वो खौफनाक दोपहर  – डॉ उर्मिला शर्मा

मंजुला हमेशा की तरह सुबह चाय के साथ समाचार पत्र पढ़ रही थी। सुबह में वो समाचारों के हेडलाइंस ही प्रायः देखती थी। विस्तृत जानकारी वाली खबरों को वह शाम को पढ़ती या किसी फुरसत के क्षणों में पढ़ती थी। सरसरी नजर अखबार पर डालते हुए उसकी नजर एक खबर पट आकर अटक गई- “अमुक स्थान पर दहेज के लिए विवाहिता को जलाकर मार डाला, ससुराल वाले फरार।” वैसे तो ऐसी खबरें आम हैं पर जिस स्थान की यह घटना थी, वह स्थान उसका ननिहाल था। और आज से तकरीबन चालीस साल पहले भी उस गाँव मे दहेज के लिए एक बहू मार डाला गयी थी। उस घटना का स्मरण माधुरी को हो आया।

           चालीस वर्ष पूर्व मंजुला लगभग नौ- दस साल की रही होगी। भाई- बहनों में सबसे छोटी व मां की दुलारी बिटिया थी वह। मां जहां भी जातीं, उसे अपने साथ लिए फिरती थीं। उनदिनों मां नानी के घर प्रायः हर महीने- दो महीने पर दो- चार दिनों के लिये हो आया करती थीं। साथ मे वह भी कभी- कभी जाती थी। खूब मजा आता था उसे गांव जाकर। नानी, मां- मामियाँ तथा उनके बच्चों संग खूब खेलना, घूमना और तरह – तरह की चीजें खाना जो शहरी चीजों से अलग किस्म की हुआ करती थीं। मां उसे लेकर कभी इस काकी तो उस चाचा के घर लेकर घूमती थीं। उनदिनों उसे दुल्हनों को देखने मे खूब मजा आता था। नई नवेली दुल्हन को लेकर लड़कियों में में सदा से ही एक फैंटेसी रहती है। अतः गांव में जिसके घर में कोई नई दुल्हन आयी होती थी, मां मुझे वहां ‘कनिया’ यानी दुल्हन दिखाने ले जातीं। वहाँ हमारे मामाजी का आम का बगीचा जिसमें तरह-तरह के नस्ल के आम का पेड़ था। मालदा, कलकतिया, सुगवा, मीठऊवा, जरदा, सुकुल, बीजू, लंगड़ा, कृष्णभोग तरह- तरह के आमों के वृक्ष थे। हम सब ममेरे भाई- बहन वहां खूब मस्ती करते थे। कच्चे- पके आम चुनते और खाते। आंधी आने पर हम सब झोला और बोरा लेकर जाते थे, जिसमें खूब आम बटोरकर ले आते। गर्मी के दुपहरी में भी फुलवारी में शीतल हवा चलती थी जिससे गर्मी का अहसास न होता था। ममेरे भाइयों ने कच्चे आमों को खाने एक एक नायाब तरीका निकाला था। घर से बच्चे लाल मिर्च, नमक और चाकू लेकर फुलवारी जाने के लिए निकलते थे। वहां आम बीनकर चाकू से छील उसे छोटे- छोटे टुकड़ों में काट देते थे फिर उसे रुमाल में रख लाल मिर्च को छोटे- छोटे टुकड़ों में कुतरकर नमक डालकर पोटली जैसा बनाकर उसे किसी पेड़ के तने पर पटक- पटककर कुचल देते थे। कुचलने के चलते आम के टुकड़े एक चटपटी  चटनी में बदल जाता था जिसे हमसब खूब चटखारे ले- लेकर खाते थे…. किसी प्रसाद की तरह। प्यास लगने पर पास के चापानल से पानी पीते थे।




                  हमारा आम का बगीचा गांव की आबादी से थोड़ी दूर पर था। उसके आसपास केवल खेत ही खेत थे। हाँ फुलवारी के पूरब में केवल एक घर था। घरवाले अपेक्षाकृत सम्पन्न व प्रभावशाली लोग थे। उनका भी एक अपनी अलग फुलवारी थी जिसमें अच्छे- अच्छे नस्ल के आमों और लीची के पेड़ हुआ करते थे। मां के साथ मैं दो- तीन बार उनके घर गई थी। वो घर सुरेन्दर मामा का घर था। गांव में तो सभी घरों से कोई न कोई रिश्ता जुड़ा होता है। सुरेंदर मामा हमारे घर भी कभी- कभी आया करते थे जब शहर में किसी काम के सिलसिले में आते थे। एक बार उनके बेटे की शादी में भाग लेने हमलोग ननिहाल गए। उनका बेटा एयरफोर्स में नौकरी करता था। दुल्हन बड़ी प्यारी व सुंदर सी थी।

                संयुक्त परिवार वाले ननिहाल   में एक शीला मौसी थीं जो हमें खूब प्यार करती थीं। वो मां की चहेती बहन थी। वैसे तो हमारे कई मामा- मौसी लखनऊ शहर में रहते थे। हमलोग वहाँ भी जाते रहते थे यानि कि हमारे ननिहाल का आधा कुनबा लखनऊ में भी रहता था। नानी के गांव से भी हमारे यहां कोई न कोई आता ही रहता था। क्योंकि शहर में काम पड़ने से आना- जाना करना पड़ता था। 

          एक बार शीला मौसी हमारे यहाँ आयी हुई थीं। उन्होंने मां को एक बड़ी ही दारुण घटना के बारे में बताया। उन्होंने बताया कि एक बार वो किसी जरूरी काम से सुरेन्दर मामा के यहाँ जा रही थीं। जून की दुपहरी थी। चिलचिलाती धूप की वजह से सभी अपने- अपने घरों में थे। सन्नाटा इतना कि हवा की आवाज़ भी स्पष्ट सुनी जा सकती थी। मौसी उनके घर पहुंची तो मुख्य द्वार की कुंडी खोल दालान पार कर अंदर पहुंची तो अंदर का दरवाजा उढका हुए था। उसे धीरे से धकेला तो वह खुल गया बिना आहट के। बरामदा पार कर मौसी आगे बढ़ने लगीं तभी उनकी नजर आंगन में पड़ीं। तो  मौसी की चीख निकलते- निकलते रह गयी। कलेजा इतनी तेज – तेज धड़कने लगा मानो वह बाहर निकल आएगा। आंगन में सुरेन्दर मामा की बहू चित्त पड़ी हुई थी और उसके गर्दन पर बांस रखकर दोनों सिरे को मामा और मामी जोर से दबा रखे थे। बहू छटपटा रही थी और उसके मुंह से अजीब सी गों-गों की दर्दनाक घुटी हुई आवाज आ रही थी। ये सारे दृश्य एक मिनट के अंदर ही मौसी की नजरों से गुजर गया और मौसी धड़कते दिल से उल्टे पांव बिना आवाज किये तेजी से वापस निकल आयीं। उनके घर से निकलने के बाद तो जैसे वो अपने होशो- हवाश में न थीं। गिरती- पड़ती बदहवास सी भागते हुए घर पहुँची। थर- थर कांप रही थीं। काफी डरी हुई थी। दो दिनों तक किसी को कुछ नहीं बताया। काफी अंतर्द्वंद्व चल रहा था उनके अंदर।




अपराध बोध उन्हें खाए जा रहा था। वो सोच रही थीं कि उन्हें उस नृशंसता को रोकना चाहिए था उस समय। किंतु वो डर गई थीं। जितनी क्रूरता पूर्वक वो घटना को अंजाम दे रहे थे, क्या पता वो लोग उनके साथ भी क्या कर बैठते। इस घटना के आतंक का बोझ और ज्यादा न सह सकने की स्थिति में उन्होंने तीसरे दिन अपनी मां को बताया। विधवा नानी ने किसी ठोस सरपरस्ती के अभाव में शीला मौसी को चुप रहने की सलाह दी। गांव में खबर फैला दी गयी कि की सुरेन्दर मामा की बहू की तबीयत खराब थी । अचानक तबीयत बिगड़ गयी और वो चल बसी। जबकि गांव के लोग दबी जुबान में तरह- तरह की बातें कर ही रहे थे। क्योंकि सुरेंदर मामा की लालची वृत्ति को गांव के लोग खूब जानते थे और जब- तब दहेज के लिए बहु को सताने की खबरें भी लोगों से छुपी न थी। गांव में उनके प्रभाव शाली होने के कारण कोई भी खुलकर कुछ कह नही पा रहा था। बात फुसफुसाहट के बीच ही दबी रह गई। साल बीतते न बीतते उनके बेटे के लिए नई बहू भी ब्याहकर ले आयी गयी। ये बात भी शीला मौसी से ही पता चली थी। उस समय जब मंजुला नौ साल की थी, इस घटना ने उसके मन पर को झकझोर कर रख दिया था। जिस घर में बहू को साल भर पहले ही मार डाला गया हो उस घर में अपनी बेटी को ब्याहने से पूर्व क्या मां- बाप जरा भी छानबीन नहीं करते अपनी बेटी को ब्याहने के पहले। हत्यारों के घर मे कैसे कोई अपनी बेटी को ब्याहता है। क्या एक सम्पन्न घर और कमाऊं लड़का ही काफ़ी है लड़की के विवाह के लिए। अगर ऐसे हत्यारों के घर कोई भी अपनी बेटी देने से इंकार कर तो शायद इनके लालच पर कुछ अंकुश लगे। कानून का काम तो कानून करे ही। किन्तु उसकी तो प्रकिया काफी लंबी होती है तथा जुर्म साबित कर पाना भी टेढ़ी खीर है। ऐसे हत्यारों पर सामाजिक तथा कानूनी दोनों ही मार पड़े तभी ये जुर्म करने से पूर्व सोचें तथा दूसरे भी इससे सबक ले।

        मंजुला का मन भारी हो आया उस घटना को याद कर। आज चालीस साल बाद कुछ भी तो नहीं बदला है। आज भी देश मे असंख्य वधुएं दहेज की खातिर प्रताड़ित की जा रही हैं तथा मारी जा रही हैं। कब तक बहुओं को व्यक्ति न समझकर वस्तु समझा जाता रहेगा। वास्तव में वस्तु भी तो नहीं। क्योकि घर मे जब कोई वस्तु हमें नापसन्द होती है या व्यवहार में नहीं आती तो हम उसे जला थोड़ी न देते हैं। पर वधुएँ तो उससे भी गयी गुजरी समझ ली जाती हैं…। भारी मन से मंजुला उठ खड़ी होती है नाश्ता बनाने के लिये।

 #पांचवा जन्मोत्सव
    —–डॉ उर्मिला शर्मा

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