अंगूठा  टेक… – मंजू तिवारी

अंगूठा यह बड़ा महत्वपूर्ण रहा है। हम स्त्रियों के लिए,,,, हम स्त्रियों ने अंगूठे के सहारे उंगलियों से बेलन पकड़ कर रोटी बनाने में इसका इस्तेमाल किया है।,,,,, रोटियो के आकार को हम स्त्रियां पहचानते  तो थे लेकिन गणित की भाषा में इसको व्रत कहा जाता है यह हमें दूर-दूर तक पता ना था ,,

घर के चौकोर आंगन में हम रहते थे उसी में मेरा सदियों से बसेरा था,,,, आंगन का आकार वर्गाकार है यह भी हमें पता ना था,,,,,

जिस अंगूठे और उंगलियों के सहारे मैंने जिनके लिए गोल गोल  पोस्टिक फूली फूली रोटियां बनाकर खिलाई वही मुझे अंगूठा टेक कहते थे,,,,,

व्रत वर्ग आयत का मुझे बोध न था तो अपने खेत खलियान  जमीन जायदाद की माप में कैसे जान सकती थी

 अचल संपत्ति में मेरे उत्तराधिकार को कभी भी महत्व नहीं दिया गया,,,,,,, और मुझे जमीन जाजयत चाहिए भी ना थी,,,,, 

अगर चाहत थी तो सम्मान की,,,,,

घर के किसी भी निर्णय में मेरी कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं रही,,,, चाहे मेरे बेटे बेटियों की शादी विवाह क्यों ना हो,,,,, क्योंकि मैं अंगूठा टेक थी

मुझे कहां दुनियादारी की खबर,,,,,

 मेरा कोई नाम भी ना होता था ,,,,, बिट्टी लल्ली,,, बिटिया मुन्नी किसी की मां,,, बहू,,,, मेरी कोई अपनी पहचान और नाम न था,,,,,,, अगर था भी तो पिता के घर मुझे उस नाम से बुलाया गया,,,,, पति के घर तो कोई मेरा नाम लेने वाला भी ना था बहू और बच्चों के नाम से पहचानी जाती थी,,,, मेरी शख्सियत बेनाम ही रही,,,,,, पति के घर से बेनाम ही दुनिया से विदा हो जाती थी,,,,,,,




मैं कोई बहुत पुरानी बात नहीं कर रही हूं। मैं अभी भी घरों में किसी की बूढ़ी मां किसी की नानी किसी की दादी के रूप में अभी रह रही हूं।,,,,,

मुझे मतदान का अधिकार तो बहुत पहले दे दिया गया था लेकिन मुझे पता ही नहीं था इसका उपयोग सब ने जहां कहा मैंने वहां डाल दिया,,,,, क्योंकि मैं तो अंगूठा टेक थी,,,,,, कहां राजनीति की जानकारी,,,,

जब कभी जनगणना के लिए लोग आते या मात पत्र बनाने  तो मेरा नाम कुछ भी परिवार वाले लिखवा देते,,,,,,, 

 जब मैंने इसका विरोध किया,,,,,,  मत पत्र में कोई भी नाम बना रहे इससे कौन सा फर्क पड़ने वाला,,,,,, 

बात काफी हद तक सही थी,,, कि मेरे होने का कोई प्रमाण पत्र मेरा  नाम होने का कोई भी प्रमाण पत्र डिग्री मेरे पास नहीं थी जो मेरे नाम को प्रमाणित करती हो,,,,,, जैसे आज की अंक तालिका में होती है

मेरे नाम की कभी भी जरूरत नहीं पड़ी अंगूठा उंगलियों के सहारे रोटियां मिलने के काम आता था,,,,,

कभी जरूरत भी पड़ी मेरे वजूद की वेटा और पति ने जहां बताया मैंने बिना पूछे वहां अंगूठा लगा दिया,,,,

क्योंकि वह जानकार है मैं तो कुछ भी जानती ही नहीं,,,,

मैं अपने बेटों को कभी डांट भी नहीं पाई क्योंकि मैं तो अंगूठा टेक थी और सब समझदार,,,,,, मेरे बच्चे बिगड़ गए मेरा ही अपमान करने लगे,,,,  मैं बच्चों के लिए भी अंगूठा टेक ही तो थी,,,,,,

पिता ने भाई ने मुझे पढ़ाया कि अगर पराए घर जाऊं तो मैं चिट्ठी लिख पाऊं और चिट्ठी को पढ़ पाऊं बस मेरे लिए यह बहुत अधिक था




 मुझे साक्षर बना दिया गया,,,, मैं पढ़ भी लेती लिख भी लेती,,,,, साक्षर होने का मेरे पास कोई प्रमाण पत्र ना था,,,,,, कहने का मतलब यह नाम और पहचान को प्रमाणित करने वाली डिग्री या अंक तालिका जो यह बताएं मैं कौन हूं।,,,,,,

मुझे अनपढ़, अंगूठा टेक,, काला अक्षर भैंस बराबर,,,, गवार,,,,, कुपढ,,, जैसे संबोधन दिए गए,,,,, इसके लिए मैं जिम्मेदार बिल्कुल भी ना थी,,,,,,,,, इन्हीं अनपढ़ मांओं ने अपनी बेटियों को इन संबोधन से बचाया

 अपने सपनों को बेटियों में साकार किया,,,,,, अनपढ़ मांओं की बेटी बेटियां आसमान छूने को आतुर है।,,,,

हमें गर्व है ऐसी अंगूठा टेक मां पर,,,,,, जिनकी आंखों के हमारे लिए सपने हमें आसमान छूने के लिए प्रेरित करते रहें,,,,,, ऐसी हजारों मां ओ को मेरा सलूट,,,,, 

और हां मां कभी अंगूठा टेक नहीं हो सकती,,,,, जो समझदारी अनुभव से बेटा बेटियों के सुखद सफल जीवन बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।,,,,,

अभी भी ऐसी मां ए हमारे आस-पास है जो चरण वंदन के अधिकारी हैं।,,,,, जिन मांओं ने अंगूठे के सहारे कलम पकड़ना अपने बच्चों को सिखा ही दिया

मेरी सभी मांओं को समर्पित

मंजू तिवारी गुड़गांव

प्रतियोगिता हेतु

बेटियां जन्मोत्सव 

मेरी चतुर्थ कहानी

स्वरचित मौलिक

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