सौ रुपये का बोरा – सीमा पण्ड्या

बेटियाँ #पाँचवा जन्मोत्सव, कहानी क्रमांक १

लंबे इंतज़ार और अथक प्रयासों के बाद आख़िर मेरा स्थानांतरण गृह नगर हो ही गया। बहुत ख़ुश थे हम लोग कि अब सभी अपने मित्र, सहयोगियों और रिश्तेदारों के बीच में रहेंगे ।पत्नी भी ख़ुश थी क्योंकि उसका ससुराल के साथ-साथ मायका भी यहीं था। बच्चे भी अति प्रसन्न कि अब तो दादाजी के साथ रहने को मिलेगा।

माँ के जाने के बाद से पिछले दो सालों से बाबूजी नौकरों के हाथ का बना खाना खा रहे सो हम पति-पत्नी को यह भी संतुष्टि थी कि अब बाबूजी को नौकरों के हाथ का खाना नहीं खाना पड़ेगा।

ट्रांसफ़र ऑर्डर मिलते ही ताबड़तोड़ सारी  औपचारिकताएँ पूर्ण कर, सामान ट्रक पर लाद पहुँच गये अपने घर।

सामान उतरा और  सामान जमने लगा। सामान से निकलने वाली सारी पौलेथीन बाबूजी एक बोरे में भरते जा रहे थे।

सारा सामान जम गया। धीरे-धीरे दैनिक दिनचर्या सामान्य होने लगी। 

बाबूजी की एक आदत बड़ी अजीब लगती हम दोनों पति-पत्नी को। कोई भी सामान जैसे नमकीन, मसाले , सब्ज़ी,किराना या अन्य कुछ भी सामान पौलेथिन में आता तो वे सामान  ख़ाली होने के बाद तुरंत थैलियाँ एक बोरे में भर कर रख देते, प्लास्टिक की बोतलों का भी एक अलग बोरा बना रखा था।

एक दिन वे जब थैलियाँ भर रहे थे, मैंने कहा भी कि बाबूजी डस्टबीन में डाल देते हैं, कचरा गाड़ी ले जाएगी।

वे बोले- “ जानता है, ये एक बोरा सौ रुपये में जाता है  और  हंसते हुए सारी थैलियाँ और बोतलें बोरे में भरकर रख दी”।

हम दोनों पति-पत्नी ने आश्चर्य से एक-दूसरे की तरफ़ देखा, बाबूजी की सोंच के प्रति हैरानगी थी दोनों की आँखों में ,  कि सब कुछ अच्छा है , किसी भी बात की कोई कमी नहीं, फिर भी बाबूजी मात्र सौ रु के लिये……….

ख़ैर कौन बोले बाबूजी को।

पत्नी कई बार बाबूजी की नज़रें बचा कर पौलेथिन और प्लास्टिक की बॉटलें कचरा गाड़ी में डाल देती थी। स्वच्छ घर में उसे ये कबाड़ अच्छा नहीं लगता था।

दिसंबर माह के एक रविवार दोपहर को भोजन पश्चात हम दोनों टीवी देख रहे थे।

बाबूजी दालान में नर्म धूप सेंकते हुए कोई पुस्तक पढ़ रहे थे।




हमें एक बच्ची की आवाज़ आई- “अंकल जी………अंकल जी………”

बाहर जाकर देखा तो एक दस बारह साल की बच्ची, बहुत पूरानी सी फ्रॉक पहने, एक हाथ में बोरा और दूसरे हाथ में एक कार्ड लिये दौड़ती चली आ रही थी।

आकर बोली- “ अंकल जी मेरा छःमाही का रिज़ल्ट आ गया , मैं पास हो गयी फस्ट डिविज़न “ और उसने बोरा एक तरफ़ रख कर कार्ड बाबूजी के हाथ में पकड़ा दिया।

बाबूजी-“अरे वाह…..”

और बाबूजी कार्ड देखने लगे।

उन्होंने पत्नी को आवाज़  लगाई और बोला-“बहु…… एक थाली में भोजन परोस कर ले आओ, और हाँ कुछ मीठा भी ले आना बिटिया प्रथम श्रेणी में पास हुई है”।

पत्नी ने भोजन लाकर दिया।बाबूजी ने बच्ची को भोजन करने को कहा।  वो भोजन कर रही थी इतनी देर में बाबूजी ने कार्ड का परीक्षण करके कहा-“गणित में तो अच्छे नंबर ले आई इस बार, पर अंग्रेज़ी में अभी भी और मेहनत की ज़रूरत है”।

बच्ची ने हाँ में सर हिलाया।




बाबूजी ने मुझसे कहा-“ वो पौलेथिन वाला बोरा लेकर आना तो…..”

मैंने बोरा लाकर दिया तो बाबूजी ने बोरे में इकट्ठा की हुई सभी थैलियाँ  क़रीने से उस बच्ची के बोरे में जमा दीं।

तब तक वो भोजन कर चुकी थी।वो मेरी पत्नी से बोली-“आंटीजी बहुत ही अच्छा खाना बनाती हो आप”।

उसके चेहरे पर भोजन की संतुष्टि स्पष्ट दिखाई दे रही थी।

फिर बाबूजी ने अपनी जेब से सौ रु निकाल कर उसके हाथ में दिये और कहा-“कॉपी, पेन ,पेंसिल ख़रीद लेना”।

हाँ अंकल जी , एक बात तो बताना भूल ही गयी , स्कूल के मास्टर जी कह रहे थे कि ऐसे ही पढ़ती रही तो मुझे सरकार की तरफ़ से भी वज़ीफ़ा मिलने लगेगा कॉपी किताब खरिदने के लिये”। 

“फिर मुझे आपसे नहीं लेना पड़ेगा वज़ीफ़ा , है न अंकल जी”?

बाबूजी और हम सब हंस दिये उसकी बातें सुन कर।

उसने पोलेथिन से भरा हुआ बोरा अपनी पीठ पर लादा और बाबूजी से बोली -“ अंकल जी , जाऊँ? “

बाबूजी ने कहा-“ठीक है, और सुन ..बहुत सारी प्लास्टिक की बॉटलें भी इकट्ठी हो गयी है, ले जाना किसी दिन आकर”।

उसने हाँ में सर हिलाया और यह बोलते हुए चली गया कि देखना अंकल जी वार्षिक परीक्षा में अंग्रेज़ी में भी अच्छे नंबर आएँगे। 

आत्मविश्वास की चमक उसकी आँखों में स्पष्ट दिखाई दे रही थी।

मैं और पत्नी हतप्रभ हो एक दूसरे को देख रहे थे । बाबूजी के प्रति जो हमने सोच बनाई थी उसके लिये हम दोनों की ही आँखों में  शर्मिंदगी थी। सौ रुपये के बोरे का माजरा भी समझ आ गया था।

अगले दिन से हम दोनों भी जुट गये बाबूजी के सौ रुपये के बोरे को दौ सौ रुपये का बोरा बनाने में ।

स्वरचित , अप्रकाशित 

सीमा पण्ड्या 

उज्जैन म.प्र.

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