साथ–साथ – विजया डालमिया

जान से प्यारे ,सबसे प्यारे ….प्यार ही प्यार….

आज बड़ा ही अजीब लग रहा है यूँ  तुम से मुखातिब होते हुए। यूँ तो खयालों में तुम्हें लाकर हमेशा ही तुमसे बातें करती रही हूँ ।पर आज खत को माध्यम बना दिल की बातें तुमसे कहना चाहती हूँ ।इजाजत है ना मुझे?पता नहीं ….तुम्हें कैसा लगेगा? पर एक बात जान लो यह सिर्फ अल्फाज ही नहीं, एहसास है मेरे, जो शब्दों में ढल गए हैं ।मेरी वह लंबी खामोशी जो तुम कभी सुन ही नहीं पाए या ये कहो कभी पढ़ना ही नहीं चाहा। यह वही अनकही बातें हैं जो मैं तुमसे कहती रही। हालाँकि लिखना बहुत भारी काम है। संवेदनाओं को शब्दों में ढाल भी दूँ  तो अनुभूतियों को कैसे बता पाऊँगी? फिर भी…..

तुम्हें याद है…. हमारी वह पहली मुलाकात ?अचानक तुम्हारा मेरे सामने आ जाना? कहाँ  से याद होगा तुम्हें क्योंकि वह सब तो मेरे जेहन में है। तुमने तो मुझे नोटिस भी नहीं किया था,पर मैं तुम्हारी बातों को सुनते सुनते तुम्हें ही एकटक देखे जा रही थी ।तुम्हारे घुंघराले घने बाल और उस पर पतली डंडी वाला चश्मा कितना खूबसूरत बना रहा था तुम्हें और जब प्लेट में रखे फ्रूट्स तुमने नजाकत से खाने शुरू किए तो मुझे हँसी आने लगी थी मन ही मन।

मैं ठहरी सीधे बिना धोये  फ्रूटस कपड़े से पोंछकर खाने वाली ।तुम साँवले थे मगर तीखी नाक वाले और नजर वह तो शायद हमेशा से ही तेज थी। बस मुझे ही कभी नहीं देख पायी।उसके बाद जब कभी तुम घर पर आते पापा से मिलने ,सबसे पहले मैं ही नजर आती तुम्हें। पर तुमने फिर भी नहीं देखा मुझे। बस पापा और तुम कैरम खेलते रहते। बताया था पापा ने मुझे कि तुमने रास्ते में किस तरह उनकी मदद की और फिर उन्हें घर तक ले आए ।तब से ही तो तुम दोनों …..अरे नहीं नहीं, हम तीनों जुड़े ।पर तुमने जोड़ा ही नहीं मुझे। फिर भी मैं तुमसे ,तुम्हारी बातों से, तुम्हारी जिंदगी से जुड़ती चली गई जब तुम नहीं होते तो पापा से तुम्हारी बातें कुरेद कुरेद कर पूछते रहती और उन्हें भी बड़ा मजा आता बताने में क्योंकि मेरे साथ-साथ उनकी नजरों में भी तो तुम हीरो ही थे। उनके बेस्ट फ्रेंड ।एक दिन तुम्हें बहुत भूख लगी थी।  पापा ने कहा…..” रिया, जल्दी से प्रमोद के लिए कुछ ले आओ”।



मैं खुशी में समझ ही नहीं पा रही थी कि क्या बनाऊँ? फिर याद आया पापा का कहना कि….” उसे तो वेजिटेबल उपमा बहुत पसंद है”। बस फटाफट बना कर ले आई और हर कौर पर तुम्हें बलिहारी नजरों से निहारती रही ।जब पूछा …”कैसा बना”? तो .”..हाँ ठीक-ठाक ही है”।  पर मुझे पता था उस दिन के जितना अच्छा उपमा मुझसे कभी नहीं बना क्योंकि उसके बाद से पापा तो हमेशा कहने लगे थे कि….” बेटा प्रमोद वाला उपमा बनाना “और मुझे हँसी आ जाती।एक दिन पापा नहीं थे ।तब तुम आकर लौटने लगे। मैंने थोडा सा चिढ़कर  कहा….” मैं तो हूँ ना”।तब  पहली बार तुमने मुझे गौर से देखा और कहा…. “चलो ,खेलते हैं “।हम काफी देर तक खेलते रहे। तुम हर बार हार गए पर मैं जीत गयी ।ताज्जुब हुआ कि  कैसे? कुछ दिनों से तुम्हारा आना काफी कम हो गया था ।मेरे पूछने पर पापा ने बताया कि….” उसे किसी से प्यार हो गया है ।पर वह उसे कह नहीं सकता”।मेरे दिल में एक हूक सी उठी । 

पर मैंने हँसते हुए कहा….. “इतनी बातें करने वाला यही एक बात नहीं कह पाया “?पापा का जवाब था ….”यही तो सबसे मुश्किल बात है क्योंकि इसे कहने के लिए हिम्मत, ईमानदारी और पारदर्शिता चाहिए होती है”। फिर मैंने कुछ नहीं कहा ।फिर एक दिन पापा की तबीयत ठीक नहीं थी। तुमने बिना देर किए मुझे आवाज लगाकर कहा हम डॉक्टर के यहाँ से अभी आते हैं ।मुझे बहुत अच्छा लगा ।तुम कई दिनों तक उनकी सेवा करते रहे। पर तुम्हारा रवैया मेरे प्रति कभी नहीं बदला। वही नीरसता ।वही बेरुखी ।मुझ में ऐसा कुछ था भी तो नहीं जो तुम्हें पसँद आता ।मेरा प्यार एक तरफा था ।फिर भी …..अब मैं कुछ दिनों के लिए चाची के यहाँ जा रही हूँ ।दुआ करती हूँ तुम्हारा प्यार तुम्हें मिल जाए ।जो तुम्हारे लिए कभी अपनी थी ही नहीं ।

रिया



प्रिय ….रिया तुमने जो कहा मैंने हमेशा सुना ।तुम्हारी खामोशी को मैंने खामोश रहकर ही पढ़ा। तुमसे पहली मुलाकात मैं कभी भूल नहीं पाता,जब दरवाजा खुलते से ही एक चंचल सी मगर परेशान नजरें जो मुझे ही घूरे जा रही थी ।वह निगाहें सीधे दिल में उतरते चली गई थी । तुम्हारी वह निश्चल सी हँसी हमेशा के लिए एक सँगीत की तरह मेरे कानों में गूँजती रहती। बात-बात पर तुम्हारा जोक मारना। हर साधारण सी बात को खास बना देना ।किसी की छोटी-छोटी भावनाओं की भी कद्र करना। यह सब मैं तुमसे सीख रहा था। तुम्हें नहीं पता एक दिन जब मैं आया तब तुम एक भजन गा रही थी जिसे सुनकर मैं तुम्हारी सिंगिंग का  फैन हो गया और उस दिन वेजिटेबल उपमा खाकर तुम्हारी कुकिंग का  भी ।पर शायद मुझे तारीफ करनी नहीं आती। उस दिन तुम्हे  घर पर अकेली पाकर में लौटने जरूर लगा था।

पर दिल में ख्वाहिश थी कि तुम मुझे रोक लो।तुम पूरी ईमानदारी से खेल रही थी। पर मेरा ध्यान पूरा तुम्हारी ही तरफ था ।यही वजह थी कि मैं जीत नहीं पाया ।पर सच कहूँ तो तुमसे  हार कर भी मुझे जो खुशी मिल रही थी ,वह तुम क्या जानो? मेरे बारे में इतना कुछ जानने वाली यह कभी नहीं समझ पाई कि कोई खामोश रहकर, बिना नजरे मिलाए , बिना कुछ    जताये भी उसे चाह सकता है ।उस दिन के बाद से मैं  खुद  घबरा सा गया था कि कहीं पापा मेरी उन  नजरों को ना पढ़ लें  जिसे मैं खुद से भी छुपा कर रखता हूँ । इसीलिए थोड़े दिनों तक आने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। सँकेतों के माध्यम से उनके दिल को टटोलना चाहा । पर प्यार के बारे में उनके विचार इतने सशक्त व सुलझे हुए थे

कि मैंने सोचा पहले मैं खुद को उस काबिल बना लूँ। बस इसी कशमकश में मैं तुम्हें नजर अंदाज करता रहा अपनी नजरों में बसाने के बावजूद भी। तुम्हारी नजरों को तो मैं पहले ही पढ़ चुका था ,जिसमें सिर्फ और सिर्फ मैं ही था।पर मैं पापा को कुछ समय और देना चाहता था अपने आप को समझने के लिए। तुम्हें शायद ही पता हो कल ही उन्होंने मुझसे कहा कि…..” बस ..अब रिया के हाथ पीले कर दूं तो गंगा नहा लूँ “। मैंने जब उनसे उनकी पसँद पूछी तो उन्होंने मुझे शाँत नजरों से देखा। कुछ पल ठहरे व फिर कहा…..” बस ,तुम्हारे जैसा ही चाहिए”। मैं समझ गया, और अब तुम भी समझ जाओ। बस तैयार रहो। तुम्हारा साथ चाहिए।

तुझसे मेरा फासला है एक खयाल भरका ।

तू मुझे सोच तो सही देख तेरे पास ही हूं मैं।

जो हमेशा से ही तुम्हारा था…… प्रमोद।

विजया डालमिया

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