शिकारी का शिकार – नीलम सौरभ

देवल और प्रत्यूष स्कूल के जमाने में कभी साथ पढ़ा करते थे। उन दिनों बहुत घनिष्ठता तो नहीं थी उनमें, बस दोनों दूसरे दोस्तों के कारण आपस में जुड़े हुए थे। फिर देवल के पापा का वहाँ से स्थानांतरण हो गया था, जिसके बाद यह शहर छूट गया था।

सालों बाद एक दिन अनायास दोनों की फिर से मुलाक़ात हो गयी, जब देवल कम्पनी से प्रमोशन पाकर वापस आगरा आ गया। जिस बिल्डिंग में देवल का ऑफिस था, उसके सामने सड़क के पार के कमर्शियल कॉम्प्लेक्स में प्रत्यूष ने एक छोटा ऑफिस किराये पर लेकर कंसल्टेंसी कम्पनी खोल रखी थी। उस दिन वे अचानक मेट्रो स्टेशन पर टकरा गये। दोनों ही अपने पुराने परिचित को देख बड़ी गर्मजोशी से मिले। एक दूसरे का हालचाल पूछा, फोन नम्बर और पते के आदान-प्रदान के साथ जल्दी ही दोबारा मिलने का वादा कर लिया।

अब मेल-मुलाक़ातें होने लगीं तो दोनों को एक-दूसरे के काम-धन्धे के बारे में पता चलने लगा। बातों-बातों में प्रत्यूष अपनी अच्छी कमाई के बारे में बताता रहता था।

एक दिन प्रत्यूष अचानक इमरजेंसी आन पड़ी है, कह कर देवल से 35 हजार रुपये उधार माँगने लगा। उसके चेहरे पर दुविधा देख कर खुशामदी अंदाज़ में बोला____

“इतना क्या सोच रहा है भाई…अगले हफ़्ते ही लौटा दूँगा यार। वैसे तो किसी भी पहचान वाले से बोलूँ, तुरन्त दे देगा..लेकिन जब अपना भाई पास है तो दूसरे के सामने क्यों हाथ फैलाना।”

अब तो देवल से कुछ बोलते नहीं बना और उसने एटीएम से निकाल कर 35 हजार प्रत्यूष को दे दिये। वह शुक्रिया अदा करता हुआ चला गया।

उसके बाद समय बीतता रहा। अगले हफ़्ते तो क्या, अगले महीने तक देवल को वह नज़र नहीं आया। उसके ऑफिस जब भी जाता वह बन्द ही मिलता। आजू-बाजू वालों से पूछने पर पता चला कि वह कंसल्टेंसी का अधिकतर काम ऑनलाइन करता है, ऑफिस में तो कभी-कभार ही बैठता है। बेचारा देवल तो यह जानकर हक्का-बक्का रह गया। वह तो प्रत्यूष से जब भी मिलता, उसके ऑफिस में ही मिलता था, उसको भ्रम हो गया था, प्रत्यूष के रोज ऑफिस खोलने का। उसे एकाएक कुछ गड़बड़ी की आशंका होने लगी।




फिर एक दिन किसी मॉल के सामने प्रत्यूष उससे टकरा गया। पहले वह थोड़ा हड़बड़ाया, फिर कहने लगा___”अरे यार, बहुत परेशानी में हूँ आजकल…गाँव में माँ बहुत बीमार थी…बहुत पैसे खर्च हुए तब कहीं थोड़ा ठीक हुई हैं…मैं कल ही वापस आया हूँ। तुम्हारे पैसे तो अगले महीने ही दे पाऊँगा।”

देवल उसका चेहरा देखता ही रह गया।

अगले महीने प्रत्यूष के पास नया बहाना तैयार था। “यार, धन्धा थोड़ा मंदा चल रहा है आजकल…बहुत लोगों के पास पैसा फँसा हुआ है…मिलने दे न, सबसे पहले तेरा हिसाब चुकता करता हूँ!”

ऐसा करते-करते 4-5 माह गुज़र गये, मगर वह खुशनसीब दिन नहीं आ पाया, जब देवल को अपने पैसे वापस मिलते। प्रत्यूष का फोन या तो बन्द मिलता था या फिर वह उठाता ही नहीं था। कभी मेहरबानी करके उठाता भी तो इतनी व्यस्तता का दिखावा करता था कि देवल पैसों की बात कर ही नहीं पाता था।

अगली बार मिलने पर जब देवल ने थोड़ी सख़्ती से अपने पैसे लौटाने को कहा तो प्रत्यूष उखड़ गया। गुस्से में आकर बोलने लगा____

“इतनी छोटी रकम के लिए यार तू तो पीछे ही पड़ गया है, एक महीने में लौटा दूँगा ब्याज सहित समझे!…ज्यादा तेवर दिखाने की जरूरत नहीं है तुझे।”

इस बार भी देवल खून का घूँट पीकर रह गया। नेकी करो और जूते खाओ, ऐसा उसने सुन रखा था…इस बात का आज उसे प्रत्यक्ष अनुभव हो रहा था। फिर भी उसने सहनशीलता से काम लिया और एक माह बीतने की प्रतीक्षा की।




एक क्या, दो फिर तीन महीने बीत गये लेकिन प्रत्यूष ने पैसे वापस नहीं लौटाये बल्कि एक बार फोन पर तगादा करने पर दोबारा से देवल के ऊपर बुरी तरह झल्लाया। क्रोध से भड़कता हुआ कहने लगा___

“यार! तू तो ऐसा कर रहा है जैसे थोड़े से पैसे उधार देकर तूने मुझे खरीद लिया है…जब देखो तब बस पैसों की बात…दोस्ती, रिश्ता, भरोसा भी कुछ होता है कि नहीं!…अभी नहीं हो पा रहा है तभी तो नहीं लौटा रहा हूँ न!”

देवल का दिल डूब गया। यूँ तो बहुत बड़ी रक़म नहीं थी कि उसके वापस न मिलने से उसका कुछ ज्यादा बिगड़ जाये, लेकिन एक तो खून-पसीने की खरी कमाई, तिस पर प्रत्यूष का यह दोगला व्यवहार, उसे किसी घड़ी चैन से रहने नहीं दे रहा था। बेवकूफ़ बन जाने, ठग लिये जाने का एहसास उसके दिल को हर समय बुरी तरह कचोटता रहता था। किसी पर भरोसा करना ही गुनाह है, उसके मन में यह बात भी आती रहती थी।

ऐसे ही किसी दिन अपने ऑफिस में वह सोच में गुम बैठा था जब उसके बड़े भाई दीपांकर के दोस्त सोमवीर किसी से मिलने वहाँ आये। वे देवल को सामने देखकर सुखद आश्चर्य से भर गये। वे बहुत दिनों बाद उस जगह पर आये थे। उन्हें मालूम नहीं था कि देवल पिछले साल से इस ऑफिस में है। देवल से उसके भैया दीपांकर और घर-परिवार की ख़बर ली फिर अपना नया पता देकर वीकेंड में अपने घर आने का न्यौता भी दे दिया।




रविवार को फ़ुर्सत निकाल कर देवल पुराने दिनों में सोम भैया के परिवार से अपने आत्मीय सम्बन्धों को याद करता हुआ मिलने उनके घर जा पहुँचा। वहाँ सभी उसे आया हुआ देखकर बहुत ख़ुश हुए। पुराने दिनों की सुहानी यादें खंगालते हुए कब दोपहर के खाने का समय हो गया, पता ही नहीं चला। लंच के दौरान जब हँसी-मज़ाक के साथ पुराने समय की चिटफण्ड कम्पनियों की लोगों को फाँस कर मूर्ख बनाने वाली बातें चल रही थीं तब देवल उन्हें प्रत्यूष द्वारा की गयी ठगी की बात बताकर सबको चेताने लगा____

“कई बार लाख सावधानियों के बाद भी आदमी बेवकूफ़ बन जाता है…ऐसे किसी के जाल में कोई न फँसना!”

दोस्त के छोटे भाई के साथ हुई इस धोखाधड़ी के बारे में सुन कर सोमवीर को बड़ा गुस्सा आया। वे अपने दोस्तों के साथ एक ‘एन.जी.ओ’ चलाते थे, जो कानूनों और अधिकारों की जानकारी न होने के कारण परेशानी में फँसे लोगों को जागरूक करने का काम करती थी। उन्होंने देवल को किसी भी उपाय से उसके रुपये वापस दिलाने का भरोसा दिलाया। सुन कर बहुत दिनों के बाद देवल ने राहत का अनुभव किया।

उस दिन सोमवीर देर रात तक जागते हुए समाधान ढूँढ़ते रहे। बहुत सोच-विचार करके उन्होंने शिकारी को उसके दाँव से ही जाल में फाँसने की योजना बना डाली।

वे एक दिन अनजान ग्राहक बनकर प्रत्यूष के पास तब जा पहुँचे, जब वह अपना ऑफिस खोल कर बैठा ही था। जल्दी ही लच्छेदार बातें करके सोमवीर ने उससे दोस्ती गाँठ ली। फिर प्रत्यूष के सामने ही वे फोन पर बड़े-बड़े लेनदेन की बातें करने लगे और फिर लापरवाही से उसकी ओर देखते कहने लगे____

“मेरा ये कैश में बड़ी रकम का काम बढ़िया तो है लेकिन टेंशन बहुत हो जाती है छोटे भाई!”




फिर अगले कुछ दिनों में उनके द्वारा एक-दो परिचितों को बुलाकर प्रत्यूष के सामने ही कभी 50 हजार तो कभी लाख रुपये कैश देते हुए देख कर प्रत्यूष जल्दी ही उनके रौब में आ गया। उसे लगने लगा कि यह तो बहुत काम का आदमी है, इसके शरण में आकर खूब पैसे कमाये जा सकते हैं। उसकी भावभंगिमा से सोमवीर को भी समझ में आ गया था कि पंछी दाना चुगने को अब तैयार हो चुका है। उन्होंने अपनी अगली योजना पर काम करना शुरू कर दिया।

अगले ही दिन सोमवीर ने अपने पास कैश न होने की बात करके प्रत्यूष से हजार रुपये लिये और उसी शाम को उसे ₹1100 लौटा दिये। पूछने पर साफ-साफ कहा कि उनका तो ब्याज का ही काम है और वे मुफ़्त में न किसी को रुपये देते हैं, न लेते हैं।

कुछ दिनों बाद उन्होंने दूसरी बार प्रत्यूष से फिर ज़रूरत बताकर 10 हजार लिये और दूसरे दिन 11 हजार वापस दे दिये। प्रत्यूष की तो बाँछें खिल गयीं, ऐसा बिना किसी झंझट वाला कमाई का साधन पाकर।

एक दिन सही अवसर देख कर सोम ने बातों-बातों में उसके कान में यह बात डाल दी कि उनको महीने भर के लिए एक लाख रुपयों की ज़रूरत है, मैं दस प्रतिशत तक ब्याज दूँगा, कोई फाइनेंसर हो तो बताओ।

प्रत्यूष ने लालच में आकर तत्काल ही एक लाख रुपये कैश अपने ऑफिस के लॉकर से निकाल कर उन्हें पकड़ा दिया।

फिर कई महीनों के लिए सोमवीर इस ‘लेनदेन, कैश व ब्याज’ वाली फिल्म के पर्दे से गायब हो गये। प्रत्यूष पागलों की तरह उन्हें मार्केट में ढूँढ़ता रहता, जहाँ उन्होंने अपना रोज का आना-जाना बताया था। बार-बार उन्हें कॉल करता, जो वे कभी उठाते नहीं थे।

“नहीं..नहीं…मेरे साथ वे धोखा नहीं कर सकते, कितने भले तो लग रहे थे…दुनिया इतनी ख़राब नहीं हो सकती, मेरे पैसे मिल जायेंगे।” ____अपने-आप को दिलासा देता हुआ वह बड़बड़ाता रहता था।




एक-दो बार सोमवीर प्रत्यूष को मिले भी, पर वे उसी का दाँव उस पर आजमाते हुए “कल दे दूँगा, अगले हफ्ते ले लेना!” बोल कर निकल जाते। देवल को सारी बातें पता थीं। एक दिन वह कहने लगा____

“बस करो भैया, बहुत हुआ। अब बख़्श दो बेचारे को!”

अगले दिन सोमवीर प्रत्यूष के ऑफिस में देवल के साथ पहुँचे। उन्होंने अपने छोटे से बैग से नोटों की गड्डी निकाली और गिनकर 35 हजार देवल को देकर शेष 65 हजार प्रत्यूष को सौंपते हुए खुलासा कर ही दिया कि यह देवल के पैसे उसके चंगुल से निकालने की उनकी चाल थी। प्रत्यूष हकबकाया सा कभी हाथ में पकड़े रुपये तो कभी उनका चेहरा ताक रहा था। देवल को साथ देख वैसे भी ख़ुद को बहुत शर्मिन्दा महसूस कर रहा था। अब कहने को बचा ही क्या है, वह सोचे जा रहा था। सोमवीर ने उसके कन्धे पर हाथ रखते हुए कहा____

“मुफ़्त किसी का पैसा न खाता हूँ और न ही किसी को खाने देता हूँ, बताया था न…अब अगर तुममें थोड़ी भी शरम बाक़ी हो तो मेरे अपने पास से दिये हुए 1100 लौटा देना और अगर लौटाने की नीयत न हो रही हो तो मेरा यह सूत्र अपने भेजे में हमेशा बिठा कर रखना….!”

कुछ पल रुक कर प्रत्यूष का चेहरा देखने के बाद उन्होंने अपनी बात पूरी की____”….न मुफ़्त की खाता हूँ, न खाने देता हूँ!…अपने वे पैसे तो कैसे भी करके, कहीं भी, कभी भी वसूल ही लूँगा…वह भी मय ब्याज, यह भी याद रखना।”

उनके स्वर की दृढ़ता ने प्रत्यूष को हिला डाला। शर्मिन्दगी के मारे उसकी गर्दन झुक गयी। उसने सोमवीर के लौटाये रुपयों में से 1100 के बदले 3000 निकाले और उन्हें लौटाते हुए गर्दन नीची करके बोला____

“माफ कर दीजिए भाई…ये सबक हमेशा याद रखूँगा। मुझे समझ में आ गया है कि जब अपने पैसे ऐसे किसी के पास फँस जायें तो कैसा लगता है।…ये एक्स्ट्रा रुपये देवल के हैं, उसे मेरे चलते बहुत टेंशन झेलना पड़ा है, उसका जुर्माना समझ लीजिए!”

सोमवीर और देवल के चले जाने के बाद थोड़ी देर तक कुर्सी पर सिर पकड़ कर बैठा रहा प्रत्यूष। फिर एकाएक उसे अपना सिर हल्का होता जान पड़ा।

“कभी न कभी ऊँट पहाड़ के नीचे आ जाता है…और कभी न कभी सेर को सवा सेर मिल जाता है बेटा प्रत्यूष, डैडी कहते रहते हैं…इसलिए अब से ये मक्कारी वाला काम आज से बन्द…सीधे तरीक़े से जो कमाई हो वही असली कमाई है, समझे न!”

____उसने अपने-आप से कहा और बचे रुपयों को संभाल कर रखने लगा।

—————————-*समाप्त*—————————–

स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित

नीलम सौरभ,

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