की ही बात ले लीजिए, उसके शरीर में दर्द था तो सुमन का मन बहलाने के लिए योगेश ने बोल दिया:

काश, तुम्हारा शरीर खोल कर ठीक करने का रहता, तो खोल कर उस हिस्से को ठीक करते और फिर से लगा देते।

सुमन हँसने लगी। हँसते हुए बोली:



उस अंग को खोलने के लिए मैकेनिक कौन होता? तुम मैकेनिक बनोगे मेरा?

हाँ, क्यों नहीं? मैं तो कभी भी तुम्हारा मैकेनिक बनने को तैयार हूँ।

कुछ भी! बोल कर शर्माने लगी।

कितना अच्छा होता न! ये शरीर भी मैकेनिक से खुलता और लगता। मैं हमेशा के लिए सुमन का मैकेनिक बन जाता, हमेशा पहले से बुकिंग रहती उसकी। उसके अलावा किसी और का मैकेनिक कभी नहीं बनता।

शाम को दोबारा योगेश और सुमन की बात होती है, दोनों तब तक या तो पूरी तरह से थक चूके होते हैं या चिड़चिड़े हो चूके होते हैं।

बात होते-होते योगेश बोल पड़ा:

सुनो न, हाँ तुम्हीं से बोल रहा हूँ, सुनो न!

हाँ बोलो न, सुन रही हूँ।

वो मैं क्या बोल रहा था न!

क्या, बोलो न।

तुम्हें ले कर कहीं दूर जाना चाहता हूँ।

कहाँ?

कोई पहाड़ हो छोटा सा, उसके नीचे कल-कल करती नदी बह रही हो, डुबते सूरज की लाली। हम बैठ कर एक-दूसरे का हाथ पकड़े सूरज को देखें, नदी को देखें, पहाड़ से दूर तक घिरे बादलों को देखें। न तुम कुछ कहो न हम कुछ कहें। हथेलियों को पकड़े कभी-कभी एक-दूसरे की आँखों में देखें। तुम शरमा जाओ, मैं भी मुस्कुरा दूँ।

सुनो न।

हाँ, बोलो न।

मुकेश कुमार (अनजान लेखक)

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