“सुखी परिवार की कुंजी? – सरोज माहेश्वरी

 एक परिवार को आत्मीयता, पारिवारिक मूल्य,परम्पराएं एकता के सूत्र में बांधते हैं। एक साथ रहते हुए एकदूसरे के प्रति निःस्वार्थ प्रेम,विश्वास,समर्पण परिवार की बुनियाद को सुदृढ़ बनाते हैं,परन्तु अनुशासन, सहानुभूति, मर्यादा, अपनत्व के अभाव में संगठित परिवार की जड़ें कमजोर पड़ जाती हैं और फिर शुरू होती है विघटन की कहानी….

                            रमाकांत जी सरकारी पद से सेवानिवृत्त एक प्रतिष्ठित सामाजिक व्यक्ति थे। उत्तर भारत के एक छोटे से शहर में अपनी पत्नी राधिका तथा दो बेटों के साथ रहते थे…राकेश और दीपक दोनों  बेटे इंजीनियर थे जो उसी शहर में माता पिता के साथ रहते थे…बड़े बेटे राकेश की शादी उमा से हुई…उमा एक संस्कारी, बड़ों का सम्मान करने वाली, पारिवारिक मूल्यों और आदर्शो में विश्वास करने वाली थी। उसका मन निश्छल, परिवार के लिए समर्पित एवं स्नेह से लबालब था। उमा सास ससुर को बहुत सम्मान देती और अपने देवर दीपक को छोटे भाई के समान प्यार करती…. उमा को कुछ सालों में दो बेटियों की माँ बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ….सासू मां के सानिध्य में दोंनों बेटियों को बड़ा कर उन्हें संस्कारवान बना कर बहुत खुश थी….

           कुछ सालों बाद रमाकांत जी के छोटे बेटे दीपक ने भी अपनी पसंद से अपने ऑफिस में साथ में काम करने वाली रागिनी से शादी कर ली कुछ सालों में वह दो बेटों की मां बन गई…रागिनी अपने दोनों बच्चों को अपनी जेठानी उमा के पास छोडकर निश्चिंतता पूर्वक आफिस में जाती….उमा राधा काकू की मदद घर का काम निपटाती और बच्चों का पूरा ध्यान रखती। वह सास ससुर का सभी काम समय पर और पूरी तत्परता से करती….जब राकेश, दीपक , रागिनी ऑफिस से आते तब उमा खुशी ख़ुशी सबको गरम खाना परोसती…. परंतु रागिनी के मन में क़भी अपनी जेठानी के प्रति कृतज्ञता का भाव न होता…वह सोचती घर में रहकर घर और बच्चों की देखभाल करना कोई बड़ा काम नहीं है।वह सोचती …मुझे ही ज़्यादा काम करना पड़ता है।




      एक दिन रमाकांत जी बरामदे में चहलकदमी कर रहे थे…दीपक के कमरे से छोटी बहू रागिनी की जोर जोर से आवाज़ें आ रही थी….वह कह रही थी…दीपक! इतने लोगों के बीच इस घर में अब मेरा दम घुटता है हम लोगों की भी कोई जिंदगी है।सारे दिन ऑफिस में काम करने बाद कुछ समय हमें अपने लिए भी चाहिए… चलो दीपक ! अपना आशियाना कहीं और बनाते हैं …अब बच्चे थोडे बड़े हो गए हैं बच्चों की देखभाल के लिए एक आया रख लेंगे…..चलो हम किसी दूसरे घर में चलते हैं जहां मैं तुम और हमारे दोऩों बच्चे हो…. न बड़ों का हस्तक्षेप होगा… जहां दिन के कुछ पल शांति से जिए जा सकेंगे… यह सब सुनकर दूसरे दिन रमाकांत जी ने बिना किसी भूमिका के दोनों बेटों को अपनी अलग अलग गृहस्थी बसाने की बात कह दी…वैसे तो रमाकांत जी का घर इतना बड़ा था जहां किसी प्रकार की कमी न थी…परन्तु वे नहीं चाहते थे कि उनके घर में कोई घुटन महसूस करे। छोटी बहू की तो मानो मन की मुराद पूरी हो गई…छोटा बेटा दीपक अपने घर परिवार को छोड़ कर नहीं जाना चाहता था परन्तु हठी, स्वार्थी, आत्मकेंद्रित पत्नी के आगे दीपक की एक न चली।

           आठ दिन बाद घर के दरवाजे पर एक ट्रक खड़ा था रागिनी जल्दी जल्दी अपना खरीदा हुआ सामान छाँट कर बांध रही थी …बडी बहू उमा एक कोने में खड़ी चुपचाप दुःखी मन से यह सब देख रही थी….सासू माँ उस से बार बार कह रही थी …उमा! तुम भी अपना सामान छांट लो तुम भी अपने नए घर में शिफ्ट हो जाओ…तभी उमा बोली… माँ, बाबूजी! मैं आप लोगों को छोड़कर कभी नए  घर में अकेली राकेश और बच्चों के साथ नहीं जाऊँगी….राकेश और बच्चे भी आप लोगों के बिना नहीं जाना चाहते। अगर चलना है तो हम सभी चलेंगे ….फिर बोली …माँ जी! ईंट पत्थर से बनाया घर तो एक बेजान सरंचना हैं ज़िसमें आत्मिक शांति तब तक नहीं मिल सकती जब तक उसमें रहने वाले प्रत्येक सदस्य का एक दूसरे के प्रति ऩिःस्वार्थ समर्पण न हो…प्यार के बिना रिश्तों की मजबूत दीवार में दरार आ जाती है जिसको भरना मुश्किल हो जाता है । माँजी इस घर की एक एक ईंट हमारे प्रति आपके वात्सल्य की गवाह है। यह घरौंदा हमें अपनत्व का अहसास कराता है।हम आपके बिना न तो परिवार की कल्पना कर सकते है और आत्मिक शांति की। 




                          उधर छोटी बहू रागिनी आज़ादी पाने की चाह में अपनी दुनियाँ अलग बसाकर अपनी नौकरी से भी हाथ धो बैठी थी आज उसे अपने निर्णय पर पछतावा रहा था क्योंकि कभी बच्चों की देखभाल करने वाली दाई माँ का न आती, कभी बच्चें  बीमार पड़ जाते तो कभी स्कूल बस छूट जाती फिर छुट्टी लेने सिवाय उसके पास कोई चारा न बचता सो एक दिन बॉस ने रागिनी के हाथ में एक लिफाफ़ा पकडाते हुए कल से आफिस न आने को कह दिया…आज उसे परिवार की अहमियत का आभास हो रहा था….दूसरे दिन माँ बाबू जी के पास जाकर रागिनी ने अपनी गलती की माफी मांगी बोली…. माँ बाबूजी। मैं ही अपने संगठित परिवार को विघटित करने की दोषी हूं मुझे माफ कर दीजिए….हम सब आपके और परिवार के बिना नहीं रह सकते हैं हमें फिर से परिवार और अपने दिल में रहने की अनुमति दे दीजिए…. 

                         छोटी बहू रागिनी को फिर से परिवार का हिस्सा बनने की अनुमति देते हुए                रमाकांत जी बोले….बेटी रागिनी!परिवार में एक साथ रहकर हम अपने सुख-दुःख़ों को साझा करते हैं प्यार का यह घरौंदा दिखावे की दीवारों  से नहीं बल्क़ि आत्मीयता की दीवारों से सजता है खुशबू देता है।जिस परिवार का प्रत्येक व्यक्ति निज स्वार्थ से ऊपर उठकर भावनात्मक रूप से एक दूसरे जुड़ा होता हैं  वह घर परिवार स्वर्ग सा अहसास कराता है । स्नेहपूर्ण त्याग,समर्पण, विश्वास सुखी परिवार की कुंजी है…. इस कुंजी पर अब कभी भी अविश्वास, अपने स्वार्थ की काई नहीं जमने देना…

स्व रचित मौलिक अप्रकाशित रचना 

सरोज माहेश्वरी पुणे (महाराष्ट्र )

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